जलवायु बदलाव के बीच कश्मीर में अरहर की नई उम्मीद
Divendra Singh | Dec 24, 2025, 14:18 IST
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कभी केवल राजमा तक सीमित रही कश्मीर की दलहन खेती अब बदलाव की दहलीज़ पर है। ICRISAT और SKUAST-K के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित जलवायु-अनुकूल अरहर किस्मों के सफल परीक्षणों ने यह संभावना जगा दी है कि ठंडी घाटी कश्मीर भी जल्द अपनी अरहर खुद उगा सकेगा, जिससे किसानों की आय, पोषण सुरक्षा और कृषि लचीलापन तीनों को नया सहारा मिल सकता है।
<p><br>ठंडे कश्मीर में अरहर की दस्तक, ICRISAT–SKUAST की पहल से बदलेगी दलहन खेती<br></p>
एक समय था जब कश्मीर की थाली में दलहन के नाम पर लगभग केवल राजमा ही मौजूद था। स्थानीय खानपान, जलवायु और कृषि परंपराओं के कारण अरहर जैसी दालें यहाँ न तो उगाई जाती थीं और न ही बड़े पैमाने पर खाई जाती थीं। लेकिन जैसे-जैसे कश्मीर में पर्यटन बढ़ा, बाहरी राज्यों से आने वाले पर्यटकों की संख्या में इज़ाफ़ा हुआ और खानपान की आदतें बदलीं, वैसे-वैसे अरहर जैसी दालों की मांग भी बढ़ने लगी। इस बढ़ती खपत को पूरा करने के लिए कश्मीर को अरहर दूसरे राज्यों से मंगानी पड़ती थी।
अब यह स्थिति बदलने वाली है। वह दिन दूर नहीं जब ठंडे हिमालयी प्रदेश कश्मीर में अरहर की खेती स्थानीय स्तर पर संभव हो सकेगी। इस दिशा में एक अहम वैज्ञानिक पहल सामने आई है, जिसमें अर्ध-शुष्क उष्णकटिबंधीय फसल अनुसंधान अंतरराष्ट्रीय संस्थान (ICRISAT) और शेर-ए-कश्मीर कृषि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, कश्मीर (SKUAST-K) ने मिलकर यह साबित कर दिया है कि अरहर को कश्मीर की जलवायु के अनुरूप ढाला जा सकता है।
SKUAST-K के अनंतनाग स्थित पर्वतीय फ़सल अनुसंधान संस्थान के पादप प्रजनन एवं आनुवंशिकी विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. शौकत अहमद वज़ा बताते हैं कि पारंपरिक रूप से अरहर एक लंबी अवधि की फसल मानी जाती रही है।
उनके शब्दों में, “पहले अरहर पेरेनियल क्रॉप थी, यानी यह कई सीज़न तक चलती थी और कम से कम एक साल का समय लेती थी। कश्मीर में समस्या यह थी कि यहाँ का ग्रोइंग सीज़न केवल छह महीने का होता है, सर्दियाँ जल्दी आ जाती हैं। ऐसे में अरहर की खेती की कोई संभावना नहीं दिखती थी।”
लेकिन ICRISAT द्वारा विकसित नई किस्मों ने इस धारणा को बदल दिया है। ये किस्में तीन से चार महीने में पकने वाली, ठंड सहन करने वाली और प्रकाश-संवेदनशीलता से काफी हद तक मुक्त हैं। यही वजह है कि अब कश्मीर जैसी ठंडी घाटी में भी अरहर के सफल परीक्षण संभव हो पाए हैं।
डॉ. वज़ा बताते हैं कि कश्मीर में अरहर न होने का एक कारण सांस्कृतिक भी था। “पहले यहाँ के फूड हैबिट्स अलग थे। लोग मोटा चावल खाते थे, दालों में राजमा ही प्रमुख थी। लेकिन जैसे चावल में बासमती आया और पसंद बदली, वैसे ही दालों में भी बदलाव आया। खासकर पर्यटन क्षेत्र में अरहर की दाल की मांग ज़्यादा है। आप पर्यटकों को रोज़ राजमा नहीं परोस सकते, ”वे कहते हैं।
आज की स्थिति यह है कि कश्मीर में लाए गए ICRISAT के जीनोटाइप्स ने स्थानीय परिस्थितियों में उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन किया है।
डॉ. वज़ा के अनुसार, “जहाँ सामान्य तौर पर इन किस्मों की पैदावार दो टन प्रति हेक्टेयर मानी जाती है, वहीं कश्मीर में हमें ढाई टन प्रति हेक्टेयर तक उपज मिली है। पहाड़ी क्षेत्रों में कार्बन डाइऑक्साइड का बेहतर एसिमिलेशन भी इसका एक कारण है।”
