मजदूरों का दर्द: 'किस भरोसे से गाँव वापस जाएं, दो महीने बाद खाली हाथ घर लौटने की हिम्मत नहीं बची है'

लॉकडाउन में गाँव पहुंचने की चाह में लाखों मजदूर हजारों किलोमीटर पैदल और साइकिल से चल पड़े थे, कुछ दहलीजों तक पहुंच गये तो कुछ पहुंचने वाले हैं। कुछ ने तो रास्ते में ही दम तोड़ दिया। सड़कों पर अब भी मजदूरों की भीड़ घर की ओर चली जा रही है। कुछ मजदूर ऐसे भी हैं जो अपने घर, गाँव नहीं लौटना चाहते, लेकिन क्यों?

Neetu SinghNeetu Singh   12 May 2020 11:49 AM GMT

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"किस भरोसे से गाँव वापस जाएं ? दो महीने बाद खाली हाथ घर लौटकर घर जाने की हिम्मत नहीं बची है। गाँव में कोई रोजगार नहीं है कि जाते ही काम मिल जाएगा। वहां करेंगे भी क्या जाकर ? यहां कम से कम ये तो उम्मीद है कि लॉकडाउन खुलने के बाद हो सकता है कुछ काम ही मिल जाए।"

पुताई करने वाले राकेश कुमार (43 वर्ष) के इन शब्दों में घर से दूर रहने की तकलीफ भी थी और शहर से कुछ उम्मीदें भी। राकेश की तरह जब गाँव कनेक्शन ने लखनऊ के दो शेल्टर होम में एक दर्जन से ज्यादा मजदूरों से मुलाक़ात की तो ये मजदूर अपने घर जाने को लेकर असमंजस की स्थिति में दिखे। ये उन मजदूरों की पीड़ा थी जो कहीं प्राइवेट नौकरी नहीं करते, ये रोज कमाते हैं रोज खाते हैं।

देश में लॉकडाउन के बाद गाँव वापसी के लिए लाखों मजदूर सड़क पर आ गये हैं। कोई गोद में बच्चे को लिए सैकड़ों किलोमीटर पैदल चला जा रहा है, तो कोई साइकिल से एक हजार किलोमीटर की यात्रा करके पहुंच रहा है। कुछ सीमेंट के मिक्सर टैंक में घुसकर जा रहे हैं तो कुछ सड़कों पर घर पहुंचने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इनमें से कुछ भूख से रास्ते में ही दम तोड़ दे रहे हैं, कुछ सड़क हादसे में तो कुछ ट्रेन से कटकर बेमौत मर गये, बावजूद इसके ये सब अपने गाँव लौटना चाहते हैं ताकि ये भूखमरी से बच सकें।

मुंह पर मास्क बांधे राकेश, बगल में सैलून की दुकान चलाने वाले नागेन्द्र, नीली शर्ट पहने जगमोहन.

लेकिन इस तस्वीर से इतर उत्तरप्रदेश के लखनऊ में कुछ ऐसे मजदूर भी रह रहे हैं जो कुछ सौ किलोमीटर अपने घर से दूर हैं पर फिर भी गाँव वापस जाने के लिए बेचैन नहीं हैं। ये मजदूर अलग-अलग वजहों से गाँव नहीं जाना चाहते। कुछ खाली हाथ घर नहीं जाना चाहते तो कुछ को गाँव में रोजगार की कोई आस नहीं दिख रही। कुछ को डर है कि वो भीड़भाड़ से होकर जायेंगे तो उनमें कोरोना का संक्रमण हो सकता है और उस संक्रमण से उनका पूरा परिवार प्रभावित हो सकता है।

"परिवार से दूर हैं इसका हमें मलाल है, खर्चा चलाने के लिए परिवार को पैसे की जरूरत है मेरी नहीं। इस समय घर की परिस्थियाँ बहुत खराब हैं घर जाकर मुझसे देखी नहीं जायेंगी। तभी मन मारकर यहीं रुका हूँ। कुछ दिन तक ये बंदी और रही तो कोरोना से तो नहीं पर भुखमरी से जरुर मर जाएंगे हमसब? काम मिलेगा, चार पैसे हाथ में आएंगे, तभी घर जाऊंगा," ये कहते हुए राकेश के चेहरे पर उदासी और बेबसी थी।

