50 से ज़्यादा देसी गाय की नस्लें जो कभी हमारी संस्कृति की रीढ़ थीं, आज क्यों हो रही उपेक्षा?
Dr. Satyendra Pal Singh | Aug 12, 2025, 17:00 IST
भारत में लगभग 50 स्वदेशी गाय नस्लें हैं, जो न केवल हमारी सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा हैं बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था और कृषि की रीढ़ भी हैं। जानिए गिर, साहीवाल, थारपारकर जैसी गायों का इतिहास, वर्तमान चुनौतियाँ और संरक्षण की राह।
भारतीय सभ्यता का जब से उल्लेख मिलता है तभी से गायों के बारे में भी लिखा, पढ़ा और सुना जाता रहा है। पुरातन सनातन संस्कृति में भारतीय भू-भाग पर पाली जाने वाली गायों को सिर्फ दूध देने वाले पशु के रूप में ही नहीं पहचाना जाता है अपितु गायों को मॉं के समान दर्जा और सम्मान दिया जाता रहा है। भारतीय गायों की नस्लों को यह सम्मान अनादिकाल से ही मिलता आ रहा है। सतयुग, द्वापर, त्रेता से लेकर कलयुग तक के काल में यह सम्मान बरकरार है। आज भी भारत के हिन्दू धर्मावलम्बियों में गाय अत्यधिक पूज्यनीय पशु के रूप में मानी जाती है। लेकिन बावजूद इसके देश के अधिकांश हिस्सों में गायों की दुर्दशा किसी से छिपी हुई नहीं हैं। गऊमाता आज दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर है।
जिस गाय को हम अनादिकाल से माता का सम्मान देकर पूजते आ रहे है उसका यह तिरस्कार और दुर्दशा के पीछे आखिर क्या वजह और कारण हैं। इस विषय पर विचार, चिंतन ही नहीं धरातल पर बहुत कुछ सार्थक प्रयास करने की आवश्यकता है। आज लगता है कि गऊमाता की सेवा मात्र एक नारा बनकर रह गया है।
भारतीय स्वदेशी गायों का गौरवशाली इतिहास रहा है और वर्तमान में भी इनका महत्वपूर्ण योगदान है। भारतीय जलवायु के अनुरूप अनुकूलन की क्षमता इनको खास बनाती है। पुरातनकाल से ही स्वदेशी भारतीय गायें कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था का अभिन्न अंग रही हैं। वर्तमान समय में भारत में करीब 50 स्वदेशी नस्लों की गायें पायी जाती हैं। जिनमें से कुछ दुग्ध उत्पादन के लिए तो कुछ भारवाही तथा कुछ द्विकाजी नस्लें हैं। भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में वहां की आवश्यकता, जलवायु और भोगौलिक परिस्थितियों के अनुरूप ही स्वदेशी भारतीय गायों की नस्लों का विकास हुआ है।
स्वदेशी गौवंश की नस्लें और उनकी संख्या
भारत में स्वदेशी गौवंश की विविध नस्लें पाई जाती हैं, जिनकी संख्या करोड़ों में है। इनमें गिर (68,57,784), साहीवाल (59,49,674), राठी (11,69,828), रेड सिंधी (6,12,900), हरियाणा (27,57,186), थारपारकर (5,82,257), कांकरेज (22,15,537), ओंगोल (7,03,142), देवनी (2,84,342), गाओलाओ (1,86,887), कृष्णा वैली (22,532), मेवाती (21,901), अमृत महल (3,01,354), बरगुर (55,459), बचौर (43,45,940), बिंझारपुरी (83,849), डांगी (1,91,695), घुमसुरी (38,887), हल्लीकर (8,19,137), कंगायम (1,52,543), केनकथा (1,66,267), खेरीगढ़ (48,718), खेरियारी (25,021), खिलारी (12,99,196), मालवी (10,32,968), नागौरी (3,47,081), निमाड़ी (4,79,061), मोटू (2,33,637), पोवार (28,656), रेड कंधारी (1,49,221), सिरी (24,067), उम्ब्लाचेरी (42,390), वेचुर (15,181), पुंगानुर (13,275), मलनाड गिद्दा (7,13,058), कोसली (15,56,674), पुलिकुलम (13,934), गंगातिरी (5,14,545), बेलाही (5,264), बद्री (9,89,375), कोंकण कपिला (6,00,000), लखिमी (68,29,484), लद्दाखी (54,000), पोडा धुरूपू (55,000), नरी (2,80,000), डागरी (15,000), थुथो (22,000), श्वेता कपिला (7,59,000), हिमाचली पहाड़ी (53,000) और पूर्णिया (50,000) प्रमुख हैं। ये नस्लें अपने-अपने क्षेत्रों की जलवायु, भौगोलिक परिस्थितियों और कृषि आवश्यकताओं के अनुरूप विकसित हुई हैं, जो इन्हें भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था और सांस्कृतिक धरोहर का अभिन्न हिस्सा बनाती हैं। (स्रोतः 20वीं पशुगणना और एनबीएजीआर)
वैदिक काल और गौमाता
भारतवर्ष में वैदिक काल से ही गाय का महत्व रहा है। गाय को हिन्दू धर्म में ‘‘गौ माता’’ कहा जाता है और इसे देवी लक्ष्मी का अवतार माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि गाय के शरीर में 33 करोड़ देवी-देवता निवास करते हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार माना जाता है कि गाय (कामधेनु) देवताओं और राक्षसों द्वारा किये गये समुद्र मंथन के समय दूध के सागर से निकली थी। एक अन्य कथा में ब्रह्मा जी जब एक मुख से अमृत पी रहे थे, तो उनके मुख से फेन निकला, जिससे आदि गाय सुरभि का जन्म हुआ। वहीं कहा जाता है कि दक्ष प्रजापति की साठ पुत्रियों में से एक सुरभि भी थी, जिनसे गायों की उत्पत्ति मानी जाती है। हमारे पूर्वजों द्वारा गायों को 10,500 से 10,000 साल पहले पालतू बना लिया गया था। वैदिक काल में कामधेनु या सुरभि (संस्कृतः कामधुक) गाय ब्रह्मा जी द्वारा ली गई थी। वहीं दिव्य वैदिक गाय (गौमाता) ऋषियों को दी गई ताकि उसके दिव्य अमृत पंचगव्य का उपयोग यज्ञ, आध्यात्मिक अनुष्ठानों और संपूर्ण मानवता के कल्याण के लिए किया जा सके। वेदों में गाय को ’अध्न्या‘ कहा गया है, जिसका अर्थ है जिसे मारा न जाए।
