लॉकडाउन- "गाँव में खाने का सोचना नहीं है, जयपुर में 40 दिन काटना मुश्किल हो गया, जेब खाली हो गये तो पैदल ही चल दिए"

सरकार के तमाम इंतजाम के बावजूद आख़िर ये मजदूर सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने को क्यों मजबूर हुए? जिन राज्यों में ये मजदूरी करने गये थे वहां ऐसी क्या परिस्थियां बनी जिससे ये मजदूर एक हजार किलोमीटर से ज्यादा दूरी को पैदल नापने के लिए मजबूर हुए।

Neetu SinghNeetu Singh   13 May 2020 12:31 PM GMT

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लॉकडाउन- गाँव में खाने का सोचना नहीं है, जयपुर में 40 दिन काटना मुश्किल हो गया, जेब खाली हो गये तो पैदल ही चल दिए

कानपुर देहात। "अगर हम लोग वहां से पैदल नहीं चलते तो कुछ दिन में वहां एक दो लोग भूख से ही मर जाते।"

राष्ट्रीय राजमार्ग-19 पर दोपहर के करीब दो बजे कंधे पर कपड़ों का भरा एक बैग रखे महेंद्र माझी (30 वर्ष) के इन शब्दों में पीड़ा और बेबसी थी। महेंद्र के कहे शब्दों की तकलीफ वो लाखों मजदूर महसूस कर सकते हैं जो लॉकडाउन के समय सड़कों पर थे। महेंद्र 10-12 दिन पहले अपने 25-30 साथियों के साथ जयपुर से गया जिले के लिए 1200 किलोमीटर की दूरी नापने पैदल ही चल दिए हैं।

सरकार के तमाम इंतजाम के बावजूद आख़िर ये मजदूर सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने को क्यों मजबूर हुए? जिन राज्यों में ये मजदूरी करने गये थे वहां ऐसी क्या परिस्थियां बनी जिससे ये मजदूर एक हजार किलोमीटर से ज्यादा दूरी को पैदल नापने के लिए मजबूर हुए।

केंद्र और राज्य सरकारों की तमाम घोषणाओं और आश्वासन के बाद भी ये मजदूर अपने आपको उन महानगरों में महफूज नहीं महसूस कर पा रहे हैं, जहां पर इन्होंने दशकों गुजारा किया था। कानपुर देहात जिला के राष्ट्रीय राजमार्ग-19 पर गाँव कनेक्शन ने 500 किलोमीटर की दूरी तय कर चुके कुछ मजदूरों से बात की। इन मजदूरों ने एक हजार से ज्यादा किलोमीटर दूर अपने गाँव पैदल जाने की कई वजहें बताई।

कंधे पर पानी की बोतल रखे महेंद्र माझी, जो जयपुर से गया के लिए पैदल चल दिए हैं.

"अपने गाँव में खाने का सोचना नहीं है, जयपुर में 40 दिन काटना मुश्किल हो गया। जेब खाली हो गये तो पैदल ही चल दिए। वहां रूककर क्या करते? मकान मालिक किराया मांग रहे थे नहीं दे पाए तो घर खाली करवा लिया। कबतक रोड पर खड़े होकर रोज खाने का इंतजार करते," महेंद्र मांझी उन हालातों को बयान कर रहे थे जिन परिस्थियों ने उन्हें पैदल चलने के लिए मजबूर किया था।

महेंद्र मूलतः बिहार के गया जिले के रहने वाले हैं। ये कई सालों से राजस्थान के जयपुर शहर में दिहाड़ी मजदूरी करते थे। तेज धूप में गले में चेकदार गमझा से मुंह ढके महेंद्र हाइवे पर तेज कदमों से आगे बढ़े जा रहे थे।

ये सब दिहाड़ी मजदूरी करने वाले मजदूर थे जो कई साल पहले बिहार के गया जिले से पलायन करके राजस्थान के जयपुर शहर कमाने गये थे। देशव्यापी लॉकडाउन में इनके जेब खाली हो चुके थे, रास्ते में रोककर अगर कोई इन्हें खाना खिला देता है तो ये अपना पेट भर लेते हैं नहीं तो भूखे प्यासे दिन के 15-18 घंटे चलते रहते हैं।

"थोड़ा बहुत पैसा था जिससे 30-40 दिन बैठकर खा लिए। मकान मालिक ने घर खाली करवा लिया। जेब में एक भी पैसे नहीं बचे, क्या करते पैदल ही चल दिए?", महेंद्र ने पैदल चलने की एक और वजह बताई।

जब गाँव कनेक्शन संवाददाता ने उनसे कहा आप पैदल क्यों चल दिए? सरकार ने आपको सुरक्षित घर पहुँचाने के लिए बस और ट्रेन की व्यवस्था की है। इस पर महेंद्र बोले, "एक हफ्ते पहले रजिस्ट्रेशन कराया था। एक हफ्ते बाद जब रेलवे स्टेशन पर जाकर पता किया तो वहां से पता चला कि जब आपका नम्बर आएगा तब आपके मोबाइल पर एक मैसेज आ जाएगा। कबतक मैसेज आएगा हमें कुछ पता नहीं ... वहां एक-एक दिन काटना भारी पड़ रहा था। ऐसे में क्या करते, आप ही बताइये।"