इस पूरी पहल को और भी महत्वपूर्ण बनाता है जलवायु परिवर्तन का संदर्भ। कश्मीर घाटी में गर्मियों का तापमान लगातार बढ़ रहा है, वर्षा के पैटर्न अनियमित हो रहे हैं और पानी की उपलब्धता एक बड़ी चुनौती बनती जा रही है। इन बदलते हालातों ने पारंपरिक कृषि प्रणालियों पर दबाव बढ़ा दिया है। ऐसे में वैज्ञानिक ऐसी फसलों की तलाश कर रहे हैं जो बदलती जलवायु में भी किसानों को टिकाऊ विकल्प दे सकें।
इसी क्रम में कश्मीर घाटी के कई उच्च ऊँचाई वाले क्षेत्रों में अरहर की नई किस्मों के फील्ड ट्रायल किए जा रहे हैं। इनमें विशेष रूप से कम अवधि में पकने वाली, गर्मी-सहिष्णु और ठंड-रोधी लाइनों का मूल्यांकन किया जा रहा है। यह एक तरह से उस धारणा को चुनौती है कि अरहर केवल उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों की फसल है।
हाल ही में ICRISAT की एक शोध टीम ने सगाम स्थित माउंटेन क्रॉप रिसर्च स्टेशन (MCRS) का दौरा किया। SKUAST-K के वैज्ञानिकों के साथ मिलकर पौधों की वृद्धि, फूल आने का व्यवहार और ठंडी रातों में सहनशीलता का प्रत्यक्ष आकलन किया गया। इन परीक्षणों में साइटोप्लाज़्मिक मेल स्टरल (CMS) लाइनें, उनके मेंटेनर और रिस्टोरर लाइनें तथा उन्नत प्रजनन सामग्री शामिल हैं।
शुरुआती नतीजों में कई CMS लाइनों का प्रदर्शन असाधारण पाया गया है। यह खोज भविष्य में हाइब्रिड बीज उत्पादन और अरहर प्रजनन कार्यक्रमों के लिए बेहद अहम मानी जा रही है।
ICRISAT के महानिदेशक डॉ. हिमांशु पाठक के अनुसार, यह साझेदारी जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए वैज्ञानिक सोच में बदलाव का उदाहरण है।
उनका कहना है, “SKUAST-K के साथ हमारा सहयोग कश्मीर के किसानों के लिए जलवायु-अनुकूल दलहनी फसलों के नए रास्ते खोल रहा है। भविष्य की खाद्य सुरक्षा का आधार लचीलापन और विविधता होगी।”
यदि आने वाले मौसमों में भी ये परिणाम स्थिर रहते हैं, तो अरहर कश्मीर घाटी के लिए एक नई, व्यवहारिक और लाभकारी फसल बन सकती है। इससे न केवल फसल विविधीकरण होगा, बल्कि प्रोटीन सुरक्षा, मिट्टी की उर्वरता और किसानों की आय, तीनों को मजबूती मिलेगी।
ICRISAT द्वारा वर्ष 2008 से CMS अरहर पर किया जा रहा कार्य और अब कश्मीर में मिल रही सफलता यह संकेत देती है कि विज्ञान, स्थानीय साझेदारी और नीति समर्थन के साथ हिमालयी क्षेत्रों में भी नई कृषि संभावनाएँ साकार की जा सकती हैं। यह पहल कश्मीर में दलहन खेती के एक नए अध्याय की शुरुआत बन सकती है—जो जलवायु-अनुकूल, टिकाऊ और किसान-केंद्रित हो।
अब यह स्थिति बदलने वाली है। वह दिन दूर नहीं जब ठंडे हिमालयी प्रदेश कश्मीर में अरहर की खेती स्थानीय स्तर पर संभव हो सकेगी। इस दिशा में एक अहम वैज्ञानिक पहल सामने आई है, जिसमें अर्ध-शुष्क उष्णकटिबंधीय फसल अनुसंधान अंतरराष्ट्रीय संस्थान (ICRISAT) और शेर-ए-कश्मीर कृषि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, कश्मीर (SKUAST-K) ने मिलकर यह साबित कर दिया है कि अरहर को कश्मीर की जलवायु के अनुरूप ढाला जा सकता है।
SKUAST-K के अनंतनाग स्थित पर्वतीय फ़सल अनुसंधान संस्थान के पादप प्रजनन एवं आनुवंशिकी विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. शौकत अहमद वज़ा बताते हैं कि पारंपरिक रूप से अरहर एक लंबी अवधि की फसल मानी जाती रही है।
उनके शब्दों में, “पहले अरहर पेरेनियल क्रॉप थी, यानी यह कई सीज़न तक चलती थी और कम से कम एक साल का समय लेती थी। कश्मीर में समस्या यह थी कि यहाँ का ग्रोइंग सीज़न केवल छह महीने का होता है, सर्दियाँ जल्दी आ जाती हैं। ऐसे में अरहर की खेती की कोई संभावना नहीं दिखती थी।”
