माँ की याद में शुरू हुई केले की खेती, 400+ किस्मों तक पहुँचा सपना
Gaon Connection | Dec 17, 2025, 19:06 IST
( Image credit : Gaon Connection Network, Gaon Connection )
केरल के तिरुवनंतपुरम ज़िले के परसाला गाँव में एक ऐसा खेत है, जहाँ केला सिर्फ फसल नहीं बल्कि संस्कृति, स्मृति और संरक्षण का प्रतीक है। कभी कोच्चि में वेब डिजाइनिंग कंपनी चलाने वाले विनोद सहदेवन नायर ने माँ के निधन के बाद कॉर्पोरेट दुनिया छोड़कर खेती को अपनाया। आज उनके खेत में भारत ही नहीं, दुनिया भर से लाई गई 400 से ज़्यादा केले की दुर्लभ किस्में उग रही हैं।
<p>इन्हें लोग प्यार से कहते हैं ‘वाज़़ा चेट्टन’, यानी ‘केले वाले भैया’। <br></p>
दूर तक फैले केले के खेत… हवा में घुली पत्तों की हरियाली और मिट्टी की सौंधी महक। पहली नज़र में यह कोई साधारण सा खेत लग सकता है, लेकिन जैसे ही आप पास जाते हैं, एहसास होता है कि यह खेत नहीं, बल्कि एक जीवित संग्रहालय है। केरल के तिरुवनंतपुरम ज़िले के परसाला गाँव में मौजूद यह ज़मीन विनोद सहदेवन नायर की है, जिन्हें लोग प्यार से ‘वाज़़ा चेट्टन’, यानी केले वाले भैया कहते हैं।
आज इस खेत में 400 से ज़्यादा किस्मों के केले उग रहे हैं। हर किस्म का रंग अलग, आकार अलग, स्वाद अलग और कहानी भी अलग। कोई केला इतना छोटा कि मुट्ठी में समा जाए, तो कोई इतना लंबा कि पहली नज़र में हैरान कर दे। कहीं मीठास है, कहीं हल्की कसैली सुगंध, कहीं पकने पर लालिमा, तो कहीं सुनहरी चमक। यह विविधता सिर्फ खेती का कमाल नहीं, बल्कि एक व्यक्ति के जज़्बे और ज़िद का नतीजा है।
एक वक्त था जब विनोद का जीवन बिल्कुल अलग दिशा में बह रहा था। कोच्चि में उनकी वेब डिज़ाइनिंग कंपनी थी, शहर की तेज़ रफ्तार ज़िंदगी थी और भविष्य के सपने भी उसी दुनिया से जुड़े थे। लेकिन मां की अचानक मृत्यु ने सब कुछ बदल दिया। उस दुख ने उन्हें भीतर तक हिला दिया। शहर की चमक फीकी पड़ गई और मन बार-बार अपनी जड़ों की ओर लौटने लगा। उसी खालीपन और सवालों के बीच उन्होंने एक बड़ा फैसला लिया—सब कुछ छोड़कर अपने पुश्तैनी खेतों में लौटने का।
यह वापसी आसान नहीं थी। खेती करना जानते हुए भी, इतनी विविध और दुर्लभ किस्मों के केले उगाना किसी चुनौती से कम नहीं था। लेकिन विनोद ने खेती को बाजार की मशीन नहीं, बल्कि जंगल की तरह देखने का फैसला किया। उनका मानना है कि प्रकृति अपने नियम खुद जानती है, बस उसे काम करने की आज़ादी चाहिए।
विनोद बताते हैं, “हम अपने खेत को जंगल की तरह ही बढ़ने देते हैं। जैसे जंगल में घास, झाड़ियाँ और पेड़ अपने-आप उगते हैं, वैसे ही यहाँ भी। पहले हम घास को बढ़ने देते हैं, फिर उसके ऊपर जैविक खाद डाल देते हैं। इससे मिट्टी ज़िंदा रहती है और हमें ज़्यादा मजदूर भी नहीं रखने पड़ते। हमारे यहाँ चार हज़ार से ज़्यादा केले के पौधे हैं और उनकी देखभाल सिर्फ मैं और मेरा बेटा करते हैं।”
इस प्रयोगधर्मी सोच ने उन्हें केरल तक सीमित नहीं रखा। केले की किस्मों की तलाश में उन्होंने भारत के कई राज्यों की यात्राएँ कीं, गुजरात, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, मणिपुर, बिहार। इतना ही नहीं, वे मलेशिया, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और हवाई तक गए, ताकि उन किस्मों को बचाया जा सके जो धीरे-धीरे दुनिया से गायब होती जा रही हैं। उनका सपना सिर्फ केला उगाना नहीं, बल्कि पारंपरिक और स्थानीय किस्मों को भुला दिए जाने से बचाना है।
