विकास की दौड़ में कहां हैं मज़दूर

दुनिया में कितना भी मशीनीकरण हुआ हो, लेकिन कभी भी कम नहीं हुई मानव श्रम की महत्ता

Suvigya JainSuvigya Jain   2 May 2019 6:28 AM GMT

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विकास की दौड़ में कहां हैं मज़दूर

एक मई को पूरी दुनिया मजदूर दिवस मनाती है। इस दिन मजदूरों या श्रमिकों के कल्याण की बातें की जाती हैं।

आज के दिन रस्म के तौर पर यह भी याद किया जाता है कि अंतरराष्ट्रीय श्रमिक दिवस मनाने की परंपरा कब शुरू हुई थी? क्यों शुरू हुई थी? भले ही आज इस दिवस का रूप बदल गया हो फिर भी विकसित विश्व में मजदूरों या कामगारों के योगदान को हम आज के दिन याद करते हैं और श्रमिकों का आभार जताते हैं।

दुनिया में कितना भी मशीनीकरण हुआ हो, लेकिन मानव श्रम की महत्ता कभी भी कम नहीं हुई। कितने भी स्वाचालित यंत्र और मशीनें बन गई हों, लेकिन उन्हें चलाने या उनके नियमन के लिए मानव की अनिवार्यता आज तक खत्म नहीं हुई।

कुछ-कुछ विद्वान तो यह भी कहने लगते हैं कि मशीनों ने श्रमिक मानवों के जीवन को सुविधाजनक बनाया है। हालांकि ये बात किस हद तक सही है? इस पर वाद-विवाद होता रहता है। खासतौर पर तब जब तेजी से बढ़ रहे मशीनीकरण के दौर में मानव श्रम के शोषण के मौके भी बढ़ गए हों।

बेरोजगारी बढ़ चली हो और मजदूरों के कार्यस्थल की विषम परिस्थितियों के सवाल उठने लगे हों। ये वे सवाल हैं जिस पर सोच विचार करते हुए ही अंतरराष्ट्रीय श्रम दिवस मनाए जाने की शुरुआत हुई थी।

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श्रमिक दिवस का इतिहास

पूरे विश्व में मजदूर वर्ग का इतिहास संघर्ष भरा रहा है। अलग-अलग किस्म के शारीरिक श्रम और उद्योग धंधों में लगे श्रमिकों को अपने कार्यक्षेत्र में मानवोचित बुनियादी ज़रूरतें हासिल करने के लिए बड़े संघर्षों से गुज़ारना पड़ा है। फिर वह चाहे काम के निश्चित घंटों की बात हो या काम करने की जगह की सुरक्षा, वेंटिलेशन, रोशनी, साफ़ सफाई जैसे मूलभूत मुद्दे हों।

लेबर डे या श्रमिक दिवस की शुरुआत भी इन्ही मुद्दों के लिए आवाज़ उठाते हुए हुई। लेबर डे के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना 4 मई 1886 में शिकागो के हेमार्केट स्क्वायर में हुए मजदूरों के प्रदर्शन को माना जाता है। इस प्रदर्शन की शुरुआत एक दिन में अधिकतम आठ घंटे काम की मांग के साथ बहुत ही शांतिपूर्ण तरीके से की गयी थी।

लेकिन भीड़ में से किसी के पुलिस पर बम फ़ेंक देने की वजह से 11 लोगों की जान चली गयी और यह प्रदर्शन नियंत्रण से बाहर निकल गया। दोषियों को सजा भी हुई। लेकिन इसके बाद आठ घंटे प्रति दिन काम की मांग दुनिया के कई हिस्सों से उठने लगी।

इसी के बाद 1904 में इंटरनेशनल सोशलिस्ट कांफ्रेंस ने एम्स्टर्डम से दुनिया के सभी देशों की ट्रेड यूनियनों और सोशलिस्ट पार्टियों से 1 मई को वैधानिक रूप से प्रति दिन 8 घंटे काम के लिए निश्चित करने की मांग के लिए प्रदर्शन करने की मांग की। तभी से करीब 80 देश इस दिन को श्रमिक दिवस, लेबर डे, इंटरनेशनल वर्कर्स डे, मे डे आदि के नाम से मानाते हैं।

अमेरिका जैसे कुछ देश ऐसे भी हैं जो यह दिन सितम्बर के महीने में मानते हैं। भारत में श्रमिक दिवस पहली बार 1 मई 1923 को चेन्नई में मनाया गया।

