पद्मश्री किसान चेरुवायल के रमन: जिन्होंने खेती को मुनाफ़ा नहीं, विरासत माना
Gaon Connection | Dec 23, 2025, 14:21 IST
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पद्मश्री चेरुवायल के रमन- एक आदिवासी किसान, जिन्होंने पिछले 35 वर्षों से देसी बीजों को बचाने को अपना जीवन बना लिया। जब हाइब्रिड बीजों की दौड़ में पारंपरिक किस्में ग़ायब हो रही थीं, तब रमन चुपचाप धान, सब्ज़ियों, पशु नस्लों और स्वाद की विरासत को सहेजते रहे।
<p>वायनाड की पहाड़ियों में, मिट्टी की दीवारों और फूस की छत के नीचे, एक आदमी चुपचाप खेती का खज़ाना सहेज रहा है।<br></p>
केरल के वायनाड ज़िले की पहाड़ियों में बसा कमन्ना गाँव बाहर से देखने में किसी आम आदिवासी बस्ती जैसा लगता है। चारों तरफ हरियाली, मिट्टी की दीवारों वाले घर, फूस की छतें और सुबह-शाम खेतों की ओर जाते लोग। लेकिन इसी गाँव में एक ऐसा घर है, जहाँ देश के अलग-अलग हिस्सों से किसान, वैज्ञानिक, छात्र और शोधकर्ता खिंचे चले आते हैं। वे यहाँ किसी बड़े संस्थान या प्रयोगशाला को देखने नहीं आते, बल्कि एक आदिवासी किसान से मिलने आते हैं चेरुवयल के रमन से। एक ऐसे व्यक्ति से, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी देसी बीजों को बचाने के नाम कर दी।
चेरुवायल के रमन कुरुचिया जनजाति से आते हैं। खेती उनके लिए पेशा नहीं, जीवन है। उन्होंने बहुत छोटी उम्र में खेत संभाल लिया था। वही खेत, वही मिट्टी, वही धान जो पीढ़ियों से उनके परिवार और समुदाय का हिस्सा रहे हैं। लेकिन समय के साथ उन्होंने एक बड़ा बदलाव देखा। उनके गाँव और आसपास के इलाकों में किसान धीरे-धीरे देसी बीज छोड़कर हाइब्रिड और बाज़ार से आने वाले बीजों की ओर बढ़ने लगे। शुरुआत में यह बदलाव आकर्षक लगा, ज़्यादा पैदावार, जल्दी फसल, ज़्यादा मुनाफ़े का वादा। लेकिन रमन ने जल्द ही इसके ख़तरे को पहचान लिया। उन्हें समझ आ गया कि अगर यह सिलसिला यूँ ही चलता रहा, तो आने वाली पीढ़ियाँ देसी बीजों का नाम भी नहीं जान पाएँगी।
यहीं से शुरू होती है उनकी वह लड़ाई, जो आज एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि पूरे देश की कृषि विरासत की लड़ाई बन चुकी है। रमन कहते हैं, "बीज सिर्फ़ खेती का साधन नहीं होते, वे संस्कृति, स्वाद, स्मृति और स्वास्थ्य का आधार होते हैं। हर देसी धान की किस्म अपने साथ एक कहानी लेकर आती है, किसी इलाके की मिट्टी की, किसी नदी की, किसी मौसम की। जब एक किस्म खत्म होती है, तो सिर्फ़ एक बीज नहीं मरता, बल्कि उससे जुड़े व्यंजन, त्योहार, लोकज्ञान और पोषण भी खो जाता है।"
करीब 35 साल पहले रमन ने तय किया कि वे देसी बीजों को इकट्ठा करेंगे, उन्हें उगाएंगे, संभालेंगे और आगे बाँटेंगे। यह काम आसान नहीं था। न उनके पास पैसा था, न कोई सरकारी ढांचा। बस थी उनकी ज़िद और प्रकृति के प्रति गहरी श्रद्धा। वे अलग-अलग गाँवों में जाते, बुज़ुर्ग किसानों से पुराने बीजों के बारे में पूछते, कहीं से थोड़ी सी पोटली में बीज लाते और उन्हें अपने खेत में उगाकर फिर से जीवित करते। कई बार फसल खराब हुई, कई बार लोगों ने उनका मज़ाक उड़ाया। लेकिन रमन रुके नहीं।
