रेप के बाद घर पहुंची नाबालिग के लिए भाई ने कहा- इसे मार डालो, मां ने नहीं की हफ्तों बात

सीरीज के दूसरे भाग में कहानी उस गैंगरेप पीड़िता की है जो घर और समाज के तानों से तंग आकर दूर शहर में रह कर मजदूरी करती है और एलएलबी की पढ़ाई कर रही है।

Neetu SinghNeetu Singh   8 Nov 2019 12:30 PM GMT

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रेप के बाद घर पहुंची नाबालिग के लिए भाई ने कहा- इसे मार डालो, मां ने नहीं की हफ्तों बात

लखनऊ। "घर में कोई भी बात नहीं करता। भैया-भाभी तो अपने छोटे बच्चों को भी मेरे पास नहीं आने देते, कहते हैं कि बच्चे भी इसकी तरह बिगड़ जाएंगे। घरवालों का ये सौतेला व्यवहार जब बिलकुल बर्दाश्त नहीं कर पायी तब घर से 40 किलोमीटर दूर लखनऊ में किराए का कमरा लेकर अकेले रहने लगी हूं," ये शब्द हैं एक बलात्कार पीड़िता के जिसके साथ तीन लड़कों ने तो गलत किया ही, लेकिन उसके घर और समाज ने भी कोई कमी नहीं छोड़ी।

कंचन (बदला हुआ नाम) घरवालों के व्यवहार से तंग आकर अपने गाँव से दूर शहर में अकेले इसलिए रहती है क्योंकि यहां उसे कोई ताने नहीं देता।

"जब अपने ही सौतेला व्यवहार करते हैं तो बाहर के लोगों से क्या शिकायतें। दिन में मजदूरी करके 150-200 रुपए कमा लेती हूं। इन्हीं पैसों से किसी तरह अपनी पढ़ाई और दूसरे खर्चे पूरे करती हूं। इन पैसों से खर्च चलाना मुश्किल होता है," कंचन बोलती है, "लेकिन अब मैं वापस उस घर नहीं जाना चाहती, जहां मैं सबके साथ रहकर भी अकेला महसूस करती थी। पढ़-लिखकर कुछ करना चाहती हूं, जिससे अपने पैरों पर खड़ी हो सकूं।"

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ये है लखनऊ की फास्ट ट्रैक कोर्ट जहां से सेक्सुअल एब्यूज की पीड़िताओं को मिलता है न्याय.

चौदह साल की कंचन की ज़िंदगी उस दिन तबाह हो गयी जब वह हर रोज की तरह वर्ष 2015 में अक्टूबर की एक दोपहरी खेत में घास काटने गई थी, लेकिन तीन लड़कों ने उसे अगवा करने के बाद एक कमरे में 24 घंटे बंद करके बलात्कार किया। जब किसी तरह कंचन उन दरिंदों के चंगुल से छूट कर घर पहुंची तो परिवारवालों ने उससे कन्नी काटनी शुरु कर दी।

कंचन का आरोप है कि आरोपियों के दबंग होने के कारण एफआईआर लिखवाने में भी काफी दिक्कत आई, कई दिनों के बाद जैसे-तैसे रिपोर्ट दर्ज हुई। कुछ महीनों के बाद सभी आरोपी जेल से बाहर आ गए। इस घटना के तकरीबन पांच साल हो गए, मामला अभी भी कोर्ट में है और आरोपी बाहर। वहीं कंचन मजदूरी करके अपनी एलएलबी की पढ़ाई जारी रखना चाहती है।

कंचन घटना के शुरुआती दिनों को याद करते हुए भावुक होते हुए बोलती है, "जब घर आई तो भाई कहने लगे इसको मार डालो, घर में रहेगी तो हम सबकी बदनामी होगी। मां ने दो हफ्ते तक बात नहीं की, कहा-इसको मेरे सामने न लाओ। पापा ने कहा, 'मत मारो, है तो अपनी बिटिया ही'। मेरी बहनें भी बात नहीं करतीं। अब काम भर की मम्मी पापा बात कर लेते हैं क्योंकि उनके ऊपर भैया और समाज का दबाव है।"

लखनऊ के सिविल कोर्ट में बैठी कंचन इतना बताने के बाद देर तक रोती रही और खुद को कोसती भी रही। उसे आज भी लगता है इसके लिए वह खुद ही कुसुरवार है।

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लखनऊ की सिविल कोर्ट में रोजाना सैकड़ों लोग न्याय की गुहार में आते.

