घोषणापत्रों में ऊपर आते किसानों के मुद्दों का विश्लेषण भी होना चाहिए

Suvigya JainSuvigya Jain   4 April 2019 12:45 PM GMT

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घोषणापत्रों में ऊपर आते किसानों के मुद्दों का विश्लेषण भी होना चाहिए

लखनऊ। कांग्रेस ने अपना घोषणा पत्र जारी कर दिया है। इसने चुनाव के कई मुद्दे तय कर दिए हैं। अभी सत्तादल और दूसरी पार्टियों के घोषणा पत्र आने बाकी हैं। बहरहाल, मीडिया और आम जनता के बीच कांग्रेस की प्रस्तावित योजना में सबसे ज्यादा कौतूहल न्यूनतम आय योजना को लेकर है। बेशक आकार में यह योजना काफी बड़ी है। पांच करोड़ गरीब परिवारों को सालाना 72 हजार रूपए देने की घोषणा है, लेकिन 52 पेज के घोषणा पत्र में न्यूनतम आय के अलावा भी कई महत्वपूर्ण बातें हैं। उनकी चर्चा ज्यादा नहीं हुई।

घोषणापत्र का एक बड़ा हिस्सा कृषि, किसान और ग्रामीण विकास पर आधारित है। इससे किसान और गाँव इस लोकसभा चुनाव का मुख्य मुद्दा बनते दिख रहे हैं। हालांकि, जब दूसरे दलों के घोषणा पत्र आ जायेंगे तब ही यह बात पक्की हो पाएगी। देश की सबसे पुरानी पार्टी ने अगर किसानों और ग्रामीण भारत पर ज्यादा गौर किया है तो उसकी चर्चा और उसका विश्लेषण ज़रूर होना चाहिए।

ग्रामीण रोज़गार भी उतने ही महत्व की बात

आज पूरा देश बेरोज़गारी से जूझ रहा है लेकिन ग्रामीण भारत में यह समस्या भयावह है। ये अलग बात है कि गांव तक मीडिया की नज़र नहीं जाती और गांव जैसा दिखता है उसमें बेरोज़गारी के आकार-प्रकार का पता नहीं चल पाता। दरअसल बेरोज़गारी के कई प्रकार होते हैं। भारतीय गांव के पास ले-देकर खेती किसानी का ही काम होता है और इस काम में पता नहीं चलता कि जो लोग काम कर रहे हैं उनमें कितने ऐसे हैं जो बेरोज़गारी की मजबूरी में ही अपने परिवार के काम में साथ खड़े दिखते हैं। जबकि उतने लोगों की वहां जरूरत होती नहीं है।


अर्थशास्त्र की भाषा में इसे छदम बेरोज़गार कहते हैं। हालांकि सरकारी तौर पर अपने देश में छदम बेरोज़गारी का हिसाब रखने का चलन नहीं है। इसके अलावा संसाधनों के अभाव में पूरे साल काम न होना बेरोज़गारी का एक और रूप है जिसे आंशिक रोज़गार कहा जाता है। आंशिक बेरोज़गारों का भी अलग से हिसाब नहीं रखा जाता।

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इसी समस्या को देखते हुए बारह साल पहले सत्तारूढ़ यूपीए सरकार मनरेगा योजना लेकर आई थी। इसके तहत ग्रामीण बेरोज़गारों को साल में 100 दिन का रोज़गार देने का प्रावधान था। यह योजना चमत्कारिक रूप से असरदार रही। अब कांग्रेस ने इस योजना के तहत 100 दिन के रोजगार को बढ़ाकर 150 दिन करने का इरादा किया है। इसके अलावा ग्राम पंचायतों में 10 लाख नए रोज़गार पैदा करने की योजना बनाई है।

दूसरी ओर कांग्रेस अपने घोषणा पत्र में 'लो स्किल्ड जॉब्स' श्रेणी में दो नए कार्यक्रम लाने का वादा कर रही है। एक काम यह सोचा गया है कि जर्जर तालाबों और पोखरों की मरम्मत और पुनर्निर्माण की नई योजना शुरू की जाएगी। दूसरा कार्यक्रम वृक्षारोपण और बंजर भूमि को खेती लायक बनाने का है। इस काम के लिए बड़े स्तर पर ग्रामीण युवाओं को लगाए जाने की योजना घोषणा पत्र में दी गई है। अपने देश में जहाँ अधिकतम खेती वर्षा आधारित है वहां जलाशयों के पुनर्निर्माण का काम अपने आप में एक बड़ा काम होगा। कांग्रेस के घोषणापत्र की इस योजना की चर्चा भले ही कम हो रही हो लेकिन इसे कम महत्व नहीं दिया जाना चाहिए।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर नज़र