आज उनके पास देसी धान की सैकड़ों किस्मों का संग्रह है। उनका मिट्टी और फूस से बना घर किसी संग्रहालय से कम नहीं। उसकी दीवारों के भीतर सिर्फ़ बीज नहीं रखे हैं, बल्कि देश की खाद्य सुरक्षा का भविष्य सहेजा गया है। यही वजह है कि सरकार से लेकर किसान संगठनों तक, हर कोई उनके काम को मान्यता देता है। हाल ही में उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया गया। लेकिन रमन के लिए ये सम्मान कभी उद्देश्य नहीं रहे। वे खुद कहते हैं कि उनके घर की अलमारी भले अवॉर्ड्स से भरी हो, लेकिन असली संतोष तब मिलता है जब कोई किसान आकर कहता है कि उसकी फसल देसी बीजों से फिर से ज़िंदा हो गई।
रमन कहते हैं, "प्रकृति ने जो हमें दिया है, वही हमारे शरीर और समाज के लिए सबसे बेहतर है। वे सिर्फ़ देसी धान ही नहीं, बल्कि देसी सब्ज़ियाँ, देसी मुर्गी, पशुओं की पारंपरिक नस्लें और खेती के पुराने तरीक़े भी बचाने की कोशिश कर रहे हैं।" उनके लिए यह सब स्वास्थ्य की लड़ाई है, उस भोजन के खिलाफ़, जो रासायनिक खेती और कृत्रिम तकनीक से पैदा होता है, जिसमें पैदावार तो होती है, लेकिन पोषण और आत्मा दोनों खो जाते हैं।
इस संघर्ष में वे अकेले नहीं हैं। आसपास के किसान, स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थी और पर्यावरण कार्यकर्ता उनके साथ जुड़ते जा रहे हैं। बच्चे उनके खेतों में आकर बीजों को छूते हैं, उन्हें बोते हैं और समझते हैं कि खेती सिर्फ़ मशीन और खाद का खेल नहीं है, बल्कि धरती के साथ रिश्ते का नाम है। यही वजह है कि रमन का खेत अब एक अनौपचारिक पाठशाला बन चुका है, जहाँ किताबों से ज़्यादा मिट्टी सिखाती है।
आज जब जलवायु परिवर्तन, सूखा, बाढ़ और बाज़ार की अनिश्चितता खेती को सबसे बड़ा संकट बना रही है, तब चेरुवयल के रमन जैसे लोग हमें याद दिलाते हैं कि समाधान कहीं बाहर नहीं, बल्कि हमारी जड़ों में छुपा है। अगर देसी बीज नहीं बचे, तो सिर्फ़ खेती नहीं टूटेगी, हमारी थाली, हमारी सेहत और हमारी पहचान भी टूट जाएगी। इसीलिए यह लड़ाई सिर्फ़ एक किसान की नहीं, बल्कि हमारे बच्चों और आने वाली पीढ़ियों के भविष्य की लड़ाई है।
वायनाड की उन पहाड़ियों में, मिट्टी की दीवारों और फूस की छत के नीचे, एक आदमी चुपचाप खेती का खज़ाना सहेज रहा है। बिना शोर, बिना बाज़ार, बिना लालच। यही चेरुवयल के रमन हैं और यही असली खेती का भविष्य है।
चेरुवायल के रमन कुरुचिया जनजाति से आते हैं। खेती उनके लिए पेशा नहीं, जीवन है। उन्होंने बहुत छोटी उम्र में खेत संभाल लिया था। वही खेत, वही मिट्टी, वही धान जो पीढ़ियों से उनके परिवार और समुदाय का हिस्सा रहे हैं। लेकिन समय के साथ उन्होंने एक बड़ा बदलाव देखा। उनके गाँव और आसपास के इलाकों में किसान धीरे-धीरे देसी बीज छोड़कर हाइब्रिड और बाज़ार से आने वाले बीजों की ओर बढ़ने लगे। शुरुआत में यह बदलाव आकर्षक लगा, ज़्यादा पैदावार, जल्दी फसल, ज़्यादा मुनाफ़े का वादा। लेकिन रमन ने जल्द ही इसके ख़तरे को पहचान लिया। उन्हें समझ आ गया कि अगर यह सिलसिला यूँ ही चलता रहा, तो आने वाली पीढ़ियाँ देसी बीजों का नाम भी नहीं जान पाएँगी।
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यहीं से शुरू होती है उनकी वह लड़ाई, जो आज एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि पूरे देश की कृषि विरासत की लड़ाई बन चुकी है। रमन कहते हैं, "बीज सिर्फ़ खेती का साधन नहीं होते, वे संस्कृति, स्वाद, स्मृति और स्वास्थ्य का आधार होते हैं। हर देसी धान की किस्म अपने साथ एक कहानी लेकर आती है, किसी इलाके की मिट्टी की, किसी नदी की, किसी मौसम की। जब एक किस्म खत्म होती है, तो सिर्फ़ एक बीज नहीं मरता, बल्कि उससे जुड़े व्यंजन, त्योहार, लोकज्ञान और पोषण भी खो जाता है।"