आरम्भिक दौर में आदान-प्रदान एवं विनिमय आदि के माध्यम के रूप में गाय का उपयोग होता था और मनुष्य की समृद्धि की गणना उसकी गोसंख्या से की जाती थी। वैदिक काल से ही गाय को एक पवित्र पशु माना जाता रहा है, इसे धन और समृद्धि का प्रतीक माना गया है। गाय के गोबर में महालक्ष्मी का वास होता है और इसकी पूजा की जाती है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद में गाय के महत्व का वर्णन मिलता है। वेदों में गाय के दूध, घी, छाछ, मूत्र और गोबर का भी अत्यंत पवित्र और उपयोगी माना गया है। शास्त्रों में गौ माता के 108 नाम बताएं गए हैं। कुछ किवदंतियों के अनुसार कहा जाता है कि वैदिक काल में ऋषि मुनि गौ-पालन करते थे और उसका दूध-घी खाते थे, इस कारण उनकी बुद्धि तीक्ष्ण और दिमाग तेज होता था। वहीं राक्षस भैंस पालन करते थे और उसका दूध-घी के साथ ही मांस भी खाते थे इसके चलते उनमें बाहुबल के साथ बुद्धि मोटी और ठोस होती थी। इसलिए आज भी स्वदेशी गाय के दूध और घी की अपनी अलग ही महत्ता है।
भारतीय कृषि की रीढ़ रहीं हैं स्वदेशी गायें
आज हम जिन स्वदेशी गायों को आवारा, घुमंतू, छुट्टा कहकर संबोधित कर रहे हैं कालातंर में यही स्वदेशी गायें भारतीय कृषि की रीढ़ रही हैं। एक दौर था जब स्वदेशी गायें गांव-गरीब-किसान की पोषण सुरक्षा से लेकर ऊर्जा शक्ति का द्योतक रहीं हैं। देशी गाय का दूध, दही, छाछ, घी ने जहां एक तरफ भारतीय थाली को पोषण सुरक्षा प्रदान की है वहीं दूसरी तरफ स्वदेशी गायों के बछड़ों द्वारा जवान होकर खेती में किसान के कमाऊ पूत बनकर सदियों तक उनकी निस्वार्थ भाव से सेवा की है। स्वदेशी गायों के गोबर, गौमूत्र से तैयार खाद के द्वारा सदियों तक फसलों को पोषण ही नहीं मिला है अपितु भूमि की उर्वरता भी चिरस्थायी बनी रही है।
स्वदेशी गायों की दुर्दशा की शुरूआत
भारतीय समाज में पुरातन काल से ही गाय खासकर भारतीय स्वदेशी गायों का बहुत ही पूज्यनीय स्थान रहा है। आदिकाल से लेकर आधुनिक भारत तक के सफर में भारतीय गायों के योगदान को किसी भी तरह से कमतर नहीं आंका जा सकता है। लेकिन मशीनीकरण के दौर ने हमारी स्वदेशी गायों को बेबस, बेकार और लाचार बना दिया है। दूसरी तरफ आज अधिक दुग्ध उत्पादन करने वाली स्वदेशी गायों की नस्लों की मांग ज्यादा है। इस कारण भारवाहक, द्वुकाजी, कम दूध देने वाली स्वदेशी गायों की नस्लों की मांग अत्यधिक कम हो गई है। इसके चलते किसी समय में गायों के जो बछड़े किसान के कमाऊ पूत बनकर खेतों में काम करते थे, बोझा ढोते थे, वह आज दर-दर की ठोकरें खाने के मजबूर हैं।
विदित हो देश में जिस दौर में हरित क्रांति का आगाज हुआ लगभग उसी दौर में भारतीय स्वदेशी गायों को हटाने की भी शुरूआत हो गई थी। विदेशी सांड़ों का सीमन और विदेशों से सांड़ों को लाकर भारतीय नस्ल की स्वदेशी गायों के साथ क्रॉस ब्रीडिंग की जाने लगी। विदेशी नस्ल के सांड़ों और सीमन से स्वदेशी नस्ल की गायों को क्रॉस ब्रीडिंग कराकर श्वेत क्रांति प्राप्त करना उस दौर में बहुत महत्वपूर्ण उदेश्य था। उस समय सरकार द्वारा एक नारा भी दिया गया था जिसमें कहा गया कि ‘‘देशी गाय से संकर गाय, अधिक दूध और अधिक आय’’। इस नारे और क्रॉस ब्रीडिंग कार्यक्रम के कारण भारत श्वेत क्रांति का अग्रज देश बनकर विश्व में सर्वाधिक दुग्ध उत्पादन करने वाले देश की सूची में शामिल जरूर हो गया। लेकिन इस पहल के कारण भारतीय स्वदेशी गायों का महत्व साल दर साल कम होता चला गया और यहीं से भारतीय स्वदेशी गायों की नस्लों की दुर्दशा की शुरूआत भी हो गई।
गौमाता हो गई घुमंतू आवारा गाय
आज भारतीय स्वदेशी गायों की दुर्दशा किसी से छुपी हुई नहीं हैं। हमारी अपनी स्वदेशी गायें बहुत बड़े पैमाने पर गांव, कस्बों, शहरों, महानगरों से लेकर सड़कों, खेतों और जंगलों तक में आवारा घुमंतू बनकर दर-दर की ठोकरें खाती हुई घूम रहीं हैं। दरअसल आज जो गायें आवारा बनकर घूम रहीं हैं, यह हमारे अपने ही किसानों एवं गौ पालकों द्वारा छोड़ी गई हैं। जिनकों इन लोगों द्वारा कम दुग्ध उत्पादन करने तथा अनउत्पादक हो जाने के कारण छोड़ दिया गया है। वहीं इन गायों के नर बछड़ों का मशीनीकरण के दौर में खेती में कोई भी उपयोग अब नहीं रहा है। इसलिए गौ-पालकों द्वारा गायों के नर बछड़ों को भी ऐसे ही घुमंतू छोड़ दिया जाता है।
किसान की ही लाठी खाने को विवश गायें
