जलकुंभी अब बनेगी कमाई: ICRISAT का सोलर हार्वेस्टर आया ग्रामीणों के साथ

Gaon Connection | Nov 25, 2025, 13:12 IST

भारत के गाँवों में जलकुंभी वर्षों से एक ऐसी समस्या रही है जिसने तालाबों, मछलियों, जलजीवों और ग्रामीण अर्थव्यवस्था का दम घोंट दिया है। तालाब जो कभी जीवन का स्रोत थे, आज हरी चादरों के नीचे सिसकते दिखते हैं। पर इसी अंधेरे के बीच एक नई रोशनी उभरी ICRISAT का सौर ऊर्जा से चलने वाला वाटर हाइऐसिंथ हार्वेस्टर। एक ऐसी मशीन जो न केवल जलकुंभी हटाती है, बल्कि उसे ग्रामीण आजीविका, पर्यावरण संरक्षण और महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण के अवसर में बदल देती है।

भारत के गाँवों में जलकुंभी (Water Hyacinth) दशकों से एक “शांत लेकिन अत्यंत खतरनाक” जैविक संकट के रूप में फैलती रही है। यह तेज़ी से बढ़ने वाली जलीय खरपतवार जब तालाबों, झीलों और नहरों को ढक लेती है तो पानी पर मोटी चादर बन जाती है, सूर्य का प्रकाश जल की सतह तक नहीं पहुंच पाता और पानी में घुली ऑक्सीजन तेजी से कम हो जाती है। परिणामस्वरूप मछलियाँ मरने लगती हैं, तालाब दलदली हो जाते हैं और उनका उपयोग सिंचाई, मत्स्यपालन, पीने या पारंपरिक ग्रामीण गतिविधियों में लगभग असंभव हो जाता है।

वैज्ञानिक बताते हैं कि केवल 8–10 पौधे 6–8 महीनों में 6 लाख पौधों में बदल जाते हैं, और भारतीय आर्द्रभूमियों में इसकी मात्रा 400 टन प्रति हेक्टेयर तक पहुँच सकती है। यह विस्तार न सिर्फ आश्चर्यजनक है, बल्कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को ढहाने वाली प्रक्रिया भी है। रासायनिक या जैविक तरीके महँगे और अस्थायी साबित हुए हैं, और जब मैनुअल कटाई की बात हो तो 10–20 मज़दूरों को 18–20 दिन तक निरंतर मेहनत करनी पड़ती है। यह समस्या सिर्फ भारत की नहीं, बल्कि एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका जैसे विस्तृत क्षेत्रों में एक गंभीर पर्यावरणीय चुनौती बन चुकी है।

इसी पृष्ठभूमि में ICRISAT द्वारा डिज़ाइन और निर्मित सोलर-पावर्ड वाटर हाइऐसिंथ हार्वेस्टर असली बदलाव का वाहक बनकर सामने आता है—एक ऐसा नवाचार जो न सिर्फ वैज्ञानिक रूप से सुदृढ़ है, बल्कि ग्रामीण ज़रूरतों, आर्थिक सीमाओं और पर्यावरणीय चिंताओं को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है। यह मशीन 2025 में इंडिया इनोवेटर्स एसोसिएशन द्वारा जारी Top 100 Indian Innovations में शामिल की गई और 2024 में इसे भारत का पहला औद्योगिक डिज़ाइन (Industrial Design Grant) भी मिला—यह मान्यता साबित करती है कि तकनीकी उत्कृष्टता और सामाजिक उपयोगिता का यह संगम कोई साधारण उपलब्धि नहीं।

खेत को उपजाऊ बनाने के साथ ही कमाई का जरिया बनेगी जलकुंभी


मशीन पूरी तरह सौर ऊर्जा पर आधारित है, ₹2 लाख से कम लागत में तैयार हो जाती है (जो साधारण मशीनों की तुलना में 8–10 गुना सस्ती है) और इसे चलाने के लिए तकनीकी विशेषज्ञता की आवश्यकता भी नहीं। कोई भी सेमी-स्किल्ड या अनस्किल्ड ग्रामीण व्यक्ति इसे आसानी से चला सकता है, जो इसे भारत के लाखों गाँवों के लिए अत्यंत उपयोगी बनाता है। इससे 50–60% तक लागत, श्रम और समय बचता है, और सबसे महत्वपूर्ण बात—यह ईंधन नहीं जलाता, यानी यह पर्यावरण-हितैषी समाधान है।

ICRISAT के अंतरिम महानिदेशक डॉ. स्टैनफोर्ड ब्लेड ने इसे “एक वैश्विक पर्यावरणीय समस्या के लिए स्थानीय और किफायती समाधान” कहा, जबकि डॉ. हिमांशु पाठक के अनुसार यह मशीन सिर्फ एक उपकरण नहीं बल्कि “जल पारितंत्र को पुनर्जीवित करने का नया विज्ञान-आधारित रास्ता” है। इस नवाचार के प्रमुख अन्वेषक डॉ. अविराज दत्ता और उनकी टीम—डॉ. एम.एल. जाट, डॉ. रमेश सिंह, हरिओम सिंह, संतोष राजा, योगेश कुमार और जिनिथ महाजन ने इसे इस तरह बनाया कि यह ग्रामीण परिस्थितियों और छोटे तालाबों में भी कुशलता से काम करे। ICRISAT की IP टीम ने इसकी डिज़ाइन प्रक्रिया से लेकर कानूनी पंजीकरण तक पूरा प्रबंधन किया।

