जब समंदर से लड़ने उतरीं महिलाएं: ओडिशा के तट पर हरियाली का सुरक्षा कवच
Gaon Connection | Dec 22, 2025, 18:24 IST
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बंगाल की खाड़ी के किनारे बसे ओडिशा के गाँव हर साल समंदर के ग़ुस्से का सामना करते हैं। साइक्लोन आते हैं, खेत डूब जाते हैं, घर उजड़ जाते हैं। लेकिन इन्हीं तटों पर महिलाओं ने एक ऐसा जंगल खड़ा किया है, जो सिर्फ पेड़ों का समूह नहीं, बल्कि एक जीवित सुरक्षा कवच है।
<p>साइक्लोन के सामने दीवार बने मैंग्रोव और उनकी रखवाली करती महिलाएं<br></p>
ओडिशा का समंदर दूर से देखने में जितना सुंदर लगता है, उतना ही डरावना हो जाता है जब वह उफान पर आता है। बंगाल की खाड़ी से उठने वाले चक्रवात, तूफ़ान और ऊँची समुद्री लहरें यहाँ के तटीय गाँवों के लिए किसी अनहोनी से कम नहीं होतीं। खेतों में खड़ी फसलें कुछ ही घंटों में खारे पानी में डूब जाती हैं, मिट्टी बंजर हो जाती है और कच्चे घर ताश के पत्तों की तरह बिखर जाते हैं। हर चक्रवात अपने साथ सिर्फ तबाही नहीं, बल्कि डर, विस्थापन और अनिश्चित भविष्य भी लेकर आता है।
लेकिन इसी समंदर के किनारे, ओडिशा के पुरी ज़िले में देवी नदी के तट पर एक अलग ही कहानी आकार ले रही है। ये कहानी है उन महिलाओं की, जिन्होंने समंदर से लड़ने के लिए हथियार नहीं उठाए, बल्कि पेड़ उगाए। जिन्होंने जाना कि प्रकृति से युद्ध नहीं, उसके साथ साझेदारी ही जीवन बचा सकती है।
देवी नदी के किनारे दूर-दूर तक फैले मैंग्रोव और ऑस्ट्रेलियन पाइन, जिन्हें स्थानीय भाषा में झाऊ कहा जाता है, पहली नज़र में किसी आम जंगल जैसे लगते हैं। लेकिन इन पेड़ों की जड़ें जमीन के भीतर गहरी उतरकर मिट्टी को कसकर पकड़ लेती हैं। यही जड़ें समुद्री लहरों की रफ्तार को तोड़ती हैं, तूफ़ानी हवाओं को धीमा करती हैं और गाँवों तक पहुँचने से पहले तबाही की ताक़त को कम कर देती हैं।
चारुलता बिस्वाल, जो इस जंगल की देखभाल करने वाले स्वयं सहायता समूह की सदस्य हैं, कहती हैं, “इन झाऊ जंगलों की वजह से हम बचे हुए हैं। अगर ये पेड़ नहीं होते, तो पता नहीं कितनी बार हमारा गाँव उजड़ चुका होता। इसलिए हमने तय किया कि जैसे ये हमें बचाते हैं, वैसे ही अब इन्हें बचाना हमारी ज़िम्मेदारी है।”
चारुलता अकेली नहीं हैं। उनके गाँव की 75 महिलाएं, हिंदू और मुस्लिम सभी ने मिलकर यह जिम्मेदारी उठाई है। सुबह-सुबह पौधों को पानी देना, उन्हें जानवरों से बचाना, सूखते पौधों को फिर से लगाना, यह सब अब उनके रोज़मर्रा के जीवन का हिस्सा है।
इस सामूहिक प्रयास की नींव रखी थी विचित्रनंदन बिस्वाल ने। वर्षों पहले जब एक चक्रवात ने आस-पास के इलाकों को तबाह कर दिया था, तब उन्होंने महसूस किया कि राहत सामग्री और मुआवज़ा कभी भी स्थायी समाधान नहीं हो सकते। अगर कुछ बचा सकता है, तो वह है प्रकृति की अपनी रक्षा प्रणाली।
विचित्रनंदन बताते हैं, “एक पेड़ जितना ऊपर बढ़ता है, उतना ही नीचे भी फैलता है। उसकी जड़ें मिट्टी को बाँध लेती हैं। जब साइक्लोन आता है, तो ये पेड़ उसकी ताक़त को मोड़ देते हैं, तोड़ देते हैं। हवा और लहरें सीधी गाँव पर हमला नहीं कर पातीं।”
लेकिन एक आदमी अकेले कितना कर सकता था? उन्होंने गाँव की महिलाओं को साथ जोड़ना शुरू किया, समझाया, भरोसा दिलाया और धीरे-धीरे एक सामूहिक आंदोलन खड़ा हो गया।
विचित्रनंदन आज भी शादी नहीं की हैं। जब लोग उनसे पूछते हैं कि उन्होंने शादी क्यों नहीं की, तो वे मुस्कुराकर कहते हैं, “मैंने प्रकृति से शादी कर ली है।”
यह सिर्फ एक लाइन नहीं, बल्कि जीवन दर्शन है। उन्होंने न केवल पेड़ लगाए, बल्कि उनकी देखभाल की पूरी व्यवस्था भी बनाई। किस दिन कौन महिला जंगल की निगरानी करेगी, कौन नए पौधे लगाएगी, कौन सूखे पौधों को बदलेगी—सब तय है।