महेंद्र का सवाल पैदल चलने की एक और मजबूत वजह बताने के लिए काफी था। मई महीने की चिलचिलाती धूप में कानपुर देहात जिला के राष्ट्रीय राजमार्ग-19 पर सैकड़ों की संख्या में मजदूर पैदल अपने घरों की तरफ बढ़े जा रहे थे, महेंद्र इस भीड़ का हिस्सा थे। कोई महिला डेढ़ साल का गोद में बच्चा लिए तो कोई सर पर छोटा सा बैग रखे अपने घर पहुंचने की जद्दोजहद कर रहे थे। इनके जेब खाली थे, खाने के नाम पर इनके पास कुछ नहीं था।

महेंद्र और उनके साथी लगातार तेज कदमों से बिना रुके चले जा रहे थे। जब हमने उनसे थोड़ी देर पेड़ की छाँव में बैठकर बात करने की बात कही इस पर महेंद्र बोले, "हम रूककर बात नहीं कर सकते। हमारे साथ के कुछ लोग आगे पैदल चल रहे हैं, अगर हमने रूककर बात की तो वो और आगे निकल जाएंगे।"

महेंद्र के साथ अभी 10 लोग थे। हमने लगभग एक किलोमीटर इनके साथ चलते-चलते बात की।

जयपुर में ऐसी क्या परेशानी थी जिसने आपको हजार किलोमीटर से ज्यादा पैदल चलने को मजबूर कर दिया?

कमर में लाल रंग का गमझा लपेटे थके हारे महेंद्र चलते-चलते अपनी पीड़ा बताने लगे, "लॉकडाउन के कुछ दिनों तक खाना बांटने वाले बहुत लोग थे। कुछ लोग कच्चा राशन भी दे गये थे। थोड़ा बहुत हमारे पास पैसा था जिससे एक महीना कट गया। जैसे-जैसे लॉकडाउन के दिन बढ़े हमारा राशन खत्म हो गया। जब पैदल चलना शुरू किया था तब नौबत ये आ गयी थी कि दिन में दोनों वक़्त का खाना मिलेगा या नहीं, कुछ भरोसा नहीं था। ऐसे हालात में पैदल न चलते तो क्या करते।"

कोरोना वायरस के संक्रमण की वजह से पूरे देश में लॉकडाउन की घोषणा होने के बाद महेंद्र की तरह लाखों प्रवासी मजदूरों में अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है। लगभग दो महीने से मजदूरों का ठप्प पड़ा काम, भूख से मरने की नौबत आने की आशंका, लॉकडाउन लंबा खिंचने की वजह से लाखों मजदूर अपने-अपने घरों को निकलने के लिए सड़क पर आ गए हैं।

कैप लगाये मिथलेश माझी.

कई रिपोर्ट में इसे आजाद भारत का सबसे बड़ा रिवर्स पलायन (घरों की ओर लौटना) कहा गया। जनता कर्फ्यू के बाद ही मजदूरों का पलायन शुरु हो गया था लेकिन सरकारें मजदूरों को ये विश्वास दिलाने में नाकाम रही कि वो खाने का इंतजाम करेंगी।

आपने कबसे खाना नहीं खाया है? इस पर महेंद्र के साथ पैदल चल रहे उनके गाँव के मिथलेश माझी (24 वर्ष) बोले, "तीन किलोमीटर पहले एक गाँव पड़ा था, जहाँ पर सरकारी स्कूल में गाँव के कुछ लोगों ने हम सबको बिठाकर पूड़ी सब्जी खिला दी। कोई रास्ते में बिस्किट खाने तो दे देता कोई पानी। ऐसे 10-12 दिन सड़क पर काट लिए। एक हफ्ते में घर पहुंच जाएंगे।"

आपको क्या लगता है गाँव में आपकी मुश्किलें खत्म हो जाएंगी? इस पर मिथलेश बोले, "मुश्किलें खत्म हो या न हों पर इतना कह सकते हैं कि हम भूखों नहीं मरेंगे। गाँव में मेरे थोड़े बहुत खेत हैं उसी में सब्जी बगैरह बोकर बेचेंगे, कोई न कोई काम का जुगाड़ खोज ही लेंगे।"

मुंह में काला कपड़ा बांधे अवधेश कुमार ने 1200 किलोमीटर पैदल चलने की वजह बताई.

बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, मध्यप्रदेश समेत कई राज्यों के मजदूर और कामगार, दिल्ली, मुंबई, पुणे, बैंगलुरु के साथ ही हरियाणा, पंजाब, और दक्षिण भारत के कई राज्यों में जाकर काम करते हैं। लॉकडाउन के बाद इन राज्यों से लाखों मजदूर अपने घरों की तरफ लौट पड़े हैं इनमें से जो बचे हैं वो अब सड़कों पर गर्मीं से तिलमिलाए, भूख से बिलबिलाते, बिलखते दिख रहे हैं। इनमें से कई मजदूर घर पहुंचने से पहले ही दम तोड़ चुके हैं पर फिर भी इनका घर वापसी जाना नहीं रुका है।

रास्ते में इतनी घटनाएं हो रही हैं फिर भी आप लोग पैदल चल रहे हैं, जहां पर थे वहीं रुक जाते कमसेकम सुरक्षित तो रहते। इस सवाल के जबाव में अवधेश कुमार (28 वर्ष) बोले, "जेब में फूटी कौड़ी नहीं बची है। दूसरे राज्य में मरने से अच्छा अपने गाँव में मरें जाकर। कब लॉकडाउन खुलेगा किसी को नहीं पता? दूसरे शहर में बैठकर क्या करते? हम लोगों को इस दोपहरी में पैदल चलने का शौक नहीं है, मरता क्या न करता? सरकार ने हमें भरोसा ही नहीं दिलाया कि जबतक हमें घर जाने के लिए साधन नहीं मिलेगा तबतक रोज सुबह शाम खाना दिया जाएगा।"


   

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