किसान को सब कुछ देने वाली स्वदेशी गाय जिसको पुरातन वैदिक काल से ही गौमाता का दर्जा प्राप्त है। आज उसी किसान की लाठी खाने को मजबूर हैं। भूखी प्यासी गायें जब किसानों के खेतों में खड़ी फसल खाती हैं, जिनकों कभी उन्होंने अपने खून-पसीनें से सींचा था। वही किसान भूखी प्यासी गायों को लाठियों से दुत्कार कर उन्हें रास्तों, सड़कों, कस्बों, गांवों की ओर खदेड़ जाते हैं। किसान की भी मजबूरी है कि जंगल हैं नहीं और फसलों को भी बचाना है। इतना ही नहीं अब तो ज्यादातर किसान आवारा गायों और जंगली जानवरों से फसलों को बचाने के लिए खेतों के चारो ओर कटीले तारों की फैसिंग अथवा करेंट वाले तार (झटका मशीनें) लगवा रहे हैं। इसके कारण कई बार गायों की इनकी जद में आ जाने के कारण चोट-चपेट के साथ मौत तक हो जाती है। सड़कों से लेकर शहरों तक में पूज्यनीय गायें कूड़ा, कचरा, पॉलीथीन, गंदगी आदि खाकर उपनी उदर पूर्ति करने को मजबूर है इसके चलते अधिकांश आवारा घुमंतू गायें बीमार हैं। इन गायों के पेट में पॉलीथीन के गट्ठर जमा हो रहे हैं।
दुर्घटना का कारण बनता गौवंश
आजकल सड़कों, राष्ट्रीय राजमार्गों से लेकर आम रास्तों तक में आवारा घूमता गौवंश दुर्घटना का कारण बन रहा है, इसके चलते लोगों की मौत तक हो जाती है। सड़कों पर घूमता आवारा गौवंश के कारण चार पहिया वाहनों से लेकर दो पहिया वाहन चालक और सवार तक प्रभावित हो रहे हैं। इतना ही नहीं इस आवारा गौवंश की वजह से हर रोज कहीं न कहीं बहुत बड़ी-बड़ी सड़क दुर्घटना देखने और सुनने को मिल रहीं हैं। कई बार राष्ट्रªीय राजमार्गों एवं अन्य सड़कों पर ट्रक, ट्रोला, डम्फर, बसों आदि वाहनों से टकरा जाने से गौवंश की भी बड़े पैमाने पर मौत तक हो जाती है। इसलिए हम कह सकते हैं कि आवारा गौवंश अब बहुत बड़ी संख्या में दुर्घटनाओं का भी कारण बन रहा हैं।
विदेशों में स्वदेशी गायों की बढ़ती महत्ता
एक तरफ भारत में भारतीय स्वदेशी गायों के महत्व और उपयोगिता को कम करके आंका जाता है। दुग्ध उत्पादन अधिक लेने के चक्कर में क्रॉसब्रीड गायों को बढ़ावा दिया जाता है। वहीं दूसरी तरफ दुनियां के कई देशों में भारतीय स्वदेशी गायों की नस्ल की उपयोगिता और महत्व को समझते हुये वर्षों से भारत की गायों की नस्लों को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसका ताजातरीन उदाहरण गत् वर्ष ब्राजील में बखूबी देखने को मिला है। ब्राजील में दुनियां की सबसे मंहगी गाय कीे बिकी हुई है जोकि मूल रूप से भारत के आंध्र प्रदेश राज्य की ओंगोल/नेल्लोर नस्ल की गाय है।
ब्राजील में ओंगोल नस्ल की यह गाय जिसका नाम वियाटिना-19 है जोकि 41 करोड़ की ब्रिकी हुई है। दुनियां किसी भी नस्ल की गाय की यह अब तक की सर्वाधिक कीमत बताई जा रही है। ओंगोल/नेल्लोर नस्ल की गाय बहुत ठंडे मौसम को छोड़कर सभी तरह के मौसम में ढ़ल जाती है। इस गाय की नस्ल उच्च तापमान के प्रति बहुत ही प्रतिरोधी और विभिन्न परजीवियों और बीमारियों के प्रति प्राकृतिक प्रतिरोधक क्षमता रखती है। पूरी दुनियां में ब्राजील नेल्लोर नस्ल की गाय का सबसे बड़ा प्रजनक देश बनकर उभरा है।
संकर गायों के प्रति होता मोहभंग
एक तरफ स्वदेशी गायों की उपयोगिता, भारत के विभिन्न राज्यों-क्षेत्रों की जलवायु और भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप अपने आप को ढाल लेने की क्षमता के चलते इनके प्रति स्वीकार्यता बढ़ रही है। वहीं दूसरी तरफ शंकर गायों में भारतीय जलवायु के प्रति अनुकूलन क्षमता की कमी, रोग, बीमारियां, प्रजनन समस्यायें, इनके दूध-घी के प्रति लोगों में जागरूकता पैदा होना जैसे कई कारण शंकर गाय (क्रॉसब्रीड) के प्रति मोहभंग कर कर रहे हैं। इसके चलते आज संकर गायों को हटाने की बात की जाने लगी है। आज चिंतन का विषय यह नहीं कि संकर गाय से दूध ज्यादा मिलता है अपितु सोचनीय बिन्दु यह है कि यह दूध कितना स्वास्थ्यवर्धक है। साथ ही क्रॉस ब्रीडिंग (संकर) गायों में उत्पन्न रोग एवं प्रजनन संबंधी समस्याऐं बहुत ज्यादा हैं।
दुधारू स्वदेशी गायों का बढ़ता महत्व
भारत में एक बार फिर से दुधारू स्वदेशी गायों का महत्व बढ़ रहा है। ऐसा इसलिए भी हो रहा है कि द्वुकाजी, भारवाहक एवं कम दुग्ध उत्पादन करने वाली नस्लों की मशीनीकरण के दौर में खेती-किसानी में उपयोगिता पूर्णतः खत्म हो चुकी है। देश के अधिकांश राज्यों में जहां स्वदेशी गायों को पाला जा रहा है उसमें सिर्फ और सिर्फ भारतीय स्वदेशी दुधारू नस्ल की गायों को ही प्राथमिकता दी जा रही है। इन गायों की नस्लों में प्रमुख रूप से गिर, साहीवाल, रैड सिंधी, राठी, थारपारकर आदि प्रमुख हैं। इन गायों की शुद्ध नस्लों से अच्छा दुग्ध उत्पादन प्राप्त होता है।
नर बछड़ों के निस्तारण की समस्या
