किसी की आंखें नहीं है, तो कोई चल नहीं सकता...लेकिन उन्होंने हाथ नहीं फैलाए, भीख नहीं मांगी...

इस समूह में 10-12 लोग हैं.. किसी को दिखाई नहीं पड़ता तो कोई सुन नहीं सकता.. किसी के बचपन से पैर नहीं है, किसी के हाथों ने उसका साथ छोड़ दिया है.. लेकिन जिंदगी से नहीं हारे. दूसरों से भीख नहीं मांगी.. एक साथ मिले और अपना काम शुरु कर दिया.. ये उनकी कहानी है..

Neetu SinghNeetu Singh   5 Sep 2019 7:13 AM GMT

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हजारीबाग (झारखंड)। दिव्यांगों का ये समूह जो 40 से 100 फीसदी तक दिव्यांग हैं लेकिन आज हर किसी के लिए उदाहरण हैं। आज ये अपनी दिव्यांगता को कोस नहीं रहे बल्कि राशन वितरण प्रणाली का बेहतर तरीके से संचालन कर एक अनूठी मिसाल पेश कर रहे हैं।

समूह के अध्यक्ष विनोद पाण्डेय (39 वर्ष) जिन्हें आँखों से बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता। वो दूसरों के सहारे हाथ पकड़ कर चलते हैं। पर आज उनमें ये बताते हुए आत्मविश्वास था, "हमें दिखाई भले ही नहीं पड़ता लेकिन इन मित्रों की मदद से ये दुकान चला लेते हैं। कहीं आना-जाना होता है तो इनकी मदद से चले जाते हैं। हमारे समूह को कई लोग देखने आते हैं। हर कोई हमारे समूह का हौसला बढ़ाता है इससे हम लोगों का उत्साह बढ़ता है।"

वो आगे बताते हैं, "यहाँ गाँव के जो लोग भी राशन लेने आते हैं वो हम सब की जरूरत पड़ने पर मदद कर देते हैं। आज समूह में हमारी खुद की बचत है और खुद का काम भी हो गया है। अब ये राशन की दुकान चलाकर ऐसा नहीं लगता है कि हम खाली बैठे हैं।"

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विनोद की तरह इस समूह में 2 महिला और 9 पुरुष जुड़े हैं जो दिव्यांग हैं। अब ये इस दुकान पर सभी मिलजुलकर काम करते हैं और एक दूसरे के व्यक्तिगत सहयोग के लिए भी हमेशा तत्पर रहते हैं। दुकान और समूह में इनकी बराबरी की हिस्सेदारी है। ये दिव्यांग समूह हजारीबाग जिला मुख्यालय से लगभग 35 किलोमीटर दूर डांड़ पंचायत में रहता है। झारखंड स्टेट लाइवलीहुड प्रमोशन सोसाइटी एवं साईट सेवर के साझा प्रयास से "राष्ट्रीय दिव्यांग समूह' का गठन करके उसमें जुड़ गये। इस दिव्यांग समूह को जुलाई 2018 में जनवितरण प्रणाली की दुकान दिलाई गयी जिससे ये अपनी आजीविका को मजबूत कर सकें। ये महीने में हर सदस्य 50 रुपए जमा करते हैं। वक़्त जरूरत पड़ने पर समूह से उधार ले लेते पर किसी के आगे हाथ नहीं फैलाते।


गाँव में रह रहे दिव्यांग ग्रामीणों को आर्थिक रूप से सशक्त करने की पहल से दिव्यांगों के लिए काम कर रही संस्था साइट सेवर संस्था ने वर्ष 2015 में झारखंड ग्रामीण विकास विभाग, झारखंड स्टेट लाइवलीहुड प्रमोशन सोसाइटी के साझा प्रयास से इन दिव्यांगों के स्वयं सहायता समूह बनाने की शुरुआत की। झारखंड में अबतक 800 से ज्यादा दिव्यांगों के स्वयं सहायता समूह बन चुके हैं। जो हजारीबाग समूह की तरह विभिन्न तरह के काम कर रहे हैं। इनमे से कोई समूह जूट का सामान बनाता तो कैटरिंग का काम करता इनमे से कोई ईरिक्शा चलाता। कुछ बकरी पालन करते तो कईयों ने लोन लेकर खुद की दुकान खोल ली है।