करीब 35 साल पहले रमन ने तय किया कि वे देसी बीजों को इकट्ठा करेंगे, उन्हें उगाएंगे, संभालेंगे और आगे बाँटेंगे। यह काम आसान नहीं था। न उनके पास पैसा था, न कोई सरकारी ढांचा। बस थी उनकी ज़िद और प्रकृति के प्रति गहरी श्रद्धा। वे अलग-अलग गाँवों में जाते, बुज़ुर्ग किसानों से पुराने बीजों के बारे में पूछते, कहीं से थोड़ी सी पोटली में बीज लाते और उन्हें अपने खेत में उगाकर फिर से जीवित करते। कई बार फसल खराब हुई, कई बार लोगों ने उनका मज़ाक उड़ाया। लेकिन रमन रुके नहीं।
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आज उनके पास देसी धान की सैकड़ों किस्मों का संग्रह है। उनका मिट्टी और फूस से बना घर किसी संग्रहालय से कम नहीं। उसकी दीवारों के भीतर सिर्फ़ बीज नहीं रखे हैं, बल्कि देश की खाद्य सुरक्षा का भविष्य सहेजा गया है। यही वजह है कि सरकार से लेकर किसान संगठनों तक, हर कोई उनके काम को मान्यता देता है। हाल ही में उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया गया। लेकिन रमन के लिए ये सम्मान कभी उद्देश्य नहीं रहे। वे खुद कहते हैं कि उनके घर की अलमारी भले अवॉर्ड्स से भरी हो, लेकिन असली संतोष तब मिलता है जब कोई किसान आकर कहता है कि उसकी फसल देसी बीजों से फिर से ज़िंदा हो गई।
रमन कहते हैं, "प्रकृति ने जो हमें दिया है, वही हमारे शरीर और समाज के लिए सबसे बेहतर है। वे सिर्फ़ देसी धान ही नहीं, बल्कि देसी सब्ज़ियाँ, देसी मुर्गी, पशुओं की पारंपरिक नस्लें और खेती के पुराने तरीक़े भी बचाने की कोशिश कर रहे हैं।" उनके लिए यह सब स्वास्थ्य की लड़ाई है, उस भोजन के खिलाफ़, जो रासायनिक खेती और कृत्रिम तकनीक से पैदा होता है, जिसमें पैदावार तो होती है, लेकिन पोषण और आत्मा दोनों खो जाते हैं।
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इस संघर्ष में वे अकेले नहीं हैं। आसपास के किसान, स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थी और पर्यावरण कार्यकर्ता उनके साथ जुड़ते जा रहे हैं। बच्चे उनके खेतों में आकर बीजों को छूते हैं, उन्हें बोते हैं और समझते हैं कि खेती सिर्फ़ मशीन और खाद का खेल नहीं है, बल्कि धरती के साथ रिश्ते का नाम है। यही वजह है कि रमन का खेत अब एक अनौपचारिक पाठशाला बन चुका है, जहाँ किताबों से ज़्यादा मिट्टी सिखाती है।
आज जब जलवायु परिवर्तन, सूखा, बाढ़ और बाज़ार की अनिश्चितता खेती को सबसे बड़ा संकट बना रही है, तब चेरुवयल के रमन जैसे लोग हमें याद दिलाते हैं कि समाधान कहीं बाहर नहीं, बल्कि हमारी जड़ों में छुपा है। अगर देसी बीज नहीं बचे, तो सिर्फ़ खेती नहीं टूटेगी, हमारी थाली, हमारी सेहत और हमारी पहचान भी टूट जाएगी। इसीलिए यह लड़ाई सिर्फ़ एक किसान की नहीं, बल्कि हमारे बच्चों और आने वाली पीढ़ियों के भविष्य की लड़ाई है।
वायनाड की उन पहाड़ियों में, मिट्टी की दीवारों और फूस की छत के नीचे, एक आदमी चुपचाप खेती का खज़ाना सहेज रहा है। बिना शोर, बिना बाज़ार, बिना लालच। यही चेरुवयल के रमन हैं और यही असली खेती का भविष्य है।