तिलहन किसान पिछड़ा, दो तिहाई भारत खाता है विदेशी तेल

देश में पिछले दस वर्षों में मूंगफली, अलसी, सूरजमुखी समेत कई फसलों का रकबा तेजी से गिरा। ज्यादातर लोगों के किचन, होटल और रेस्टोरेंट में, जो तेल सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है, वो विदेशों से मंगाया गया होता है।

Arvind ShuklaArvind Shukla   21 July 2018 11:39 AM GMT

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तिलहन किसान पिछड़ा, दो तिहाई भारत खाता है विदेशी तेल

लखनऊ। देश की खाद्य जरूरतों को पूरा करने के लिए करीब 23 लाख टन वनस्पति तेल की जरूरत होती है, जबकि भारत में सिर्फ 8 लाख टन तेल पैदा होता है। बाकी का 15 लाख टन विदेशों से मंगाया जाता है। इससे न सिर्फ करोड़ों रुपए की विदेशी मुद्रा खर्च होती है, बल्कि देश के किसानों को उनकी उपज का मूल्य नहीं मिल पाता है।

ज्यादातर लोगों के किचन, होटल और रेस्टोरेंट में, जो तेल सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है, वो विदेशों से मंगाया गया होता है। भारत में वर्ष 2017-18 में विदेशों से 74,996 करोड़ रुपए का वनस्पति तेल मंगवाया गया, जबकि दालों का आयात सिर्फ 18,748 करोड़ का हुआ है।

देश में विदेशों से भी कृषि उत्पाद मंगाए जाते हैं, उनमें वनस्पति तेल पर खर्च सबसे ज्यादा है। विदेशों से आने वाले वनस्पति तेल में 80 फीसदी तक पाम ऑयल होता है, जो सेहत के लिए भी खतरनाक है। लेकिन सरसों, मूंगफली और सोयाबीन की अपेक्षा सस्ता होने के चलते ये पाम ऑयल धड़ल्ले से इस्तेमाल होता है। जबकि देश में तिलहनों की खेती और किसान दयनीय स्थिति में हैं।


विदेशों से आयात की नौबत क्यों आती है?


अस्सी के दशक आसपास भारत में पर्याप्त तिहलन होता था, लेकिन उसके बाद से लगातार हमारी निर्भरता विदेशों पर बढ़ती गई। पिछले 10 वर्षों में मूंगफली, अलसी और सूरजमुखी समेत कई फसलों का रकबा तेजी से गिरा है, सूरखमुखी की खेती चिंताजनक हालात में है तो सरसों-राई का उत्पादन और रकबा दोनों कई सवाल खड़े करते हैं।

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अगर देश में खाद्यान तेलों की मांग इतनी ज्यादा है तो फिर विदेशों से आयात की नौबत क्यों आती है, और क्यों देश के किसानों को उचित मूल्य नहीं मिल पा रहा?

सरसों और दूसरे तेलों के मुकाबले पाम ऑयल बहुत सस्ता पड़ता है इसलिए भारत में उसकी काफी मांग है तो कारोबारी भी विदेश से मंगाते हैं। विश्व व्यापार संगठन के समझौते के तहत भारत विदेशों से कुछ भी लेने से इनकार नहीं कर सकता। इसलिए आयात ड्यूटी लगाकर उस पर अंकुश लगाने की कोशिश होती है, लेकिन ये स्थायी हल नहीं है। - डॉ. गिरीश झा, प्रधान वैज्ञानिक, भारतीय कृषि एवं अनुसंधान संस्थान