"जब मुझे सबसे ज्यादा अपनों की जरूरत थी, तब उन्होंने मुझे बिलकुल अकेला छोड़ दिया। इतने बड़े परिवार में कोई ऐसा नहीं था जिससे अपने मन की बात कह सकूं। कई बार लगा घुटघुट कर जीने से अच्छा मर जाऊं, पर मरकर खुद को गलत नहीं साबित करना चाहती थी। इंटर तक स्कूल नहीं गये केवल परीक्षा देकर पास हुए। अब वकालत की पढ़ाई कर रहे हैं जिससे जीने का एक मकसद मिल सके," कंचन बताती है।

कंचन को अभी राज्य सरकार की तरफ से मिलने वाली राशि में से मात्र 90 हजार रुपये ही मिले हैं, बाकी कब तक मिलेंगे इसका उसे कुछ भी पता नहीं।

पीड़िता को मिलने वाली राशि में क्यों विलम्ब होता है इस पर वकील अभय प्रताप कहते हैं, "पीड़ित पक्ष अपनी तरफ से जिले के डीपीओ (जिला प्रोबेशन अधिकारी) के पास जरूरी कागजात दो-तीन दिन में जमा कर देता है। इसमें बैंक अकाउंट की डीटेल, आईडी और एक एफिडेविट जमा करना होता है। इसके बाद डीपीओ जिलाधिकारी और राज्य सरकार की तरफ से पैसा सेंशन होने में बहुत वक़्त लग जाता है जिस वजह से देरी हो जाती है," कंचन के लिए ये राशि न मिलना कोई बड़ी चुनौती नहीं रही है उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती अपनों से लड़ना है।

लखनऊ के सिविल कोर्ट के वकील अभय प्रताप सिंह कोर्ट में लंबित मामलों के बारे में कहते हैं, "फास्ट ट्रैक कोर्ट हर जिले में एक ही होती है जो कि मामलों को देखते हुए पर्याप्त नहीं है। लखनऊ में दो फास्ट ट्रैक कोर्ट थीं लेकिन फैमली कोर्ट के ज्यादा मामले पेंडिंग थे तो एक फास्ट ट्रैक कोर्ट में फैमली कोर्ट के मामले सुलझने लगे। दो तीन महीने पहले ही अब दोनों फास्ट ट्रैक कोर्ट सेक्सुअल एब्यूज के मामले देख रही हैं। अब मामले जल्दी निपटने की संभावना है।"

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वकील अभय प्रताप आगे कहते हैं, "पाक्सो (बच्चों का यौन उत्पीड़न रोकने का कानून) के जितने भी मामले अभी चल रहे हैं किसी भी केस का फैसला आने में न्यूनतम पांच साल लग जाता है। जबकि इस तरह के केसों का निर्णय छह महीने से लेकर एक साल तक आ जाना चाहिए, पर अभी ऐसा हो नहीं रहा है। इसमें पीड़ित परिवार को अनगिनत बार कोर्ट के चक्कर लगाने पड़ते हैं फैसला आने तक उनका दो तीन लाख रुपए आराम से खर्च हो जाता है।"

लंबित मामलों की वजह जो भी हो, लेकिन इसमें पीड़ित परिवार को बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। कंचन के लिए भी ये पांच साल तकलीफदेह रहे। कंचन इस घटना को कभी याद नहीं करना चाहतीं पर न चाहते हुए भी हर दिन उसका परिवार, समाज उसे ये अहसास कराता है कि इस घटना की वो खुद गुनहगार है। कंचन अपनी याददाश्त से परेशान है वो कहती है, "मुझे इस घटना के सिवाय अब कोई भी बात याद नहीं रहती। अब बिल्कुल अकेली हो गयी हूं। मेरा जीवन चल सके मैं कुछ कर सकूं इसलिए पढ़ना चाहती हूं जीना भी चाहती हूं क्योंकि मुझे पता है इसमें मेरा कोई कुसूर नहीं था। मैं अपने जैसी उन तमाम लड़कियों की मदद कर पाऊं, इसलिए ऐसे बुरे हालातों में भी मैंने पढ़ाई करना नहीं छोड़ा।"

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घरवालों और समाज के व्यवहार से परेशान कंचन बोलती है, "सब कहते हैं इससे बात करोगी तो तुम्हारी भी बदनामी होगी। मैं किसी के सामने अब न हंस सकती हूं न बोल सकती हूं न कोई बात कह सकती हूं। पांच साल से ताने सुनते हुए ही बड़ी हुई हूं। मुझे ताने मारने और कोसने में किसी ने कोई कसर नहीं छोड़ी। इसलिए घर छोड़कर दूर शहर आ गई, जहां मुझे कोई जानता न हो जिससे मुझे कोई ताने न मार सके।"

निराश कंचन आगे कहती है, "अब अकेले रहने की आदत हो गयी। अच्छा भी लगता है अकेले रहना क्योंकि यहां कोई हमें अजीब नजरों से नहीं देखता, कोई कुसूरवार नहीं ठहराता, हर कोई बात करता है क्योंकि सब मेरे साथ हुए हादसे से अंजान है। अब मुझे झूठी ही सही पर ये दुनिया पसंद है।"

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