न्यूनतम आय योजना के लाभार्थी जब तय किए जाएंगे तो इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं है कि गरीबी से सबसे ज्यादा पीड़ित गाँव में ही मिलेंगे। हर साल 72,000 रपए अगर ग्रामीण परिवारों को मिल गए तो इससे सिर्फ ग्रामीण अर्थव्यवस्था में ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में भी तेजी देखने को मिल सकती है। यह एक सिद्ध बात है कि भारतीय बाज़ार का सबसे बड़ा उपभोक्ता गाँव ही है। अनुमान लगाया जा सकता है कि देश की एक चौथाई आबादी के पास क्रयशक्ति आ जाने से बाजार में मांग किस कदर बढ़ेगी। इससे जीडीपी पर चमत्कारी असर दिख सकता है।

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घोषणापत्र में कृषि उत्पाद के रखरखाव और बर्बादी रोकने के इंतजाम के लिए जो वादे किये गए हैं वो भी गौर करने लायक हैं। देश के हर ब्लाक में नए भण्डार गृह, कोल्ड स्टोरेज और खाद्य प्रसंस्करण इकाइयां लगाने की बात कही गई है। गौरतलब है कि अभी भारत में कुल खाद्य उत्पाद का करीब 30 फीसद हिस्सा बर्बाद हो जाता है। इसका सबसे ज्यादा नुकसान किसान और गरीब झेलते हैं। इसी के साथ कृषि पर सरकारी खर्च में पारदर्शिता लाने के लिए अलग से किसान बजट लाने का प्रस्ताव भी इस घोषणा पत्र में है। इससे किसान सीधे समझ सकते हैं कि कुल बजट में देश की आधी से ज्यादा आबादी को कितने फीसद हिस्सा मिलेगा।


कृषि सुधार

इस समय किसान के सामने सबसे बड़ा संकट अपने उत्पाद के लिए वह बाजार तलाशने का है, जहां उसे अपनी उपज का वाजिब दाम मिल सके। इस दिशा में घोषणापत्र में कई बातें कही गयी हैं। मसलन छोटे कस्बों और बड़े गाँवों में बुनियादी ढांचों के साथ बिना किसी प्रतिबन्ध वाले कृषि बाजरों की स्थापना। कई विशेषज्ञ मानते हैं कि इस समय भारतीय कृषि के लिए देश के बाहर के बाजार बहुत लाभदायक साबित हो सकते हैं। एक शोध रिपोर्ट के मुताबिक अगर कुल निर्यात में कृषि का हिस्सा 1 फीसद बढ़ता है तो करीब 10 हजार करोड़ रूपए सीधे कृषि क्षेत्र को मिल जाते हैं।

कांग्रेस ये दावा कर रही है कि अगर वह सरकार में आई तो कृषि उपज मंडी समितियों के अधिनियम में संशोधन करेगी, जिससे कृषि निर्यात और अंतर्राजीय व्यापार पर लगे सभी प्रतिबंध खत्म हो जाएंगे।

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कृषि सुधार के लिए विशेषज्ञ काफी समय से फसलों में विविधता लाने का उपाय भी सुझाते आए हैं। इस बारे में कांग्रेस के घोषणा पत्र में यह वादा है कि वह मोटे अनाज और दालों की अलग-अलग किस्मों का उत्पादन बढ़ाने के लिए कार्यक्रम लाएगी। इसी के साथ बागवानी, मछली पालन और रेशम कीटपालन के लिए कई प्रोत्साहन कार्यक्रम चलाने का वादा भी किया गया है। इसी तरह दुग्ध किसानों के लिए भी 5 साल में दुग्ध उत्पादन को दोगुना करने की योजना है। सरसरी नज़र डालने से यह लक्ष्य सोच विचार की मांग करता है लेकिन गौर से देखने पर पता चलता है कि कुछ सरकारी योजनाओं के सहारे दूध की मांग बढ़ाने की योजना भी बनाई गई है।


कृषि सुधार के लिए इस समय एक बड़ी ज़रुरत कृषि क्षेत्र में शोध अध्यनों की भी है। इस पर घोषणापत्र में वादा है कि अगले 5 साल में हर जिले में कृषि कॉलेज और पशुचिकित्सा कॉलेज खोले जाएंगे। इसी के साथ कृषि क्षेत्र में शोध और शिक्षण को बढ़ावा देने के लिए अनुदान दोगुना करने का भी एक प्रस्ताव है।

अखबारों और टीवी पर कांग्रेस के घोषणापत्र की चर्चा भले ही न की जा रही हो लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि इस घोषणापत्र से कृषि, किसान और गांव मुख्य चुनावी मुद्दों में औपचारिक तौर पर शामिल हो गए हैं। कांग्रेस के घोषणा पत्र के बाद अब सत्तादल के घोषणापत्र का इंतजार है। देखते हैं उसमें किसानों और गांव के लिए क्या कहा जाता है?


    

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