उत्तर भारत के अधिकांश राज्यों में गायों के नर बछड़ों का निस्तारण करना एक बहुत बड़ी समस्या है। गौ वंश होने के कारण इनका स्लॉटर कदापि हो नहीं सकता, खेती-किसानी, अन्य भारवाहन आदि के कार्य ये आते नहीं हैं। ऐसे में गौ पालकों को यह आवारा खुल्ला छोड़ने पड़ते हैं। इसके कारण सड़कों पर यह जवान होकर आवारा सांड़ बनकर खुल्ला घूमते हैं। आवारा सांड अनाधिकृत-असुरक्षित प्रजनन करने के साथ ही सड़कों-शहरों-गांव-गलियों में उत्पाद मचाते रहते हैं। इसके चलते आवारा साड़ों के द्वारा आये दिन दर्जनों दुर्घटनाओं के समाचार देखने, सुनने और पढ़ने को मिलते हैं। देश के अधिकांश हिस्सों में आवारा साड़ों के हमलों के कारण दर्जनों लोग मौत के मुहं तक में जा चुके हैं।
घुमंतू-आवारा नर बछड़ों का हो बधियाकरण
गांव-गली-सड़कों-शहरों आदि स्थानों पर घूम रहे आवारा-घुमंतू नर बछड़ों का उचित समय और आयु पर बधियांकरण कराये जाने पर अमल किये जाने की जरूरत है। यदि एक उचित सकारात्मक पहल कर इन नर बछड़ों को आवारा छोड़ने से पहले अथवा सड़कों पर घूम रहीं आवारा गायों से पैदा नर बछड़ों का बधियांकरण करा दिया जाना चाहिए। ऐसा करने से कम से कम अनाधिकृत-असुरक्षित प्रजनन के साथ सड़कों पर आवारा गायों से पैदा होने वाले अन्उत्पादक आवारा गौवंश की वृद्धि को कुछ हद तक कम किया जा सकता है। इसके साथ ही धीरे-धीरे गांव-गली-सड़कों-शहरों आदि स्थानों से आवारा गौवंश की संख्या में काफी कमी लायी जा सकती है। यह इसलिए भी जरूरी है कि आवारा गौवंश की दुर्दशा असहनीय है और कोई माने या न माने लेकिन सनातन परंपरा के अनुसार इसके पाप का हर कोई भागीदार बन रहा है।
आवारा क्रॉस ब्रीड गायों को हटाने की ज़रूरत
आज गांव-गली-सड़कों-शहरों आदि स्थानों पर बहुत बड़ी तादात में क्रॉस ब्रीड (शंकर) गाय, उनके बछड़े और सांड़ भी आवारा घूम रहे हैं। यह ऐसा गौवंश है जोकि स्वदेशी गौवंश की श्रेणी में नहीं आता है और इसको संरक्षित गौवंश नहीं माना जाना चाहिए। इस मायने से देखा जाये तो इनको पूर्णतः हटाया जाना संभव है। हांलाकि इस पर अलग-अलग राज्यों और क्षेत्रों में लोगों की राय भिन्न-भिन्न हो सकती है। लेकिन ऐसे संवेदनशील विषय पर अंतिम निर्णय केन्द्र और राज्य सरकारें को ही लेना होगा। यदि ऐसा होता है तो आवारा क्रॉस ब्रीड (शंकर) गायों को हटाकर इस समस्या पर बहुत हद तक काबू पाया जा सकता है और सड़कों पर गौवंश के नाम पर घूम रहे अनाधिकृत आवारा क्रॉस ब्रीड गायों की संख्या में कमी लायी जा सकती है।
भविष्य के अनुकूल विकसित हों गायों की नस्लें
भारत में पाले जाने वाली भविष्य की गायें कैसी हों? उनमें क्या बदलाव किये जायें जिससे स्वदेशी गौवंश सुरक्षित, संरक्षित और रोगमुक्त रहने के साथ ही वह ज्यादा दुग्ध उत्पादन करने की क्षमता विकसित कर सकें। हांलाकि भारतीय स्वदेशी गायों में जलवायु अनुकूलन क्षमता पहले से ही अच्छी है, लेकिन आने वाले समय में नित्रोज हो रहे जलवायु परिवर्तन को देखते हुये इनमें और अधिक जलवायु अनुकूलन क्षमता विकसित करने के साथ ही तापमान सहनशीलता बढ़ाने की जरूरत है। यदि ऐसा होता है तो उत्पादन, प्रजनन, रोग और बीमारियों जैसी समस्याओं पर काबू पाना संभव हो सकेगा।
जलवायु परिवर्तन के खतरों को देखते हुये और अधिक वैज्ञानिक अनुसंधान करने की आवश्यकता है जिससे स्वदेशी गायों की नस्लों में जलवायु अनुकूलन क्षमता विकसित की जा सके। अनुसंधान के द्वारा स्वदेशी गायों की नस्लों केे जीन में कुछ बदलाव किये जा सके तो भविष्य की स्वदेशी गायों की नस्लें तैयार हो सकेंगी। यदि ऐसे प्रयोगों से अत्यधिक गर्मी-सर्दी को सहने की क्षमता, अधिक दुग्ध उत्पादन वृद्धि, रोगों एवं बीमारियों से लड़ने की क्षमता के साथ प्रजनन क्षमता में सुधार होता है तो निश्चित रूप से अत्यंत सुखद और लाभकारी सिद्ध होगा।
लिंग-वर्गीकृत वीर्य द्वारा मादा स्वदेशी बछियां प्राप्त करना
स्वदेशी गायों में भी कृत्रिम गर्भाधान तकनीकी समय के साथ काफी उन्नत हुई है। हांलाकि गांव और क्षेत्र स्तर पर अभी भी कुछ खामियों और कमियों के कारण गर्भाधान का प्रतिशत काफी कम हैं। गायों में कृत्रिम गर्भाधान के साथ ही अब एक और उन्नत तकनीकी विकसित की जा चुकी है जिसे लिंग-वर्गीकृत वीर्य तकनीकी के रूप में जाना जाता है। इस तकनीकी के माध्यम से वांछित लिंग का नर या मादा पशु उत्पन्न किया जा सकता है। डेयरी क्षेत्र में दुग्ध उत्पादन लेने के लिए हमेशा मादा बछड़े को ही प्राथमिकता दी जाती है। इस तकनीकी के माध्यम से ग् गुणसूत्र शुक्राणुओं वाले वीर्य का उपयोग करके अधिकतम मादा बछियों को पैदा किया जा सकता है। अब भारत में भी यह तकनीकी जमीनी स्तर पर प्रयोग की जा रही है।
सेक्स सॉर्टेड सीमेन के माध्यम से गिर, साहीवाल, रेड सिंधी, राठी, थारपारकर, गाओलाओ और देवनी जैसी स्वदेशी गायों की नस्लों का कृत्रिम गर्भाधान कराया जा सकता है। स्वदेशी गायों से सिर्फ मादा बछिया प्राप्त करने की यह तकनीकी किसी वरदान से कम नहीं हैं। आने वाले समय में जैसे-जैसे यह तकनीकी और अधिक सर्वसुलभ होने के साथ इस सीमन की उपलब्धता सस्ती होगी वैसे-वैसे ही स्वदेशी गायों को पालने में लोग और अधिक रूचि दिखायेंगे। जिसके चलते भविष्य में स्वदेशी गायों की नस्लों का पालन बढ़ेगा और आवारा बछड़े-सांड़ों की संख्या न्यूनतम की जा सकेगी।