राकेश पीलीभीत जिले के रहने वाले हैं। लखनऊ में रहकर आठ साल से पुताई का काम करते हैं, फुटपाथ पर सोकर इनकी रातें गुजरती थीं। राकेश की तरह ऐशबाग में मील रोड और करेहटा चौराहे पर बने दो शेल्टर होम में जो मजदूर रुके हैं वो यूपी के अलग-अलग जिले से हैं। इसमें कोई ई-रिक्शा चलाता है, कोई सैलून की दुकान। कोई इलेक्ट्रीशियन है, कोई दिहाड़ी मजदूर। दो महीने से इन सबके काम बंद हैं इनके जेब खाली हैं।

ये हैं बहराइच जिले के जगमोहन, अब घर नहीं जाना चाहते क्योंकि इनके हाथ खाली हैं.

"एक सहारा था कि सरकार मजदूरों के खाते में एक हजार रुपए भेज रही है। रोज चेक करता हूँ पर मेरे खाते में अभी तक पैसे नहीं आये हैं। अगर ये रैन बसेरा न होता तो फुटपाथ पर भूखों मर जाता। योगी सरकार वादे तो तमाम कर रही है, पर अबतक हमें कोई लाभ नहीं मिला," राकेश सरकार की योजनाओं की परते खोल रहे थे।

राकेश की तरह जितने भी 20-22 मजदूर यहाँ रुके थे उनमे से किसी के भी खाते में सरकार द्वारा भेजे 1,000 रुपए नहीं पहुंचे थे।

"फुटपाथ पर ही सोता था इतने पैसे नहीं कमा पाता कि एक किराए का कमरा ले सकूं। एक मजदूर की हैसियत से इस शहर में पड़ा हूं, कौन लेगा सुध हमारी? आज अगर बीमार पड़ जाऊं तो जेब में 10 रूपये भी नहीं हैं जिससे जाकर दवा ले सकूं, " राकेश अपने मजदूर होने की पीड़ा बता रहे थे।

लखनऊ में नगर निगम द्वारा 23 शेल्टर होम हैं जिनका संचालन कुछ गैर सरकारी संगठन कर रहे हैं। ऐशबाग में चलने वाले दोनों शेल्टर होम बदलाव संस्था द्वारा संचालित किये जा रहे हैं। ये संस्था लखनऊ में भिक्षुकों के पुनर्वास के लिए काम करती है।

राकेश जिस शेल्टर होम पर रुके हैं, खाली समय में अभी इसकी पुताई कर रहे हैं.

"यहां इनके खाने पीने का इंतजाम है पर काम बंद होने से ये परेशान है। इनके परिवार का आधार इनकी मजदूरी है, अब जब काम बंद है तो इनके पास पैसे नहीं हैं। इधर ये परेशान है उधर इनके घरवाले। ये मजदूर खाली हाथ घर जाने को तैयार नहीं हैं। कुछ लोगों को गाँव में रोजगार की कोई उम्मीद नहीं नजर आ रही है, " बदलाव संस्था के कार्यकर्ता राम जी वर्मा ने घर वापसी को लेकर मजदूरों की समस्या बताई।

राम जी वर्मा आगे कहते हैं, "इन्हें यह बात भी परेशान कर रही है पता नहीं कबतक इन्हें काम मिलेगा? अगर मिलेगा भी तो मजदूरी कितनी मिलेगी? अब हालात ऐसे बन गये हैं कि एक काम के लिए 10 मजदूर खड़े होंगे, जाहिर सी बात है तब मजदूरी घट जायेगी।"

देवरिया जिले के श्रीराम यादव बीते 15 सालों से लखनऊ में रहकर इलेक्ट्रीशियन का काम कर रहे हैं। कहने को तो सरकार ने इन्हें काम करने की इजाजत दे दी है लेकिन हकीक़त यह है कि लोग अभी कोरोना संक्रमण के दहशत में इन्हें काम पर बुला ही नहीं रहे हैं।

"मेरा फोन नम्बर सब जगह बटा है पर कोई भी फोन करके हमें काम करने के लिए नहीं बुला रहा है। हर साल अबतक मैं धान की रोपाई के लिए पैसे भेज देता था, 15 मई से धान की बेड़ पड़नी शुरू हो जाती थी, इस साल तो लग रहा है पूरे साल भूखमरी रहेगी, " श्रीराम यादव (42 वर्ष) बोले, "जो काम मुझे आता है गाँव में उसकी ज्यादा पूछ नहीं है। अब तो हर गाँव में 200-300 मजदूर शहरों से वापस पहुंच गये हैं, ऐसे में काम की सबको जरूरत है, गाँव में किसको-किसको काम मिलेगा?"