यही वजह है कि आज उन्हें ‘बनाना मैन ऑफ इंडिया’ भी कहा जाता है। लेकिन विनोद के लिए यह नाम कोई तमगा नहीं, बल्कि एक भावनात्मक पहचान है। वे मुस्कुराते हुए कहते हैं, “मुझे सबसे ज़्यादा खुशी तब होती है जब लोग मेरे गाँव का नाम सुनकर कहते हैं-‘वहाँ वो केले वाले किसान हैं ना?’ समाज का यह सम्मान मेरे लिए सबसे बड़ी कमाई है।”
इस सफर में अब उनकी अगली पीढ़ी भी उनके साथ खड़ी है। उनके बेटे अनीश नायर, जो खुद इंजीनियर हैं, अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ाने में जुट गए हैं। अनीश कहते हैं, “खेती करने की प्रेरणा मुझे अपने पिता से मिली। यह शायद भारत का इकलौता खेत है जहाँ एक किसान व्यक्तिगत स्तर पर इतनी बड़ी संख्या में केले की किस्मों का संरक्षण कर रहा है। यही मेरी सबसे बड़ी प्रेरणा है।”
अनीश ने खेती को सिर्फ भावनाओं तक सीमित नहीं रखा। उन्होंने केले से बनने वाले उप-उत्पादों पर काम शुरू किया, जैसे केले के फाइबर से बने उत्पाद, पारंपरिक व्यंजन और एग्ज़ीबिशन के ज़रिये लोगों तक इन किस्मों की जानकारी पहुँचाना। इससे खेत को आर्थिक मजबूती भी मिली और संरक्षण के काम को आगे बढ़ाने की ताकत भी।
विनोद का सपना अब और बड़ा हो चुका है। वे एक ‘केला ग्राम’ बनाने की कल्पना कर रहे हैं। उनका कहना है, “अगर किसी गाँव में 100 घर हैं, तो हम उन 100 घरों को 100 अलग-अलग किस्मों के केले देंगे। तीन-चार साल में वह पूरा गाँव एक केला ग्राम बन जाएगा।” यह सपना सिर्फ खेती का नहीं, बल्कि सामूहिक संरक्षण का है, जहाँ हर परिवार प्रकृति की एक धरोहर का रखवाला बने।
विनोद सहदेवन नायर की कहानी हमें यह याद दिलाती है कि भारत के गाँवों में आज भी ऐसे लोग हैं, जो चुपचाप हमारी जैव विविधता को बचाए रखने में लगे हैं। अनाज हों, फल हों या सब्जियाँ, न जाने कितनी देसी किस्में हैं, जो सिर्फ ऐसे ही जुनूनी लोगों की वजह से ज़िंदा हैं। यह कहानी एक किसान की नहीं, बल्कि उस सोच की है, जो कहती है कि अगर हम अपनी जड़ों को बचा लें, तो भविष्य खुद-ब-खुद फलने-फूलने लगता है।
आज इस खेत में 400 से ज़्यादा किस्मों के केले उग रहे हैं। हर किस्म का रंग अलग, आकार अलग, स्वाद अलग और कहानी भी अलग। कोई केला इतना छोटा कि मुट्ठी में समा जाए, तो कोई इतना लंबा कि पहली नज़र में हैरान कर दे। कहीं मीठास है, कहीं हल्की कसैली सुगंध, कहीं पकने पर लालिमा, तो कहीं सुनहरी चमक। यह विविधता सिर्फ खेती का कमाल नहीं, बल्कि एक व्यक्ति के जज़्बे और ज़िद का नतीजा है।
एक वक्त था जब विनोद का जीवन बिल्कुल अलग दिशा में बह रहा था। कोच्चि में उनकी वेब डिज़ाइनिंग कंपनी थी, शहर की तेज़ रफ्तार ज़िंदगी थी और भविष्य के सपने भी उसी दुनिया से जुड़े थे। लेकिन मां की अचानक मृत्यु ने सब कुछ बदल दिया। उस दुख ने उन्हें भीतर तक हिला दिया। शहर की चमक फीकी पड़ गई और मन बार-बार अपनी जड़ों की ओर लौटने लगा। उसी खालीपन और सवालों के बीच उन्होंने एक बड़ा फैसला लिया—सब कुछ छोड़कर अपने पुश्तैनी खेतों में लौटने का।
( Image credit : Gaon Connection Network, Gaon Connection )
यह वापसी आसान नहीं थी। खेती करना जानते हुए भी, इतनी विविध और दुर्लभ किस्मों के केले उगाना किसी चुनौती से कम नहीं था। लेकिन विनोद ने खेती को बाजार की मशीन नहीं, बल्कि जंगल की तरह देखने का फैसला किया। उनका मानना है कि प्रकृति अपने नियम खुद जानती है, बस उसे काम करने की आज़ादी चाहिए।