लेकिन ICRISAT द्वारा विकसित नई किस्मों ने इस धारणा को बदल दिया है। ये किस्में तीन से चार महीने में पकने वाली, ठंड सहन करने वाली और प्रकाश-संवेदनशीलता से काफी हद तक मुक्त हैं। यही वजह है कि अब कश्मीर जैसी ठंडी घाटी में भी अरहर के सफल परीक्षण संभव हो पाए हैं।
Image credit : Gaon Connection Network, Gaon Connection
डॉ. वज़ा बताते हैं कि कश्मीर में अरहर न होने का एक कारण सांस्कृतिक भी था। “पहले यहाँ के फूड हैबिट्स अलग थे। लोग मोटा चावल खाते थे, दालों में राजमा ही प्रमुख थी। लेकिन जैसे चावल में बासमती आया और पसंद बदली, वैसे ही दालों में भी बदलाव आया। खासकर पर्यटन क्षेत्र में अरहर की दाल की मांग ज़्यादा है। आप पर्यटकों को रोज़ राजमा नहीं परोस सकते, ”वे कहते हैं।
आज की स्थिति यह है कि कश्मीर में लाए गए ICRISAT के जीनोटाइप्स ने स्थानीय परिस्थितियों में उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन किया है।
डॉ. वज़ा के अनुसार, “जहाँ सामान्य तौर पर इन किस्मों की पैदावार दो टन प्रति हेक्टेयर मानी जाती है, वहीं कश्मीर में हमें ढाई टन प्रति हेक्टेयर तक उपज मिली है। पहाड़ी क्षेत्रों में कार्बन डाइऑक्साइड का बेहतर एसिमिलेशन भी इसका एक कारण है।”
इस पूरी पहल को और भी महत्वपूर्ण बनाता है जलवायु परिवर्तन का संदर्भ। कश्मीर घाटी में गर्मियों का तापमान लगातार बढ़ रहा है, वर्षा के पैटर्न अनियमित हो रहे हैं और पानी की उपलब्धता एक बड़ी चुनौती बनती जा रही है। इन बदलते हालातों ने पारंपरिक कृषि प्रणालियों पर दबाव बढ़ा दिया है। ऐसे में वैज्ञानिक ऐसी फसलों की तलाश कर रहे हैं जो बदलती जलवायु में भी किसानों को टिकाऊ विकल्प दे सकें।
इसी क्रम में कश्मीर घाटी के कई उच्च ऊँचाई वाले क्षेत्रों में अरहर की नई किस्मों के फील्ड ट्रायल किए जा रहे हैं। इनमें विशेष रूप से कम अवधि में पकने वाली, गर्मी-सहिष्णु और ठंड-रोधी लाइनों का मूल्यांकन किया जा रहा है। यह एक तरह से उस धारणा को चुनौती है कि अरहर केवल उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों की फसल है।
हाल ही में ICRISAT की एक शोध टीम ने सगाम स्थित माउंटेन क्रॉप रिसर्च स्टेशन (MCRS) का दौरा किया। SKUAST-K के वैज्ञानिकों के साथ मिलकर पौधों की वृद्धि, फूल आने का व्यवहार और ठंडी रातों में सहनशीलता का प्रत्यक्ष आकलन किया गया। इन परीक्षणों में साइटोप्लाज़्मिक मेल स्टरल (CMS) लाइनें, उनके मेंटेनर और रिस्टोरर लाइनें तथा उन्नत प्रजनन सामग्री शामिल हैं।
शुरुआती नतीजों में कई CMS लाइनों का प्रदर्शन असाधारण पाया गया है। यह खोज भविष्य में हाइब्रिड बीज उत्पादन और अरहर प्रजनन कार्यक्रमों के लिए बेहद अहम मानी जा रही है।
ICRISAT के महानिदेशक डॉ. हिमांशु पाठक के अनुसार, यह साझेदारी जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए वैज्ञानिक सोच में बदलाव का उदाहरण है।
उनका कहना है, “SKUAST-K के साथ हमारा सहयोग कश्मीर के किसानों के लिए जलवायु-अनुकूल दलहनी फसलों के नए रास्ते खोल रहा है। भविष्य की खाद्य सुरक्षा का आधार लचीलापन और विविधता होगी।”
यदि आने वाले मौसमों में भी ये परिणाम स्थिर रहते हैं, तो अरहर कश्मीर घाटी के लिए एक नई, व्यवहारिक और लाभकारी फसल बन सकती है। इससे न केवल फसल विविधीकरण होगा, बल्कि प्रोटीन सुरक्षा, मिट्टी की उर्वरता और किसानों की आय, तीनों को मजबूती मिलेगी।
ICRISAT द्वारा वर्ष 2008 से CMS अरहर पर किया जा रहा कार्य और अब कश्मीर में मिल रही सफलता यह संकेत देती है कि विज्ञान, स्थानीय साझेदारी और नीति समर्थन के साथ हिमालयी क्षेत्रों में भी नई कृषि संभावनाएँ साकार की जा सकती हैं। यह पहल कश्मीर में दलहन खेती के एक नए अध्याय की शुरुआत बन सकती है—जो जलवायु-अनुकूल, टिकाऊ और किसान-केंद्रित हो।