ये दिहाड़ी मजदूरी करने वाले वो मजदूर हैं जो अपने घर नहीं जाना चाहते.

श्रीराम की तरह अम्बेडकरनगर के रहने वाले नागेन्द्र शर्मा (27 वर्ष) अपनी बंद पड़ी सैलून की दुकान को लेकर चिंतित हैं क्योंकि सरकार ने सैलून की, स्कूल, सिनेमाघर, माल को खोलने की इजाजत नहीं दी है।

नागेन्द्र शर्मा अपनी घर वापसी को लेकर मुश्किलें बता रहे थे, "गाँव में पिता जी सैलून का ही काम करते हैं पर पैसे न के बराबर मिलते हैं, तभी मुझे शहर आना पड़ा। यहां मेरी दुकान ठीकठाक चल जाती है। घर में खर्चे की दिक्कत है पर पैसे किससे उधार लेकर भेजूं। घरवाले बुला रहे हैं पर मन नहीं जाने का, वहां जाकर भी करूंगा क्या?"

"एक बार मन ये भी कहता है चला जाऊं, यहां अकेले मरने से अच्छा है परिवार के साथ ही मरूं जाकर। जब काम नहीं है तो मरना है ही एक दिन, " नागेन्द्र ये कहते हुए परेशान और उदास थे।

एक गैर सरकारी संगठन उम्मीद संस्था की देखरेख में लखनऊ के आठ शेल्टर होम चल रहे हैं जिसमें 100 मजदूर रुके हुए हैं।

इस संस्था की उपसचिव आराधना सिंह सिकरवार मजदूरों की घर न जाने की एक और वजह बताती हैं, "यहां इन्हें कमसेकम पेटभर खाना तो मिल रहा है। घर जाने पर ये भी मिलेगा या नहीं इस बात का भी इन्हें डर है। इस समय इनका पेट भरना ही बड़ी बात है। कुछ एक ही जाना चाहते हैं पर एक बड़ी संख्या लॉकडाउन खुलने का इंतजार कर रही है जिससे उन्हें जल्दी से काम मिल सके।"

नीली शर्ट पहने शाकिर अंसारी, सफेद शर्ट में बदलाव संस्था के कार्यकर्ता रामजी वर्मा.

करेहटा शेल्टर होम पर रुके बरेली जिले के शाकिर अंसारी (28 वर्ष) उस बिल्डिंग को दिखाते हुए बोले जिसे लॉकडाउन के पहले वो बना रहे थे, "ठेकेदार के लॉकडाउन होने के बाद पैसे ही नहीं दिए। अगर मेरे ही काम के पैसे मिल जाते तो इस समय वो पैसा मेरे घरवालों के बहुत काम आता। घरवाले इस समय दिक्कत में हैं, कमाने वाला मैं अकेला हूं। खुलने के बाद भी काम मिलेगा या नहीं अब इसकी कोई गारंटी नहीं बची। आने वाले समय में आदमी-आदमी से डरेगा।"

"हमें सरकार के पैसे नहीं चाहिए काम चाहिए। हजार रुपए महीने में किसी मजदूर का भला होने वाला नहीं। सरकार कोई ऐसी रणनीति बनाये जिससे आने वाले दिनों में हर मजदूर को काम मिले। अगर ऐसा नहीं किया तो मजदूरों का परिवार भूखमरी से मर जाएगा, " शाकिर ने कहा, "सरकार खाने और पैसे भेजने से ज्यादा अगर मजदूरों के काम दिलाने पर फोकस करे तो हमारे लिए ज्यादा खुशी होगी।"


   

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