विनोद बताते हैं, “हम अपने खेत को जंगल की तरह ही बढ़ने देते हैं। जैसे जंगल में घास, झाड़ियाँ और पेड़ अपने-आप उगते हैं, वैसे ही यहाँ भी। पहले हम घास को बढ़ने देते हैं, फिर उसके ऊपर जैविक खाद डाल देते हैं। इससे मिट्टी ज़िंदा रहती है और हमें ज़्यादा मजदूर भी नहीं रखने पड़ते। हमारे यहाँ चार हज़ार से ज़्यादा केले के पौधे हैं और उनकी देखभाल सिर्फ मैं और मेरा बेटा करते हैं।”
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इस प्रयोगधर्मी सोच ने उन्हें केरल तक सीमित नहीं रखा। केले की किस्मों की तलाश में उन्होंने भारत के कई राज्यों की यात्राएँ कीं, गुजरात, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, मणिपुर, बिहार। इतना ही नहीं, वे मलेशिया, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और हवाई तक गए, ताकि उन किस्मों को बचाया जा सके जो धीरे-धीरे दुनिया से गायब होती जा रही हैं। उनका सपना सिर्फ केला उगाना नहीं, बल्कि पारंपरिक और स्थानीय किस्मों को भुला दिए जाने से बचाना है।
यही वजह है कि आज उन्हें ‘बनाना मैन ऑफ इंडिया’ भी कहा जाता है। लेकिन विनोद के लिए यह नाम कोई तमगा नहीं, बल्कि एक भावनात्मक पहचान है। वे मुस्कुराते हुए कहते हैं, “मुझे सबसे ज़्यादा खुशी तब होती है जब लोग मेरे गाँव का नाम सुनकर कहते हैं-‘वहाँ वो केले वाले किसान हैं ना?’ समाज का यह सम्मान मेरे लिए सबसे बड़ी कमाई है।”
इस सफर में अब उनकी अगली पीढ़ी भी उनके साथ खड़ी है। उनके बेटे अनीश नायर, जो खुद इंजीनियर हैं, अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ाने में जुट गए हैं। अनीश कहते हैं, “खेती करने की प्रेरणा मुझे अपने पिता से मिली। यह शायद भारत का इकलौता खेत है जहाँ एक किसान व्यक्तिगत स्तर पर इतनी बड़ी संख्या में केले की किस्मों का संरक्षण कर रहा है। यही मेरी सबसे बड़ी प्रेरणा है।”
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अनीश ने खेती को सिर्फ भावनाओं तक सीमित नहीं रखा। उन्होंने केले से बनने वाले उप-उत्पादों पर काम शुरू किया, जैसे केले के फाइबर से बने उत्पाद, पारंपरिक व्यंजन और एग्ज़ीबिशन के ज़रिये लोगों तक इन किस्मों की जानकारी पहुँचाना। इससे खेत को आर्थिक मजबूती भी मिली और संरक्षण के काम को आगे बढ़ाने की ताकत भी।
विनोद का सपना अब और बड़ा हो चुका है। वे एक ‘केला ग्राम’ बनाने की कल्पना कर रहे हैं। उनका कहना है, “अगर किसी गाँव में 100 घर हैं, तो हम उन 100 घरों को 100 अलग-अलग किस्मों के केले देंगे। तीन-चार साल में वह पूरा गाँव एक केला ग्राम बन जाएगा।” यह सपना सिर्फ खेती का नहीं, बल्कि सामूहिक संरक्षण का है, जहाँ हर परिवार प्रकृति की एक धरोहर का रखवाला बने।
विनोद सहदेवन नायर की कहानी हमें यह याद दिलाती है कि भारत के गाँवों में आज भी ऐसे लोग हैं, जो चुपचाप हमारी जैव विविधता को बचाए रखने में लगे हैं। अनाज हों, फल हों या सब्जियाँ, न जाने कितनी देसी किस्में हैं, जो सिर्फ ऐसे ही जुनूनी लोगों की वजह से ज़िंदा हैं। यह कहानी एक किसान की नहीं, बल्कि उस सोच की है, जो कहती है कि अगर हम अपनी जड़ों को बचा लें, तो भविष्य खुद-ब-खुद फलने-फूलने लगता है।