स्वदेशी भारतीय गांयें न सिर्फ पुरातन वैदिक संस्कृति का अभिन्न अंग रहीं हैं अपितु गांव-गरीब-किसान के जीवन यापन का सहारा और उनकी पोषण सुरक्षा का प्रमुख केन्द्र बिन्दु बन रही हैं। स्वदेशी गाय के बिना भारतीय सनातन संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती है। भौतिकवादी युग में स्वदेशी गाय की महत्ता कम हुई है, यही कारण है कि आज गौमाता दर-दर भटक रही है। आज स्वदेशी गौमाता के संरक्षण नहीं अपितु उसके संवर्धन की जरूरत है। गौमाता का संरक्षण सरकारी अनुदान द्वारा एवं धार्मिक लोगों से सहयोग लेकर संचालित गौशालाओं के माध्यम से कर पाना संभव नहीं हैं।
यदि ऐसा होता तो एक भी गौमाता दर-दर गलियों में भटकती डलाबघरों में कूड़ा-कचड़ा खाती नहीं दिखती। आज स्वदेशी गौमाता के संरक्षण से ज्यादा उनके संवर्धन पर ध्यान देना होगा। भारतीय स्वदेशी गायों की नस्लों को अधिक दुग्ध उत्पादक, जलवायु के अनुकूल, ज्यादा से ज्यादा मादा बछियां पैदा करने, प्रजनन सुधार करके रोग और बीमारी मुक्त बनाने की जरूरत है। यदि हम ऐसा कर पाये तो आने वाले समय में स्वदेशी गायों की नस्लों को निश्चित रूप से पुनः भारतीय संस्कृति के अनुरूप समाज में पुर्नस्थापित कर सकेंगे।
जिस गाय को हम अनादिकाल से माता का सम्मान देकर पूजते आ रहे है उसका यह तिरस्कार और दुर्दशा के पीछे आखिर क्या वजह और कारण हैं। इस विषय पर विचार, चिंतन ही नहीं धरातल पर बहुत कुछ सार्थक प्रयास करने की आवश्यकता है। आज लगता है कि गऊमाता की सेवा मात्र एक नारा बनकर रह गया है।
भारतीय स्वदेशी गायों का गौरवशाली इतिहास रहा है और वर्तमान में भी इनका महत्वपूर्ण योगदान है। भारतीय जलवायु के अनुरूप अनुकूलन की क्षमता इनको खास बनाती है। पुरातनकाल से ही स्वदेशी भारतीय गायें कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था का अभिन्न अंग रही हैं। वर्तमान समय में भारत में करीब 50 स्वदेशी नस्लों की गायें पायी जाती हैं। जिनमें से कुछ दुग्ध उत्पादन के लिए तो कुछ भारवाही तथा कुछ द्विकाजी नस्लें हैं। भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में वहां की आवश्यकता, जलवायु और भोगौलिक परिस्थितियों के अनुरूप ही स्वदेशी भारतीय गायों की नस्लों का विकास हुआ है।
स्वदेशी गौवंश की नस्लें और उनकी संख्या
भारत में स्वदेशी गौवंश की विविध नस्लें पाई जाती हैं, जिनकी संख्या करोड़ों में है। इनमें गिर (68,57,784), साहीवाल (59,49,674), राठी (11,69,828), रेड सिंधी (6,12,900), हरियाणा (27,57,186), थारपारकर (5,82,257), कांकरेज (22,15,537), ओंगोल (7,03,142), देवनी (2,84,342), गाओलाओ (1,86,887), कृष्णा वैली (22,532), मेवाती (21,901), अमृत महल (3,01,354), बरगुर (55,459), बचौर (43,45,940), बिंझारपुरी (83,849), डांगी (1,91,695), घुमसुरी (38,887), हल्लीकर (8,19,137), कंगायम (1,52,543), केनकथा (1,66,267), खेरीगढ़ (48,718), खेरियारी (25,021), खिलारी (12,99,196), मालवी (10,32,968), नागौरी (3,47,081), निमाड़ी (4,79,061), मोटू (2,33,637), पोवार (28,656), रेड कंधारी (1,49,221), सिरी (24,067), उम्ब्लाचेरी (42,390), वेचुर (15,181), पुंगानुर (13,275), मलनाड गिद्दा (7,13,058), कोसली (15,56,674), पुलिकुलम (13,934), गंगातिरी (5,14,545), बेलाही (5,264), बद्री (9,89,375), कोंकण कपिला (6,00,000), लखिमी (68,29,484), लद्दाखी (54,000), पोडा धुरूपू (55,000), नरी (2,80,000), डागरी (15,000), थुथो (22,000), श्वेता कपिला (7,59,000), हिमाचली पहाड़ी (53,000) और पूर्णिया (50,000) प्रमुख हैं। ये नस्लें अपने-अपने क्षेत्रों की जलवायु, भौगोलिक परिस्थितियों और कृषि आवश्यकताओं के अनुरूप विकसित हुई हैं, जो इन्हें भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था और सांस्कृतिक धरोहर का अभिन्न हिस्सा बनाती हैं। (स्रोतः 20वीं पशुगणना और एनबीएजीआर)
वैदिक काल और गौमाता
भारतवर्ष में वैदिक काल से ही गाय का महत्व रहा है। गाय को हिन्दू धर्म में ‘‘गौ माता’’ कहा जाता है और इसे देवी लक्ष्मी का अवतार माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि गाय के शरीर में 33 करोड़ देवी-देवता निवास करते हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार माना जाता है कि गाय (कामधेनु) देवताओं और राक्षसों द्वारा किये गये समुद्र मंथन के समय दूध के सागर से निकली थी। एक अन्य कथा में ब्रह्मा जी जब एक मुख से अमृत पी रहे थे, तो उनके मुख से फेन निकला, जिससे आदि गाय सुरभि का जन्म हुआ। वहीं कहा जाता है कि दक्ष प्रजापति की साठ पुत्रियों में से एक सुरभि भी थी, जिनसे गायों की उत्पत्ति मानी जाती है। हमारे पूर्वजों द्वारा गायों को 10,500 से 10,000 साल पहले पालतू बना लिया गया था। वैदिक काल में कामधेनु या सुरभि (संस्कृतः कामधुक) गाय ब्रह्मा जी द्वारा ली गई थी। वहीं दिव्य वैदिक गाय (गौमाता) ऋषियों को दी गई ताकि उसके दिव्य अमृत पंचगव्य का उपयोग यज्ञ, आध्यात्मिक अनुष्ठानों और संपूर्ण मानवता के कल्याण के लिए किया जा सके। वेदों में गाय को ’अध्न्या‘ कहा गया है, जिसका अर्थ है जिसे मारा न जाए।
