कभी मां के इलाज के लिए बेचनी पड़ी थी ज़मीन, आज दूसरों की कर रहे मदद
Shubham Koul 10 Oct 2017 9:24 PM GMT

लखनऊ। हम हर दिन सब्जी विक्रेताओं से मिलते हैं, लेकिन क्या कभी उनकी जिंदगी के बारे में जानना चाहते हैं, ऐसे एक सब्जी विक्रेता से आज हम मिलवाते हैं, जिसे कभी मां के इलाज के लिए खेत तक बेचना पड़ा, छोटी सी उम्र में ड्राइवरी करनी पड़ी, लेकिन आज गाड़ी चलाकर और सब्जी बेचकर अपने भाइयों के साथ ही गाँव के दूसरे युवाओं की भी मदद कर रहे हैं।
लखनऊ के नारायण खेड़ा के रहने वाले अशोक वर्मा (18 वर्ष) सब्जी बेचने का काम करते हैं घर में मां-बाप और कुल आठ भाई बहन हैं। उनकी जिंदगी में एक समय ऐसा भी आया जब आठवीं के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ी, सभी भाई कुछ न कुछ काम धंधा करने लगे और विनोद अपने मामा के साथ दूसरों की गाड़ियों की ड्राइविंग करने लगे।
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"हमारी पढ़ाई छूट गई, पिछले दस साल हम बहुत परेशान रहे, हम पांच भाई और तीन बहने हैं सब छोटे-छोटे, उस समय इतने बड़े नहीं थे कि कोई काम कर पाते। घर में पिता अकेले कमाने वाले थे। फिर मम्मी की तबियत खराब रहने लगी, लखनऊ के बड़े अस्पतालों में दिखाया, इलाज के लिए जब पैसे कम पड़े तो खेत भी बेचना पड़ा।" अशोक वर्मा ने बताया।
अशोक आगे बताते हैं, "आठवीं के बाद घर में ऐसी परिस्थितियां आयीं की मामा के साथ डाला चलाने लगे, धीरे-धीरे पैसे इकट्ठा करके आज अपनी गाड़ी खरीद ली। घर में भाई सब्जी बेचने का काम करते थे और मैं दूसरे के गाड़ी की ड्राइवरी करता था, तब लगा कि गाड़ी खरीद लें हम सभी का काम आसान हो जाएगा। पहले जब भाई सब्जी लेकर आते तो बहुत परेशानी होती घंटों बैठकर गाड़ी का इंतजार करना पड़ता, सर्दियों में तो बहुत परेशानी हो जाती, जब से टाटा ऐस आयी, जिंदगी आसान हो गई।"
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अब अशोक अपने भाइयों के साथ ही गाँव के दूसरे कई युवाओं के लिए मदद कर रहे हैं, एक समय था जब उन्हें दूसरों की गाड़ियों के भरोसे रहना पड़ता था, अब दस-बारह लोग एक साथ मंडी से बाजार तक सब्जी लेकर जाते हैं। सुबह दस लोग एक जगह पर इकट्ठा होते हैं और सभी सब्जी लेकर तेलीबाग की सब्जी मंडी जाते हैं, उसके बाद उसे बेच कर ही आते हैं अब चाहे रात के बारह बजे या फिर एक।
अशोक की मां रामलली (50 वर्ष) खुश होकर कहती हैं, "अशोक तो छोटी सी उम्र में ही घर के कामों में हाथ बंटाने लगा था और खेती में अपने पापा और भाइयों की मदद करने लगा, आज भी सभी बच्चों में सबसे ज्यादा समझदार है।"
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टाटा ऐस चलाकर हर महीने 25 हजार रुपए बचत हो जाती है, जिसमें से 12 हजार रुपए किस्त चली जाती है, 13 हजार रुपए बच भी जाते हैं, खेती से भी आमदनी हो जाती है। "जब से डाला आया है और अच्छा काम होने लगा है पहले ये लगता था कि बाजार तक सामान कैसे ले जाएंगे, कोई साधन नहीं था, तब लगता था कि अगर सामान नहीं बिका तो घर लेकर जाओ अब ये लगता है कि नहीं बिका तो अलग से भाड़ा तो नहीं देना पड़ेगा।" अशोक ने बताया।
जमीन बेचने के बाद भी मेरे पिता के ऊपर पांच लाख का कर्ज रह गया था, लेकिन अब सब चुका दिया है। गाड़ी आने से मैं भी खुश हूं और घर वाले भी, ये आज कमाई का जरिया बन गया है। आज अशोक और उनके भाइयों ने मिलकर दो बीघा जमीन और भी खरीद ली है।
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अशोक और उनका परिवार टाटा ऐस से इतने खुश हैं कि वो अपनी शादी के बाद अपनी बीवी को टाटा ऐस से ही लाने की बात करते हैं।" शादी करूंगा तो अपनी बीवी को इसी पर बैठाकर ले आऊंगा, इसी से हम बारात लेकर जाएंगे।" अशोक शर्माते हुए कहते हैं।
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