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हमारा लोकतंत्र हमारे मज़दूर




आजादी के बाद हमारे पूर्वजों ने मिश्रित अर्थव्यवस्था को चुना था। विश्व में औद्योगिक क्रांति हो चुकी थी और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का जोर था। कोई सौ साल लंबे स्वतंत्रता संग्राम के बाद हमें आज़ादी मिली थी। हमें अपने नागरिकों की सुख समृद्धि के लिए अपनी व्यवस्थाएं बनाना था। अपनी अधिकांश आबादी के लिए कमाई और आजीविका के मौके पैदा करने थे।

अनाज के मामले में देश आत्म निर्भर नहीं था। पर्याप्त कपड़ा और मकान भी नहीं था। इन सारे कामों के लिए श्रम बल के प्रबंधन पर सोचने की जरूरत थी। संसाधनों के बगैर ये काम कैसे शुरू हो पाए होंगे? यह आज भी एक रहस्य है। तब से आज तक सत्तर साल में अगर हम अपनी अर्थव्यवस्था का आकार 200 लाख करोड़ का देख पा रहे हैं तो यह देश के किसानों खेतिहर मजदूरों और औद्योगिक मजदूरों के योगदान के बिना संभव नहीं था।

ये अलग बात है कि हमारे पास आज ऐसा कोई उपाय नहीं है जिससे हम कामगारों, किसानों और खेतिहर मजदूरों के प्रतिदान का सही सही मूल्यांकन कर सकें।

हमारी अर्थव्यवस्था का प्रकार और मज़दूर


आजादी के बाद हमें अपनी अर्थव्यवस्था का रूप तय करना था। उपलब्ध विकल्पों में एक रास्ता था साम्यवादी और दूसरा था पूंजीवादी। दोनों के अपने-अपने गुण-दोष थे। आजाद देश ने तय किया कि मिश्रित अर्थव्यवस्था के रूप को अपनाया जाए।

परिस्थितियों के देखते हुए यही तरीका था जो आर्थिक विकास को भी सुनिश्चित कर सकता था और साथ ही कल्याणकारी कार्यों की गुंजाइश निकाल सकता था। आजादी के बाद पंचवर्षीय योजनाओं का इतिहास गवाह है कि कैसे-कैसे देश बनाने का काम हुआ? किसानों और खेतिहर मजदूरों ने अपने देश को अनाज के मामले में जल्द ही आत्म निर्भर बना लिया।

औद्योगिक मजदूरों ने कल कारखाने खड़े कर दिए। अब हमें यह हिसाब लगाना है कि खेतिहर मजदूरों की वास्तविक स्थिति आज क्या है और औद्योगिक मजदूरों को हम क्या प्रतिदान दे रहे हैं। बाकी सारी पेचीदगियां अगर आज के योजनाकारों और विशेषज्ञों के सोचने के लिए छोड़ भी दी जाएं फिर भी कुछ साल पहले ग्रामीण मजदूरों के लिए बनाई गई मनरेगा योजना की समीक्षा तो मजदूर दिवस पर जरूर कर ली जानी चाहिए।

रही बात औद्योगिक मजदूरों की, तो उनके वेतन, कार्यस्थलों की परिस्थितियों और कार्य के घंटे का सवाल बहुत पीछे छूटता जा रहा है, इस समय तो काम का ही ऐसा टोटा पड़ गया है कि मजदूर बुरी से बुरी हालत में भी चुपचाप काम करने को तैयार दिखता है।

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श्रमिक का विकल्प नहीं है मशीन

पूरी दुनिया उत्पाद की लागत कम करने के लिए मशीन के इस्तेमाल को बढ़ाकर देख रही है। हर क्षेत्र में स्वाचालित मशीनें ईजाद करने की होड़ सी मची है। मानव श्रम की बजाए ऊर्जा के दूसरे उपाय आजमा के भी देखे जा रहे हैं। इन सबके पीछे मकसद एक ही दिखता है कि उत्पाद की लागत घट जाए।

बेशक उत्पादन की रफतार बढ़ गई, लागत भी घट गई, लेकिन अब समझ में आ रहा है कि आखिर उत्पादन बढ़ाएंगे कितना? और उस उत्पाद के उपभोक्ता को कहां से ढ़ूंढें? यह भी समझ में आ रहा है कि हर समाज में अधिसंख्य यानी सबसे बड़ा वर्ग श्रमिकों या मजदूरों कामगारों का ही होता है। और वे ही सबसे प्रभावी उपभोक्ता होते हैं।