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भारतीय कृषि की रीढ़ रहीं हैं स्वदेशी गायें
आज हम जिन स्वदेशी गायों को आवारा, घुमंतू, छुट्टा कहकर संबोधित कर रहे हैं कालातंर में यही स्वदेशी गायें भारतीय कृषि की रीढ़ रही हैं। एक दौर था जब स्वदेशी गायें गांव-गरीब-किसान की पोषण सुरक्षा से लेकर ऊर्जा शक्ति का द्योतक रहीं हैं। देशी गाय का दूध, दही, छाछ, घी ने जहां एक तरफ भारतीय थाली को पोषण सुरक्षा प्रदान की है वहीं दूसरी तरफ स्वदेशी गायों के बछड़ों द्वारा जवान होकर खेती में किसान के कमाऊ पूत बनकर सदियों तक उनकी निस्वार्थ भाव से सेवा की है। स्वदेशी गायों के गोबर, गौमूत्र से तैयार खाद के द्वारा सदियों तक फसलों को पोषण ही नहीं मिला है अपितु भूमि की उर्वरता भी चिरस्थायी बनी रही है।
स्वदेशी गायों की दुर्दशा की शुरूआत
भारतीय समाज में पुरातन काल से ही गाय खासकर भारतीय स्वदेशी गायों का बहुत ही पूज्यनीय स्थान रहा है। आदिकाल से लेकर आधुनिक भारत तक के सफर में भारतीय गायों के योगदान को किसी भी तरह से कमतर नहीं आंका जा सकता है। लेकिन मशीनीकरण के दौर ने हमारी स्वदेशी गायों को बेबस, बेकार और लाचार बना दिया है। दूसरी तरफ आज अधिक दुग्ध उत्पादन करने वाली स्वदेशी गायों की नस्लों की मांग ज्यादा है। इस कारण भारवाहक, द्वुकाजी, कम दूध देने वाली स्वदेशी गायों की नस्लों की मांग अत्यधिक कम हो गई है। इसके चलते किसी समय में गायों के जो बछड़े किसान के कमाऊ पूत बनकर खेतों में काम करते थे, बोझा ढोते थे, वह आज दर-दर की ठोकरें खाने के मजबूर हैं।
विदित हो देश में जिस दौर में हरित क्रांति का आगाज हुआ लगभग उसी दौर में भारतीय स्वदेशी गायों को हटाने की भी शुरूआत हो गई थी। विदेशी सांड़ों का सीमन और विदेशों से सांड़ों को लाकर भारतीय नस्ल की स्वदेशी गायों के साथ क्रॉस ब्रीडिंग की जाने लगी। विदेशी नस्ल के सांड़ों और सीमन से स्वदेशी नस्ल की गायों को क्रॉस ब्रीडिंग कराकर श्वेत क्रांति प्राप्त करना उस दौर में बहुत महत्वपूर्ण उदेश्य था। उस समय सरकार द्वारा एक नारा भी दिया गया था जिसमें कहा गया कि ‘‘देशी गाय से संकर गाय, अधिक दूध और अधिक आय’’। इस नारे और क्रॉस ब्रीडिंग कार्यक्रम के कारण भारत श्वेत क्रांति का अग्रज देश बनकर विश्व में सर्वाधिक दुग्ध उत्पादन करने वाले देश की सूची में शामिल जरूर हो गया। लेकिन इस पहल के कारण भारतीय स्वदेशी गायों का महत्व साल दर साल कम होता चला गया और यहीं से भारतीय स्वदेशी गायों की नस्लों की दुर्दशा की शुरूआत भी हो गई।
गौमाता हो गई घुमंतू आवारा गाय
आज भारतीय स्वदेशी गायों की दुर्दशा किसी से छुपी हुई नहीं हैं। हमारी अपनी स्वदेशी गायें बहुत बड़े पैमाने पर गांव, कस्बों, शहरों, महानगरों से लेकर सड़कों, खेतों और जंगलों तक में आवारा घुमंतू बनकर दर-दर की ठोकरें खाती हुई घूम रहीं हैं। दरअसल आज जो गायें आवारा बनकर घूम रहीं हैं, यह हमारे अपने ही किसानों एवं गौ पालकों द्वारा छोड़ी गई हैं। जिनकों इन लोगों द्वारा कम दुग्ध उत्पादन करने तथा अनउत्पादक हो जाने के कारण छोड़ दिया गया है। वहीं इन गायों के नर बछड़ों का मशीनीकरण के दौर में खेती में कोई भी उपयोग अब नहीं रहा है। इसलिए गौ-पालकों द्वारा गायों के नर बछड़ों को भी ऐसे ही घुमंतू छोड़ दिया जाता है।
किसान की ही लाठी खाने को विवश गायें
किसान को सब कुछ देने वाली स्वदेशी गाय जिसको पुरातन वैदिक काल से ही गौमाता का दर्जा प्राप्त है। आज उसी किसान की लाठी खाने को मजबूर हैं। भूखी प्यासी गायें जब किसानों के खेतों में खड़ी फसल खाती हैं, जिनकों कभी उन्होंने अपने खून-पसीनें से सींचा था। वही किसान भूखी प्यासी गायों को लाठियों से दुत्कार कर उन्हें रास्तों, सड़कों, कस्बों, गांवों की ओर खदेड़ जाते हैं। किसान की भी मजबूरी है कि जंगल हैं नहीं और फसलों को भी बचाना है। इतना ही नहीं अब तो ज्यादातर किसान आवारा गायों और जंगली जानवरों से फसलों को बचाने के लिए खेतों के चारो ओर कटीले तारों की फैसिंग अथवा करेंट वाले तार (झटका मशीनें) लगवा रहे हैं। इसके कारण कई बार गायों की इनकी जद में आ जाने के कारण चोट-चपेट के साथ मौत तक हो जाती है। सड़कों से लेकर शहरों तक में पूज्यनीय गायें कूड़ा, कचरा, पॉलीथीन, गंदगी आदि खाकर उपनी उदर पूर्ति करने को मजबूर है इसके चलते अधिकांश आवारा घुमंतू गायें बीमार हैं। इन गायों के पेट में पॉलीथीन के गट्ठर जमा हो रहे हैं।