तिहलन की खेती और उद्योग को लेकर भारतीय कृषि एवं अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई) के प्रधान वैज्ञानिक और कृषि अर्थशास्त्री डॉ. गिरीश झा बताते हैं, "सरसों और दूसरे तेलों के मुकाबले पाम ऑयल बहुत सस्ता पड़ता है इसलिए भारत में उसकी काफी मांग है तो कारोबारी भी विदेश से मंगाते हैं। विश्व व्यापार संगठन के समझौते के तहत भारत विदेशों से कुछ भी लेने से इनकार नहीं कर सकता। इसलिए आयात ड्यूटी लगाकर उस पर अंकुश लगाने की कोशिश होती है, लेकिन ये स्थायी हल नहीं है।" इसकी दूसरी वजह सरकारों की उपभोक्ता वादी नीति है। विदेश से आने वाले किसी उत्पादन पर आयात ड्यूटी बढ़ाने से उसकी कीमतें बढ़ने लगती है, जिसका असर उपभोक्ताओं पर पड़ता है। पाम आयल ६० रुपए प्रति लीटर में देश के किसी गांव तक पहुंच सकता है, जबकि सरसों या मूंगफली के तेल की कीमत ज्यादा होगी।

उत्तर प्रदेश की हालत सबसे दयनीय

तिलहन के उत्पादन में उत्तर प्रदेश की हालत सबसे दयनीय है। तिहलनी फसलों की ज्यादातर खेती उन इलाकों में होती है, जहां खेती मानसून पर ज्यादा निर्भर है। मथुरा में सरसों की खेती बड़े पैमाने पर होती है, लेकिन किसान खुश नहीं है।

मथुरा में नोहझील ब्लॉक में इनायतगढ़ गाँव के किसान तेजपाल सिंह के पास 8 एकड़ जमीन है। तेजपाल बताते हैं, "हमारे इलाके में सरसों खूब होती है लेकिन ज्यादा उगाकर किसान करेगा क्या, रेट तो मिलते नहीं है। खेती की लागत इतनी बढ़ गई है कि लागत नहीं निकल रही। सरकार एमएसपी तय करती है, उस पर भी खरीद नहीं होती। फिर किसान ऐसी फसलें क्यों उगाएगा?"

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अगर बात सरसों की करें तो पिछले वर्ष सरसों का न्यूनतम समर्थन मूल्य 4000 रुपए था, लेकिन किसानों ने 3000 रुपए में बेचा। वहीं मध्य प्रदेश में सोयाबीन किसानों के हालात किसी से छिपी नहीं। भावांतर के बावजूद सोयाबीन 2200 रुपए प्रति कुंतल बिकने की नौबत आई थी।

भारत के ज्यादातर घरों में इंडोनेशिया और मलेशिया का पाम ऑयल


सरसों का तेल उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, उत्तराखंड, दिल्ली समेत उत्तर भारत के कई राज्यों का प्रमुख खाद्य तेल है। यूपी में इसकी आपूर्ति राजस्थान और मध्य प्रदेश से होती है। सरसों की तरह भारत में 9 तिहलनी फसलों, मूंगफली, तिल, नारियल, अलसी, सोयाबीन, सूरजमुखी, रामतिल, कुसुम और अरंडी की खेती होती है। (इसमें से 2 अरंडी और अलसी खाने में प्रयोग नहीं की जाती।) बावजूद इसके भारत के ज्यादातर घरों में इंडोनेशिया और मलेशिया से आने वाला पाम ऑयल इस्तेमाल होता है।

तिलहन के क्षेत्र में संभावनाओं, मुश्किलों और सरकारी स्तर नीतियों पर मंथन के लिए 16 जुलाई को लखनऊ में देश भर के वैज्ञानिक, विभागों के अधिकारी, कृषि विश्वविद्यालों के वैज्ञानिक, किसान, कंपनियों के कर्मचारी और शेयर होल्डर जुटे। उत्तर प्रदेश कृषि अनुसंधान परिषद (उपकार) में "तिहलन उत्पादन का वर्तमान परिदृश्य तथा कृषकों की आय दोगुना किये जाने के उद्देश्य से सुधार की रणनीतियां,'' विषय पर वैज्ञानिकों और अधिकारियों अपने सुझाव दिए।