आज हालत यह है कि जहाँ कभी खुला, असुरक्षित किनारा हुआ करता था, वहाँ अब घना हरित आवरण दिखाई देता है। बड़े-बड़े पेड़ खड़े हैं और उनके बीच हर दिन नए पौधे रोपे जा रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन ने चक्रवातों की तीव्रता और आवृत्ति दोनों बढ़ा दी हैं। समुद्र का तापमान बढ़ रहा है, जिससे तूफ़ान और अधिक विनाशकारी होते जा रहे हैं। ऐसे समय में ओडिशा की ये महिलाएं यह सिखा रही हैं कि समाधान सिर्फ बड़े बांधों या कंक्रीट की दीवारों में नहीं, बल्कि प्रकृति आधारित समाधानों में भी छिपा है।
मैंग्रोव और झाऊ जैसे तटीय जंगल न केवल चक्रवातों से बचाते हैं, बल्कि मछलियों की नर्सरी होते हैं, कार्बन सोखते हैं और स्थानीय आजीविका को भी सहारा देते हैं। यानी ये जंगल जीवन, सुरक्षा और रोज़गार—तीनों का आधार हैं।
प्रकृति मनमौजी है। कभी शांत रहती है, कभी नाराज़ हो जाती है। लेकिन ओडिशा के तटीय इलाकों के लोग, खासकर ये महिलाएं, उसके साथ जीना सीख चुकी हैं। वे जानती हैं कि अगर जंगल को जीवन देंगे, तो जंगल उनका जीवन बचाएगा।
क्लाइमेट चेंज के इस कठिन दौर में, जब पूरी दुनिया समाधान खोज रही है, ओडिशा के इन छोटे-छोटे गाँवों से एक बड़ा संदेश निकलता है- आपदा से लड़ने का सबसे मजबूत तरीका, प्रकृति के साथ खड़े होना है और यह सीख दे रही हैं वे महिलाएं, जो हर दिन समंदर के सामने पेड़ों की एक हरी दीवार खड़ी कर रही हैं।
लेकिन इसी समंदर के किनारे, ओडिशा के पुरी ज़िले में देवी नदी के तट पर एक अलग ही कहानी आकार ले रही है। ये कहानी है उन महिलाओं की, जिन्होंने समंदर से लड़ने के लिए हथियार नहीं उठाए, बल्कि पेड़ उगाए। जिन्होंने जाना कि प्रकृति से युद्ध नहीं, उसके साथ साझेदारी ही जीवन बचा सकती है।
जंगल जो दिखता साधारण है, लेकिन है सुरक्षा कवच
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चारुलता बिस्वाल, जो इस जंगल की देखभाल करने वाले स्वयं सहायता समूह की सदस्य हैं, कहती हैं, “इन झाऊ जंगलों की वजह से हम बचे हुए हैं। अगर ये पेड़ नहीं होते, तो पता नहीं कितनी बार हमारा गाँव उजड़ चुका होता। इसलिए हमने तय किया कि जैसे ये हमें बचाते हैं, वैसे ही अब इन्हें बचाना हमारी ज़िम्मेदारी है।”
चारुलता अकेली नहीं हैं। उनके गाँव की 75 महिलाएं, हिंदू और मुस्लिम सभी ने मिलकर यह जिम्मेदारी उठाई है। सुबह-सुबह पौधों को पानी देना, उन्हें जानवरों से बचाना, सूखते पौधों को फिर से लगाना, यह सब अब उनके रोज़मर्रा के जीवन का हिस्सा है।
एक व्यक्ति से शुरू हुआ आंदोलन
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विचित्रनंदन बताते हैं, “एक पेड़ जितना ऊपर बढ़ता है, उतना ही नीचे भी फैलता है। उसकी जड़ें मिट्टी को बाँध लेती हैं। जब साइक्लोन आता है, तो ये पेड़ उसकी ताक़त को मोड़ देते हैं, तोड़ देते हैं। हवा और लहरें सीधी गाँव पर हमला नहीं कर पातीं।”
लेकिन एक आदमी अकेले कितना कर सकता था? उन्होंने गाँव की महिलाओं को साथ जोड़ना शुरू किया, समझाया, भरोसा दिलाया और धीरे-धीरे एक सामूहिक आंदोलन खड़ा हो गया।
‘हमने प्रकृति से शादी कर ली है’
यह सिर्फ एक लाइन नहीं, बल्कि जीवन दर्शन है। उन्होंने न केवल पेड़ लगाए, बल्कि उनकी देखभाल की पूरी व्यवस्था भी बनाई। किस दिन कौन महिला जंगल की निगरानी करेगी, कौन नए पौधे लगाएगी, कौन सूखे पौधों को बदलेगी—सब तय है।
आज हालत यह है कि जहाँ कभी खुला, असुरक्षित किनारा हुआ करता था, वहाँ अब घना हरित आवरण दिखाई देता है। बड़े-बड़े पेड़ खड़े हैं और उनके बीच हर दिन नए पौधे रोपे जा रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन के दौर में एक ज़रूरी सबक
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मैंग्रोव और झाऊ जैसे तटीय जंगल न केवल चक्रवातों से बचाते हैं, बल्कि मछलियों की नर्सरी होते हैं, कार्बन सोखते हैं और स्थानीय आजीविका को भी सहारा देते हैं। यानी ये जंगल जीवन, सुरक्षा और रोज़गार—तीनों का आधार हैं।
गाँव से उठती उम्मीद
क्लाइमेट चेंज के इस कठिन दौर में, जब पूरी दुनिया समाधान खोज रही है, ओडिशा के इन छोटे-छोटे गाँवों से एक बड़ा संदेश निकलता है- आपदा से लड़ने का सबसे मजबूत तरीका, प्रकृति के साथ खड़े होना है और यह सीख दे रही हैं वे महिलाएं, जो हर दिन समंदर के सामने पेड़ों की एक हरी दीवार खड़ी कर रही हैं।