दुर्घटना का कारण बनता गौवंश
आजकल सड़कों, राष्ट्रीय राजमार्गों से लेकर आम रास्तों तक में आवारा घूमता गौवंश दुर्घटना का कारण बन रहा है, इसके चलते लोगों की मौत तक हो जाती है। सड़कों पर घूमता आवारा गौवंश के कारण चार पहिया वाहनों से लेकर दो पहिया वाहन चालक और सवार तक प्रभावित हो रहे हैं। इतना ही नहीं इस आवारा गौवंश की वजह से हर रोज कहीं न कहीं बहुत बड़ी-बड़ी सड़क दुर्घटना देखने और सुनने को मिल रहीं हैं। कई बार राष्ट्रªीय राजमार्गों एवं अन्य सड़कों पर ट्रक, ट्रोला, डम्फर, बसों आदि वाहनों से टकरा जाने से गौवंश की भी बड़े पैमाने पर मौत तक हो जाती है। इसलिए हम कह सकते हैं कि आवारा गौवंश अब बहुत बड़ी संख्या में दुर्घटनाओं का भी कारण बन रहा हैं।
विदेशों में स्वदेशी गायों की बढ़ती महत्ता
एक तरफ भारत में भारतीय स्वदेशी गायों के महत्व और उपयोगिता को कम करके आंका जाता है। दुग्ध उत्पादन अधिक लेने के चक्कर में क्रॉसब्रीड गायों को बढ़ावा दिया जाता है। वहीं दूसरी तरफ दुनियां के कई देशों में भारतीय स्वदेशी गायों की नस्ल की उपयोगिता और महत्व को समझते हुये वर्षों से भारत की गायों की नस्लों को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसका ताजातरीन उदाहरण गत् वर्ष ब्राजील में बखूबी देखने को मिला है। ब्राजील में दुनियां की सबसे मंहगी गाय कीे बिकी हुई है जोकि मूल रूप से भारत के आंध्र प्रदेश राज्य की ओंगोल/नेल्लोर नस्ल की गाय है।
संकर गायों के प्रति होता मोहभंग
एक तरफ स्वदेशी गायों की उपयोगिता, भारत के विभिन्न राज्यों-क्षेत्रों की जलवायु और भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप अपने आप को ढाल लेने की क्षमता के चलते इनके प्रति स्वीकार्यता बढ़ रही है। वहीं दूसरी तरफ शंकर गायों में भारतीय जलवायु के प्रति अनुकूलन क्षमता की कमी, रोग, बीमारियां, प्रजनन समस्यायें, इनके दूध-घी के प्रति लोगों में जागरूकता पैदा होना जैसे कई कारण शंकर गाय (क्रॉसब्रीड) के प्रति मोहभंग कर कर रहे हैं। इसके चलते आज संकर गायों को हटाने की बात की जाने लगी है। आज चिंतन का विषय यह नहीं कि संकर गाय से दूध ज्यादा मिलता है अपितु सोचनीय बिन्दु यह है कि यह दूध कितना स्वास्थ्यवर्धक है। साथ ही क्रॉस ब्रीडिंग (संकर) गायों में उत्पन्न रोग एवं प्रजनन संबंधी समस्याऐं बहुत ज्यादा हैं।
दुधारू स्वदेशी गायों का बढ़ता महत्व
भारत में एक बार फिर से दुधारू स्वदेशी गायों का महत्व बढ़ रहा है। ऐसा इसलिए भी हो रहा है कि द्वुकाजी, भारवाहक एवं कम दुग्ध उत्पादन करने वाली नस्लों की मशीनीकरण के दौर में खेती-किसानी में उपयोगिता पूर्णतः खत्म हो चुकी है। देश के अधिकांश राज्यों में जहां स्वदेशी गायों को पाला जा रहा है उसमें सिर्फ और सिर्फ भारतीय स्वदेशी दुधारू नस्ल की गायों को ही प्राथमिकता दी जा रही है। इन गायों की नस्लों में प्रमुख रूप से गिर, साहीवाल, रैड सिंधी, राठी, थारपारकर आदि प्रमुख हैं। इन गायों की शुद्ध नस्लों से अच्छा दुग्ध उत्पादन प्राप्त होता है।
नर बछड़ों के निस्तारण की समस्या
उत्तर भारत के अधिकांश राज्यों में गायों के नर बछड़ों का निस्तारण करना एक बहुत बड़ी समस्या है। गौ वंश होने के कारण इनका स्लॉटर कदापि हो नहीं सकता, खेती-किसानी, अन्य भारवाहन आदि के कार्य ये आते नहीं हैं। ऐसे में गौ पालकों को यह आवारा खुल्ला छोड़ने पड़ते हैं। इसके कारण सड़कों पर यह जवान होकर आवारा सांड़ बनकर खुल्ला घूमते हैं। आवारा सांड अनाधिकृत-असुरक्षित प्रजनन करने के साथ ही सड़कों-शहरों-गांव-गलियों में उत्पाद मचाते रहते हैं। इसके चलते आवारा साड़ों के द्वारा आये दिन दर्जनों दुर्घटनाओं के समाचार देखने, सुनने और पढ़ने को मिलते हैं। देश के अधिकांश हिस्सों में आवारा साड़ों के हमलों के कारण दर्जनों लोग मौत के मुहं तक में जा चुके हैं।
घुमंतू-आवारा नर बछड़ों का हो बधियाकरण
गांव-गली-सड़कों-शहरों आदि स्थानों पर घूम रहे आवारा-घुमंतू नर बछड़ों का उचित समय और आयु पर बधियांकरण कराये जाने पर अमल किये जाने की जरूरत है। यदि एक उचित सकारात्मक पहल कर इन नर बछड़ों को आवारा छोड़ने से पहले अथवा सड़कों पर घूम रहीं आवारा गायों से पैदा नर बछड़ों का बधियांकरण करा दिया जाना चाहिए। ऐसा करने से कम से कम अनाधिकृत-असुरक्षित प्रजनन के साथ सड़कों पर आवारा गायों से पैदा होने वाले अन्उत्पादक आवारा गौवंश की वृद्धि को कुछ हद तक कम किया जा सकता है। इसके साथ ही धीरे-धीरे गांव-गली-सड़कों-शहरों आदि स्थानों से आवारा गौवंश की संख्या में काफी कमी लायी जा सकती है। यह इसलिए भी जरूरी है कि आवारा गौवंश की दुर्दशा असहनीय है और कोई माने या न माने लेकिन सनातन परंपरा के अनुसार इसके पाप का हर कोई भागीदार बन रहा है।
आवारा क्रॉस ब्रीड गायों को हटाने की ज़रूरत