तिलहन की खेती जोखिम का सौदा

देश में इसकी खेती और किसानों की आमदनी कैसे बढ़े, इसके लिए गिरीश झा कई सुझाव देते हैं। "तिहलन की खेती जोखिम का सौदा है तो सरकार को चाहिए कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ जोखिम का इंसेटिव देना चाहिए। दूसरा हमें तिहलन की अच्छी किस्सों और तकनीकी किसानों को उपलब्ध करानी होंगी। अभी भारत में करीब 26-27 मिलियन हेक्टेयर में तिहलन फसलों की खेती होती है, और करीब इतने ही मिलियन टन उत्पादन होता है। हमारे यहां औसत उत्पादन करीब एक टन है, जो काफी कम है। इसे बढ़ाए जाने की जरूरत है।"

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भारत में सबसे ज्यादा तिहलनों की खेती (क्षेत्रफल और उत्पादन) में मध्य प्रदेश सबसे आगे है, जबकि उत्पादकता के मामले में तमिलनाडु अव्वल है। मध्य प्रदेश में प्रति हेक्टेयर उत्पादन 851 किलो है, तमिलनाडु का 2230 किलो जबकि इस मामले में यूपी, भारत में 9 वें नंबर पर है। लेकिन पूरी दुनिया की बात करें तो बाकी तिलहन उगाने वाले देश करीब-करीब 2 टन प्रति हेक्टेयर उत्पादन लेते हैं। उत्तर प्रदेश की बात करें तो यहां एक हेक्टेयर जमीन में सिर्फ एक टन उत्पादन होता है, जबकि कनाडा में एक हेक्टेयर में सवा दो टन (2.24) उत्पादन होता है।

उत्पादन में इस पिछड़ेपन के लिए कई लोग जिम्मेदार हैं। देश में हरित क्रांति ने प्रभावित किया तो विश्व स्तर पर उदारीकरण ने नुकसान पहुंचाया। वर्ष 1986 में तिलहनों पर प्राद्यौगिकी मिशन की स्थापना हुई। वर्ष 2014 में इसे राष्ट्रीय तिहलन और तेल पाम राष्ट्रीय मिशन (एनएमओओपी) के तहत देने की कवायद हुई। वर्ष 1986-87- में करीब 11.3 मिलियन टन उत्पादन था, जो 2014-15 में 26.68 तक पहुंच गया, लेकिन ये बढ़ोतरी काफी कम है। सरकार अब तिहलन को किसानों की आमदनी का जरिया बनाना चाहती है। पिछले कुछ वर्षों में भारत में 33 सीड हब बनाए गए हैं, जिसमें एक यूपी के मिर्जापुर में है।

यूपी में तिलहन की संभावनाओं को देखते हुए विभाग योजनाद्ध तरीके से काम करेगा, जो सुझाव आएं हैं, उनका ड्राफ्ट बनाकर भेजा जाएगा और सुझावों पर अमल किया जाएगा। - एसआर कौशल, तिहलन निदेशक, उत्तर प्रदेश कृषि निदेशालय

अब सुझावों पर करेंगे अमल

तिहलन आमदनी का जरिया कैसे बने इस बारे में बात करते हुए, उत्तर प्रदेश कृषि निदेशालय में तिहलन के निदेशक एसआर कौशल ने सेमिनार में कहा, "यूपी में तिलहन की संभावनाओं को देखते हुए विभाग योजनाद्ध तरीके से काम करेगा, जो सुझाव आएं हैं, उनका ड्राफ्ट बनाकर भेजा जाएगा और सुझावों पर अमल किया जाएगा।"

इस दौरान उत्तर प्रदेश सरकार के कृषि सलाहकार डॉ. वीके राजू ने अधिकारियों और कृषि वैज्ञानिकों से कहा कि इस दिशा में सबको मिलकर काम करना होगा। सिर्फ एमएसपी बढ़ाना इसका हल नहीं, जब तक उद्योग नहीं आएंगे किसानों को फायदा नहीं मिलेगा।"