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यह मशीन सिर्फ जलकुंभी हटाती नहीं—यह “वेस्ट से वैल्थ” (Waste to Wealth) का एक मज़बूत मॉडल भी बनाती है। ओडिशा सरकार के साथ मिलकर ICRISAT ने “Sustainable Valorisation of Water Hyacinth Biomass” परियोजना में जलकुंभी को वैज्ञानिक तरीकों से कम्पोस्ट, जैविक खाद, मछली चारा और यहाँ तक कि हस्तनिर्मित कागज़ बनाने तक का रास्ता तैयार किया है। पुरी ज़िले के निमापड़ा ब्लॉक में महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों (SHGs) को प्रशिक्षित कर वैज्ञानिक कम्पोस्टिंग मॉडल विकसित किया गया, जिसमें जलकुंभी, धान की पुआल और गोबर को 7:2:1 अनुपात में मिलाकर 80–100 दिनों में उच्च गुणवत्ता का कम्पोस्ट तैयार किया जाता है।

माइक्रोबियल कल्चर का उपयोग इस प्रक्रिया को और तेज़ करता है। वैज्ञानिक निगरानी से हर ढेर का तापमान, नमी और पोषक मूल्य मापा जाता है, और तैयार खाद FCO मानकों पर खरा उतरती है। इस मॉडल का आर्थिक पहलू भी बेहद सशक्त है—1 किलो कम्पोस्ट बनाने की लागत लगभग ₹8 आती है जबकि इसे बाज़ार में ₹10 या उससे अधिक में बेचा जा सकता है। परिणामस्वरूप पुरी जिले में 2 वर्षों में 600 टन से अधिक कम्पोस्ट तैयार किया गया, जिससे ग्रामीण महिलाओं की आय में वृद्धि हुई, और गाँवों की अर्थव्यवस्था में नई ऊर्जा आई।

इस पूरी प्रक्रिया का सबसे प्रेरक तत्व यह है कि पहले जहाँ तालाब जलकुंभी से पटकर बेकार पड़े थे, वहीं अब नियमित कटाई और सफाई से तालाबों की उपयोगिता वापस लौट रही है। प्रकाश और ऑक्सीजन के पुनर्संचार के कारण मछलियाँ फिर से बढ़ने लगीं, जल गुणवत्ता सुधरी, भूजल रिचार्ज बढ़ा, और ग्रामीण मत्स्य पालन को नई दिशा मिली। वहीं SHGs को कम्पोस्ट और अन्य उत्पादों से आय के अवसर मिले। इस मॉडल ने यह भी साबित किया कि जलकुंभी को हटाकर किनारे फेंकने या जलाने की बजाय उसे संसाधन में बदलना आर्थिक और पर्यावरणीय दोनों दृष्टियों से अधिक लाभकारी है।

ICRISAT Secures Its First Industrial Design Grant for Its Solar-Powered Water Hyacinth Harvester (3)


ICRISAT का सोलर हार्वेस्टर इस पूरे बदलाव की धुरी है। प्रयोग बताते हैं कि 3 एकड़ के तालाब से 72,000 किलो जलकुंभी मशीन से केवल 2–3 दिनों में निकाली जा सकती है—वह भी सिर्फ 2–3 लोगों की मदद से। यही काम मैनुअल रूप से करने पर 18–20 दिन लगेंगे और 10–20 मज़दूरों की आवश्यकता पड़ेगी। ग्रामीण भारत में जहां मजदूरी महंगी होती जा रही है, यह तकनीक सीधे-सीधे लागत बचत और दक्षता का प्रतीक बनती है। इस मशीन को कई सरकारी ग्रामीण विकास योजनाओं के तहत उपलब्ध कराया जा रहा है, इसलिए पंचायतें, किसान समूह और स्वयं सहायता समूह इसे आसानी से अपना पा रहे हैं।

2025 के Top 100 Innovations में इसका चयन सिर्फ एक वैज्ञानिक उपलब्धि नहीं, बल्कि यह इस बात का प्रमाण है कि भविष्य की तकनीक तभी सफल होगी जब वह — किफ़ायती हो, नवीकरणीय ऊर्जा पर आधारित हो, समुदाय द्वारा संचालित हो, और पर्यावरण के लिए लाभकारी हो। ICRISAT का यह हार्वेस्टर इन चारों शर्तों को पूरा करता है।

आज यह तकनीक ग्रामीण भारत में जलकुंभी से जूझते समुदायों को नया आत्मविश्वास देती है—कि एक समस्या, जिसे वर्षों से बोझ समझा गया, वही समस्या उनकी आजीविका, पर्यावरण और स्थानीय अर्थव्यवस्था को मजबूत करने का अवसर बन सकती है। यह नवाचार हमें बताता है कि समाधान हमेशा बड़े और महंगे नहीं होते—कभी-कभी वे सरल, सौर, सस्ते और यहीं हमारे गाँवों के लिए विशेष रूप से डिज़ाइन किए गए होते हैं। 2025 में ICRISAT का यह नवाचार भारत के विज्ञान, पर्यावरण और ग्रामीण विकास के संगम का सबसे उजला उदाहरण बन चुका है।