इस समय अपनी आबादी में भारतीय किसानों और खेतिहर मजदूरों की संख्या अर्थशास्त्रियों को नए सिरे से सोचने पर मजबूर कर रही है। अर्थशास्त्री तरीका निकाल कर ला रहे हैं कि कैसे भी हो गरीबों मजदूरों, बेरोजगारों की जेब में पैसा डालो ताकि माल बिके उससे माल बनाने का मौका बने, उससे रोजगार के मौके बनें और अर्थव्यवस्था तेजी से आगे बढ़े।

वैसे ये पहेली इतनी आसान है नहीं है। जिस तरह हर पेड़ के फलने फूलने की एक सीमा है वैसे ही अर्थव्यवस्थाओं के बढ़ने फूलने की भी एक सीमा जरूर होगी। कम से कम अपने देश में मजदूरों को न्यूनतम सुविधाएं देने की कल्पना उनके लिए रोजगार या उत्पादक कार्य पैदा किए बगैर हो नहीं सकती।

आधुनिक प्रौद्योगिकी प्रबंधन में श्रमिक सबसे पहले



यह एक निर्णीत तथ्य है कि पूरे विश्व में हर औद्योगिक क्रान्ति के केंद्र में मजदूर वर्ग ही रहा है। आज भी हर छोटे बड़े काम के लिए कामगारों की ज़रूरत पड़ती है। आधुनिक उद्योग और व्यापार जगत में भी शुरू से लेकर अंत तक की प्रक्रिया में श्रमिकों के बिना काम नहीं चलता।

इसीलिए प्रबंधन के छात्रों को सबसे पहले यही पढाया जाता है कि किसी नए काम को शुरू करने से पहले किन-किन चीजों का प्रबंधन सोचना पड़ता है। प्रबंधन प्रोद्योगिकी के पाठ में किसी भी नए उद्योग को शुरू के लिए पांच मूल ज़रूरत पूरी होना आवश्यक बताया जाता है।

इन पांच ज़रूरतों को '5 एम' कहा जाता है। इन पांच एम में पहला एम ही मैन यानी श्रमिक या दूसरे कामगार हैं। दूसरा एम मनी यानी पूंजी है। तीसरा मेटीरियल यानी कच्चा माल। चौथा एम है मैथड, यानी जो काम करना है उसकी पेशेवर प्रक्रिया या प्रणाली। और आखिर में मशीनरी यानी उस कार्य में इस्तेमाल होने वाली मशीनें और अन्य यन्त्र। इन पांच एम में पहला कामगार ही है।

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भारतीय श्रमिक वर्ग की स्थिति

अपने देश में किसानों और खेतिहर मजदूरों की हालत पर कई बार लिखा जा चुका है। उनकी बदहाल स्थिति अब ढकी छुपी बात नहीं है। उनके आलावा दूसरे काम धंधों में लगे लोगों के लिए हमारे देश में लेबर पार्टिसिपेशन रेट निकाला जाता है।

इसका मतलब होता है कि देश में काम करने लायक उम्र की कितनी फीसदी आबादी किन-किन काम धंधों में लगी हुई है। कुछ समय पहले 2018 के लिए यह दर 49.8 फीसद निकल कर आई। यानी 50.2 फीसद लोग ऐसे हैं जो काम कर सकते हैं लेकिन किसी अर्थोपार्जक कार्य में नहीं लगे हैं। यह आंकड़ा चौकाने वाला है।

इससे देश में काम की कमी का पता चलता है। इसके आलावा भी इस समय देश का श्रमिक वर्ग कम मेहनताना, अस्थायी नौकरी, असुरक्षित कार्यक्षेत्र, मशीनीकरण, बाल मजदूरी, महिलाओं को असमान वेतन, निजीकरण जैसी कई मुश्किलों से जूझ रहा है।

भारत दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था तो बन गया, लेकिन बिना समावेशी आर्थिक विकास के ये उपलब्धि अधूरी और बेमानी ही कही जाएगी। इसीलिए कम से कम आज के दिन भारत के मजदूर और दूसरे कार्यों में लगे श्रमिकों के मुददों पर विचार विमर्श ज़रूर होना चाहिए।

   

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