नोटबंदी ने दिहाड़ी मजदूरों की तोड़ दी कमर

Abhishek PandeyAbhishek Pandey   8 Nov 2017 7:35 PM GMT

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नोटबंदी ने दिहाड़ी मजदूरों की तोड़ दी कमरमैन्युफैक्चरिंग और कंस्ट्रक्शन से जुड़े थे सबसे अधिक मजदूर वर्ग

लखनऊ। पिछले वर्ष नोटबंदी के ऐलान ने सभी देशवासियों को चौंका दिया था। हर ओर बैंक की तरफ भागने की अफरा-तफरी सी मच गई थी। वहीं इससे बिल्कुल उलट मजदूर वर्ग नोटबंदी के असर से सबसे अधिक प्रभावित हुआ था, जिसके चलते कई घरों के चिराग नोटबंदी की भेट चढ़ गये। हालांकि वक्त के साथ-साथ पूरी अर्थव्यवस्था को पटरी पर आने में समय लगा, लेकिन तबतक बहुत देर हो चुकी थी।

बिहार के छपरा जिले से लखनऊ आकर मजदूरी करने वाले अशोक बताते हैं कि करीब 12 वर्ष पहले वह अपने पत्नी और चार बच्चों के भरण-पोषण के लिए यहां आ गए थे। जिसके बाद लखनऊ में कामकाज भी मिल गया और सबकुछ ठीक चल रहा था। इस बीच नवम्बर 2016 में अचानक पुराने नोट सरकार ने बंद करने का क्या एलान किया, मानो अशोक की दुनिया ही उजड़ गई। जिन कंस्ट्रक्शन साइडों पर अशोक मिस्त्री का कार्य किया करते थे, वहां नोटबंदी के चलते काम रुक गया और उन्हें लंबे समय तक खाली बैठना पड़ा।

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इस बीच अशोक ने बताया कि, उसकी माली हालत पूरी तरह से बिगड़ गई और पूरे परिवार को दोबारा से बिहार छोड़ कर आना पड़ा। देखते ही देखते यह हालत हो गई कि, पूरे परिवार को भूखे पेट सोना पड़ता था।

अशोक से जब नोटबंदी के संबंध में पूछा गया तो उसने कहा कि साहब जीडीपी-ईडीपी बड़े लोगों के मुंह से अक्सर सुना करत है, लेकिन हम रोज का कमाने-खाने वाले हैं, हम लोगन का क्या इससे मतलब है। आज भी अशोक कहते हैं कि, काम तो धीरे-धीरे मिलना शुरू हो गया है, लेकिन 12 साल से लखनऊ में रह रहे परिवार को दोबारा से गॉंव ले जाकर छोड़ने का दुख है।

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कुछ यहीं दर्द देवरिया जिले से 15 साल पहले लखनऊ आये बिजली मिस्त्री ब्रजेश यादव का है। ब्रजेश ने बताया कि नोटबंदी के वक्त ज्यादातर काम ठप पड़ गए, जिसके चलते कही बिजली फिटिंग का काम मिलना बंद हो गया और जिन घरों में बिजली का काम किया था, वहां मालिक लोग जबरन पुराने नोट थमाकर अपना हिसाब कर लेते थे। ब्रजेश ने कहा कि किसी तरह बैंक में पुराने नोटों को बदली कर घर चला पाया, लेकिन नोटबंदी के पांच महीने इस तरह बीते जैसे की जिंदा लाश से बनकर रह गए थे।

वहीं आकड़ों की बात करे तो नोटबंदी से सबसे अधिक असर मैन्युफैक्चरिंग और कंस्ट्रक्शन सेक्टर पर पड़ा, जहां सबसे अधिक असंगठित क्षेत्र के मजदूर काम कर अपने घर का पालन पोषण कर रहे थे, लेकिन पीएम नरेंद्र मोदी के एक फैसले ने इनकी जिंदगी एकदम से बदल कर रख दी, जिसे दूसरे शब्दों में कहे तो हाथ-पैर सही सलामत होने के बावजूद भींख मागने को मजबूर कर दिया। फिर भी केंद्र सरकार के सरकारी आकड़ों के खेल ने इस दर्द को कही पीछे छोड़ नोटबंदी के मुद्दे को राजनैतिक मुद्दा बनाकर छोड़ा दिया, लेकिन हर कोई यह भुल गया कि, जिनके लिए देश में यह कठोर कदम उठाये गए वह लोग तो कुछ समय के लिए ही विचलित हुए पर इससे सबसे अधिक प्रभावित असंगठित क्ष्रेत्र के मजूदर हुए, जिनसे नोटबंदी के चलते रोजगार छीन गया, जिसे देखने और पूछने वाला कोई नहीं था।

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अर्थशास्त्री की मानें तो जीडीपी में गिरावट का सबसे बड़ा कारण नोटबंदी मान रहे हैं। क्योंकि इसका असंगठित क्षेत्र पर बड़ा असर पड़ा है। उनका कहना है कि देश में ब्लैक इकॉनमी का मात्र एक प्रतिशत कालाधन कैश में था। जबकि 93% लोग असंगठित क्षेत्र पर रोजगार के लिए निर्भर हैं।