उत्तर प्रदेश में तिहलन के पिछड़ने का कारण यहां तिलहन उद्योग से जुड़ी इंडस्ट्री का न होना भी है। यही वजह रही कि सूरजमुखी की खेती पूरी तरह खत्म होने के कगार पर है, जबकि सोयाबीन भी न के बराबर होती है। सरकारी उदासीनता के चलते पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों से भी सूरजमुखी खत्म हुई है, जबकि ये किसानों के लिए कम लागत में ज्यादा मुनाफा देने वाली फसल है।

फोटो साभार: इंटरनेट

सस्ते के चक्कर में तेल में मिलावट

भारत में तिहलन की खेती को इसलिए भी बढ़ावा दिए जाने की जरूरत हैं, क्योंकि विदेशों से आने वाला पाम ऑयल सस्ता होता है और इसे बाकी तेलों और वनस्पितियों और रिफाइंड आदि में मिलाया जाता है। कन्जयूमर वाईस के अध्ययन में पता चला है कि वर्ष 2017 के आंकड़ों के अनुसार देश में 50 फीसदी तेलों में मिलावट होती है, जिसमें सबसे ज्यादा मिलावट सरसों के तेल में होती है। यूपी में 72 फीसदी तक मिलावट पाई गई है। पूरे भारत में सरसों के 124 सैंपल लिए गए, जिसमें से 89 मिलावटी मिलें, ये मिलावट 71 फीसदी थी। लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन तक ने इससे हृदय और मधुमेह जैसी बीमारियां का खतरा बताया है। तेल नारियल में 149 में से 126 सैंपल मिलावटी मिले, यानी 84.56 फीसदी पाए गए।

अच्छी ख़बर: पॉम आयल का आयात घटा

तिहलन किसानों को उनकी उपज का बेहतर मूल्य दिलाने के लिए सरकारी कोशिशें असर दिखा रही हैं। तिलहन से जुड़े कारोबारियों, किसानों और सरकार के लिए अच्छी खबर है। पाम ऑयल के मुकाबले सॉफ्ट ऑयल (सोयाबीन, सरसों, सूरजमुखी का तेल) का आयात बढ़ा है। जून महीने में पिछले 25 हफ्तों में तेल का आयात सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया। सॉल्वेंट एक्सट्रैक्टक्स एसोसिएशन की तरफ से दी गई जानकारी के मुताबिक जून के दौरान देश में कुल 10.04 लाख टन खाद्य तेल का आयात हुआ है, जो मई 2016 के बाद सबसे कम मासिक आयात है और जून 2017 में हुए आयात के मुकाबले 22 प्रतिशत कम है। इस साल जून में जितना वनस्पति तेल आयात हुआ उसमें 52 फीसदी पाम ऑयल, जबकि 48 फीसदी है। जबकि पहले ये 60-65 होता था। इसे तिहलन किसानों को उनकी उपज दिलाने की सरकारी कवायद का असर माना जा रहा है, जिसके तहत सरकार ने तेल पर आयात ड्यूटी 54 फीसदी तक लगा रखी है। हालांकि वैश्विक समझौते के तहत सरकार को आने वाले 3-4 महीने में इस ड्यूटी को घटाकर फिर 44 फीसदी के आसपास लाना होगा।

ये आए मुख्य सुझाव

तिहलन पर ज्यादा एमएसपी दी जाए

एमएसपी के साथ रिस्क कवर मिले

किसानों को अच्छी किस्म के बीज दिए जाएं

सीड हब बनाएं जाएं और इंड्रस्ट्री को बढ़ावा मिले

एफपीओ के जरिए युवाओं को तिहलन में उद्योद दिया जाए

सरसों के लिए जरूरी एसएसपी और जिप्सप सरलता से मुहैया हों

चावल की भूसी और मक्के से भी तेल निकाला जाए

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