विनोद को आज जीवन यापन करने का एक ठिकाना मिल गया इस बात से खुश तो थे लेकिन बीते दिनों को याद करते हुए आज भी वो भावुक हो जाते हैं। वो बताते हैं, "लीबर में कुछ कमी थी तबसे दिखाई नहीं पड़ता। कहीं जाने के लिए कई बार लोगों से कहना पड़ता था पर जल्दी कोई हमें अपने साथ ले नहीं जाना चाहता था। मन मारकर बैठ जाते थे। दिमाग हमारा पूरा काम करता पर दिखाई बिलकुल नहीं पड़ता जिसकी वजह से दिमाग का होना भी बेकार है।" वो आगे कहते हैं, "दिव्यांग समूह में सभी हमारे जैसे ही हैं सबने कष्ट झेले हैं। सब एक दूसरे की तकलीफ को समझते हैं ये समूह हमारे लिए आमदनी का जरिया तो है ही पर उससे ज्यादा अपने जीवन जीने का एक आसरा मिल गया है।"

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किसी भी गाँव में दिव्यांग समूह बनाने के लिए सबसे पहले उस पूरे गाँव में दिव्यांग साथियों को चिन्हित किया जाता है। जब 10-15 दिव्यांग लोग इकट्ठा हो जाते हैं तो उनका स्वयं सहायता समूह बना दिया जाता है। इस स्वयं सहायता समूह में महिला और पुरुष दोनों शामिल हो सकते हैं। जहाँ ये सप्ताह की बचत करते हैं और आपस में जरूरत पड़ने पर एक दूसरे की मदद भी। जब इस समूह को कोई रोजगार मिल जाता है तो इस समूह में जो जिस योग्य होता है उन्हें उसी तरह की जिम्मेदारी दे दी जाती है। ये एक जैसे होते हैं इसलिए एक दूसरे की परेशानियों को बखूबी समझते हैं और मिलजुलकर अपने काम को संचालित करते हैं।

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समूह की कोषाध्यक्ष अनीता देवी (43 वर्ष) को एक कान से सुनाई नहीं पड़ता जबकि एक से हल्का सुन लेती हैं। वो बताती हैं, "हम तो घर में ही काम करते रहते थे। ज्यादा किसी से बता भी नहीं करते थे क्योंकि ऊँचा सुनाई पड़ता था। जब यहाँ समूह में जुड़े तो हम एक दूसरे की तकलीफ को समझते हैं। एक बार में नहीं सुनाई पड़ता तो ये लोग कई बार तेज बोलते हैं पर गुस्सा नहीं करते।" वो आगे बताती हैं, "समूह में जुड़ने के बाद जो सम्मान मिला वो इससे पहले कभी नहीं मिला। आज तो कोषाध्यक्ष भी हैं पूरी जिम्मेदारी राशन कोटा और अपने समूह की सम्भालते हैं। हम अपने दुःख तकलीफ खुशियाँ सब यहाँ बाँट लेते हैं।"


समूह में एक बजरंगी पासवान (20 वर्ष) हैं जिन्हें 100 प्रतिशत दिखाई नहीं पड़ता। ये अपने पड़ोस के 10-12 घरों तक ही सीमित रहते हैं। इन्हें समूह से तो जोड़ा गया है पर इनके हिस्से का राशन कोटा पर काम इनकी माँ करती हैं। बजरंगी बताते हैं, "समूह में ये अच्छी बात है जो खुद काम नहीं कर सकता उसके बदले उसके घर से कोई भी आकर उसकी मदद कर देता है। अब इन लोगों के साथ पूरे दिन दुकान पर बने रहते हैं तो मेरा मन लगा रहता है। अब हमें अँधा कोई कहकर भी नहीं बुलाता है।"

वो आगे कहते हैं, "पहले हमें सब अँधा और लंगड़ा कहकर बुलाते थे हमें बुरा लगता था इसलिए माँ के साथ ही कहीं जाते थे। समूह के लोग डांटते हैं अगर कोई कुछ कहता इसलिए अब कोई कुछ नहीं कहता।" इन दिव्यांग लोगों के लिए ये समूह केवल बचत या आमदनी का ठिकाना नहीं है बल्कि यहाँ ये एक दूसरे को समझते हैं सुनते हैं उनकी समस्याओं को सुलझाते हैं।

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