शुरुआत में नोटबंदी का जीडीपी पर असर इसलिए भी नहीं दिखा क्योंकि उसमे ज्यादातर संगठित क्षेत्र का डाटा था, जबकि सबसे ज्यादा प्रभावित हुए असंगठित क्षेत्र का डाटा धीरे-धीरे आना शुरू हुआ है। नोटबंदी का ही असर था बैंकों की क्रेडिट ग्रोथ नेगेटिव में चली गई थी। ग्रोथ में गिरावट ज्यादातर इंडस्ट्री सेक्टर में गिरावट की वजह से है। मैन्युफैक्चरिंग में सबसे ज्यादा गिरावट है। ये 10 फीसदी से गिरकर 1 फीसदी पर पहुंच गई है। इसके अलावा कंस्ट्रक्शन और कृषि सेक्टर की ग्रोथ में भी गिरावट है। हालांकि सर्विस सेक्टर का प्रदर्शन उम्मीद के हिसाब से ठीक रहा।

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वहीं नोटबंदी के मसले पर चीफ स्टैटिस्टिशियन टीसीए अनंत कुमार का कहना है कि नोटबंदी की वजह से ग्रोथ में गिरावट आई है ऐसा सोचना गलत है। उन्होंने कहा कि जीएसटी के दौरान इंडस्ट्री ने नए प्रोडक्ट का उत्पादन काफी कम कर दिया था। जिसके कारण जीडीपी में गिरावट देखने को मिली है। आने वाली तिमाही में इंडस्ट्री में उत्पादन फिर से पुराने स्तर पर लौटने लगेगा और जीडीपी में बढ़ोतरी देखने को मिलेगी।

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उधर सीएसओ के अनुसार वर्ष 2016-17 में कृषि और संबंधित क्षेत्र की वृद्धि दर 4.4 प्रतिशत रहने का अनुमान है जो पिछले वित्त वर्ष के मुकाबले 0.8 प्रतिशत ऊंची रहेगी। आर्थिक मामलों के सचिव शक्तिकांत दास ने इस पर प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त करते हुए कहा था कि, जीडीपी के ताजा आंकड़ों ने नोटबंदी की ‘नकारात्मक अटकलों’ को खारिज कर दिया है।

यूरोपियन देशों ने उठाया था पहला कदम

इस तरह के कदम उस समय उठाए गए थे जब यूरोपियन मौद्रिक संघों वाले देशों ने यूरो को अपनी मुद्रा के तौर पर अपनाया था। उस समय पुरानी मुद्रा को हालांकि एक समय तक यूरो में बदलने की मंजूरी दी गई थी ताकि लेन-देन में सुविधा बनी रहे।

पहले भी हो चूकी है भारत में नोटबंदी

नोटों को कैसे ठिकाने लगा रहे हैं कालाधन रखने वाले भारत ने क्‍यों अपनाया भारत ने ब्‍लैक मनी और फेक करेंसी को खत्‍म करने के लिए इस व्‍यवस्‍था को अपनाया है। यह भी काफी रोचक है कि यह पहली बार नहीं है जब भारत सरकार ने इस तरह का कोई कदम उठाया है। सबसे पहले वर्ष 1946 में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) ने विमुद्रीकरण को अपनाया था। उस समय आरबीआई ने 1,000 और 10,000 के नोट जारी किए थे। वर्ष 1954 यानी आठ वर्ष बाद में भारत सरकार ने 1,000, 5,000 और 10,000 के नए नोट जारी किए। इसके बाद वर्ष 1978 में मोरारजी देसाई की सरकार ने इन नोटों को चलन से बाहर कर दिया था।

इन देशों में भी रहा नोटबंदी का असर

अफ्रीकन देश जिम्‍बॉव्‍वे वर्ष 2008 में जिम्‍बॉव्‍वे अपनी मुद्रा की कीमत खत्‍म होने के बाद महंगाई की मार झेल रहा था और किसी को समझ ही नहीं आ रहा था कि अब क्‍या किया जाए। इसके बाद जून 2015 में यहां के रिजर्व बैंक ने फैसला किया कि देश ने अब कई मुद्राओं वाले सिस्‍टम को अपना लिया है।

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वर्ष 2009 में जिम्‍बॉव्‍वे ने मुद्रा को डॉलर में बदल दिया था। ऐसे में जरूरी हो गया था कि जिम्‍बॉव्‍वे की डॉलर यूनिट को कई मुद्राओं में बदला जाए। जिम्‍बॉव्‍वे के सेंट्रल बैंक ने कहा था कि, ग्राहकों को प्रोत्‍साहित करने और व्‍यापार में भरोसा बढ़ाने के लिए यह काफी अहम है।

वहीं सिंगापुर में जापानी 'बनाना' नोटों को उस समय जारी किया गया जब जापान ने इसका अधिग्रहण किया था। जापानियों के सरेंडर के बाद वर्ष1945 में इस मुद्रा को बाहर कर दिया गया और फिर सिंगापुर मिंट को अपनाया गया। फिजी में 13 जनवरी 1969 को विमुद्रीकरण को अपनाया गया। यहां के रिजर्व बैंक ने उस समय कहा कि पौंड और शिलिंग को विमुद्रीकरण काफी जरूरी है क्‍योंकि फिजी अब नई व्‍यवस्‍था को अपना रहा है और नई मुद्रा को जारी करेगा।

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बैंक ने कहा था कि कि पौंड और शिलिंग की एक सीमित मात्रा ही चलन में है। फिलीपींस के सेंट्रल बैंक ने 12 जून 1985 को नई डिजाइन वाले बैंक नोटों को चलन से बाहर करने का फैसला लिया था। इसके बाद 10 वर्षों से चलन में मौजूद मुद्रा को बंद कर दिया गया।

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