आज गांव-गली-सड़कों-शहरों आदि स्थानों पर बहुत बड़ी तादात में क्रॉस ब्रीड (शंकर) गाय, उनके बछड़े और सांड़ भी आवारा घूम रहे हैं। यह ऐसा गौवंश है जोकि स्वदेशी गौवंश की श्रेणी में नहीं आता है और इसको संरक्षित गौवंश नहीं माना जाना चाहिए। इस मायने से देखा जाये तो इनको पूर्णतः हटाया जाना संभव है। हांलाकि इस पर अलग-अलग राज्यों और क्षेत्रों में लोगों की राय भिन्न-भिन्न हो सकती है। लेकिन ऐसे संवेदनशील विषय पर अंतिम निर्णय केन्द्र और राज्य सरकारें को ही लेना होगा। यदि ऐसा होता है तो आवारा क्रॉस ब्रीड (शंकर) गायों को हटाकर इस समस्या पर बहुत हद तक काबू पाया जा सकता है और सड़कों पर गौवंश के नाम पर घूम रहे अनाधिकृत आवारा क्रॉस ब्रीड गायों की संख्या में कमी लायी जा सकती है।
भविष्य के अनुकूल विकसित हों गायों की नस्लें
भारत में पाले जाने वाली भविष्य की गायें कैसी हों? उनमें क्या बदलाव किये जायें जिससे स्वदेशी गौवंश सुरक्षित, संरक्षित और रोगमुक्त रहने के साथ ही वह ज्यादा दुग्ध उत्पादन करने की क्षमता विकसित कर सकें। हांलाकि भारतीय स्वदेशी गायों में जलवायु अनुकूलन क्षमता पहले से ही अच्छी है, लेकिन आने वाले समय में नित्रोज हो रहे जलवायु परिवर्तन को देखते हुये इनमें और अधिक जलवायु अनुकूलन क्षमता विकसित करने के साथ ही तापमान सहनशीलता बढ़ाने की जरूरत है। यदि ऐसा होता है तो उत्पादन, प्रजनन, रोग और बीमारियों जैसी समस्याओं पर काबू पाना संभव हो सकेगा।
जलवायु परिवर्तन के खतरों को देखते हुये और अधिक वैज्ञानिक अनुसंधान करने की आवश्यकता है जिससे स्वदेशी गायों की नस्लों में जलवायु अनुकूलन क्षमता विकसित की जा सके। अनुसंधान के द्वारा स्वदेशी गायों की नस्लों केे जीन में कुछ बदलाव किये जा सके तो भविष्य की स्वदेशी गायों की नस्लें तैयार हो सकेंगी। यदि ऐसे प्रयोगों से अत्यधिक गर्मी-सर्दी को सहने की क्षमता, अधिक दुग्ध उत्पादन वृद्धि, रोगों एवं बीमारियों से लड़ने की क्षमता के साथ प्रजनन क्षमता में सुधार होता है तो निश्चित रूप से अत्यंत सुखद और लाभकारी सिद्ध होगा।
लिंग-वर्गीकृत वीर्य द्वारा मादा स्वदेशी बछियां प्राप्त करना
स्वदेशी गायों में भी कृत्रिम गर्भाधान तकनीकी समय के साथ काफी उन्नत हुई है। हांलाकि गांव और क्षेत्र स्तर पर अभी भी कुछ खामियों और कमियों के कारण गर्भाधान का प्रतिशत काफी कम हैं। गायों में कृत्रिम गर्भाधान के साथ ही अब एक और उन्नत तकनीकी विकसित की जा चुकी है जिसे लिंग-वर्गीकृत वीर्य तकनीकी के रूप में जाना जाता है। इस तकनीकी के माध्यम से वांछित लिंग का नर या मादा पशु उत्पन्न किया जा सकता है। डेयरी क्षेत्र में दुग्ध उत्पादन लेने के लिए हमेशा मादा बछड़े को ही प्राथमिकता दी जाती है। इस तकनीकी के माध्यम से ग् गुणसूत्र शुक्राणुओं वाले वीर्य का उपयोग करके अधिकतम मादा बछियों को पैदा किया जा सकता है। अब भारत में भी यह तकनीकी जमीनी स्तर पर प्रयोग की जा रही है।
सेक्स सॉर्टेड सीमेन के माध्यम से गिर, साहीवाल, रेड सिंधी, राठी, थारपारकर, गाओलाओ और देवनी जैसी स्वदेशी गायों की नस्लों का कृत्रिम गर्भाधान कराया जा सकता है। स्वदेशी गायों से सिर्फ मादा बछिया प्राप्त करने की यह तकनीकी किसी वरदान से कम नहीं हैं। आने वाले समय में जैसे-जैसे यह तकनीकी और अधिक सर्वसुलभ होने के साथ इस सीमन की उपलब्धता सस्ती होगी वैसे-वैसे ही स्वदेशी गायों को पालने में लोग और अधिक रूचि दिखायेंगे। जिसके चलते भविष्य में स्वदेशी गायों की नस्लों का पालन बढ़ेगा और आवारा बछड़े-सांड़ों की संख्या न्यूनतम की जा सकेगी।
स्वदेशी भारतीय गांयें न सिर्फ पुरातन वैदिक संस्कृति का अभिन्न अंग रहीं हैं अपितु गांव-गरीब-किसान के जीवन यापन का सहारा और उनकी पोषण सुरक्षा का प्रमुख केन्द्र बिन्दु बन रही हैं। स्वदेशी गाय के बिना भारतीय सनातन संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती है। भौतिकवादी युग में स्वदेशी गाय की महत्ता कम हुई है, यही कारण है कि आज गौमाता दर-दर भटक रही है। आज स्वदेशी गौमाता के संरक्षण नहीं अपितु उसके संवर्धन की जरूरत है। गौमाता का संरक्षण सरकारी अनुदान द्वारा एवं धार्मिक लोगों से सहयोग लेकर संचालित गौशालाओं के माध्यम से कर पाना संभव नहीं हैं।
यदि ऐसा होता तो एक भी गौमाता दर-दर गलियों में भटकती डलाबघरों में कूड़ा-कचड़ा खाती नहीं दिखती। आज स्वदेशी गौमाता के संरक्षण से ज्यादा उनके संवर्धन पर ध्यान देना होगा। भारतीय स्वदेशी गायों की नस्लों को अधिक दुग्ध उत्पादक, जलवायु के अनुकूल, ज्यादा से ज्यादा मादा बछियां पैदा करने, प्रजनन सुधार करके रोग और बीमारी मुक्त बनाने की जरूरत है। यदि हम ऐसा कर पाये तो आने वाले समय में स्वदेशी गायों की नस्लों को निश्चित रूप से पुनः भारतीय संस्कृति के अनुरूप समाज में पुर्नस्थापित कर सकेंगे।