जहाँ लोग रिटायर होकर आराम ढूंढते हैं, वहाँ जगत सिंह ने जंगल उगा दिया
Gaon Connection | Dec 16, 2025, 17:09 IST
( Image credit : Gaon Connection Network, Gaon Connection )
रुद्रप्रयाग के एक छोटे से गाँव में, एक BSF जवान ने एक महिला की दर्दनाक मौत को सिर्फ याद नहीं रखा, उसने उसे बदलाव की जड़ बना दिया। सेवानिवृत्ति के बाद जहाँ लोग आराम की तलाश करते हैं, वहीं जगत सिंह चौधरी, जिन्हें लोग प्यार से ‘जंगली दादा’ कहते हैं, ने अपनी बंजर ज़मीन पर जंगल उगा दिया।
<p>आज वही ज़मीन, जो कभी सूखी और वीरान थी, अब 70 से अधिक प्रजातियों के लाखों पेड़ों से लहलहा रही है। <br></p>
कभी–कभी किसी एक घटना का दर्द पूरी ज़िंदगी की दिशा बदल देता है। रुद्रप्रयाग ज़िले के छोटे से गाँव कोटमल्ला में भी कुछ ऐसा ही हुआ था। लगभग 40 साल पहले की बात है, जब सीमा सुरक्षा बल (BSF) का एक जवान छुट्टी लेकर अपने गाँव लौटा। उसका नाम था जगत सिंह चौधरी। वर्दी में देश की रक्षा करने वाला यह जवान, उस दिन अपने ही गाँव की एक सच्चाई से रूबरू हुआ, जिसने उसे भीतर तक झकझोर दिया।
गाँव की एक महिला रोज़ की तरह चारा और लकड़ी लाने के लिए पहाड़ों की पगडंडियों पर निकली थी। जंगल गाँव से करीब दस किलोमीटर दूर था। रास्ता कठिन था, ढलान भरी थी, और पैरों के नीचे भरोसेमंद ज़मीन नहीं थी। उसी रास्ते में उसका पैर फिसला और वह कभी घर वापस नहीं लौटी। उसकी मौत कोई अपवाद नहीं थी। गाँव की महिलाओं के लिए जंगल जाना, चोट लगना, गिरना या जान गंवाना, जैसे रोज़मर्रा की कहानी बन चुका था। आसपास की ज़मीन बंजर थी, पेड़ नहीं थे, और ज़रूरतें पूरी करने के लिए जंगल ही एकमात्र सहारा था।
यह हादसा जगत सिंह के मन में घर कर गया। उन्होंने सोचा, अगर गाँव के पास ही चारा और ईंधन मिल जाए, तो महिलाओं को इतनी दूर क्यों जाना पड़े? अगर जंगल गाँव के आसपास हो, तो शायद किसी माँ, बहन या बेटी को अपनी जान न गंवानी पड़े। यही सवाल, यही बेचैनी, उनके जीवन का नया उद्देश्य बन गई।
लोगों ने उन्हें तब समझा नहीं। कोई उन्हें अजीब कहता, कोई पागल। धीरे-धीरे गाँव में उनका नाम पड़ गया - “जंगली दादा”। जंगल से प्रेम करने वाला, जंगल के लिए जीने वाला, और जंगल को जन्म देने का सपना देखने वाला इंसान।
BSF की नौकरी के दौरान जब भी उन्हें एक-दो महीने की छुट्टी मिलती, वे उसे आराम में नहीं बिताते। वे पहाड़ की उस बंजर ज़मीन पर लौट आते, जो कभी किसी के काम की नहीं मानी जाती थी। हाथ में फावड़ा, कंधे पर बोरी, और मन में एक ही संकल्प, यहाँ जंगल उगाना है।
सेवानिवृत्ति के बाद, जब ज़्यादातर लोग आराम की तलाश करते हैं, जगत सिंह ने अपनी पूरी ऊर्जा प्रकृति की सेवा में झोंक दी। उन्होंने अपनी डेढ़ हेक्टेयर बंजर ज़मीन को जंगल में बदलने की ठान ली। कोई सरकारी योजना नहीं, कोई बड़ी मशीन नहीं, बस उनके हाथ, उनका धैर्य और प्रकृति पर भरोसा।
वे अलग-अलग जगहों से बीज लाते, पौधों को नर्सरी में उगाते, गड्ढे खोदते और उन्हें अपने हाथों से रोपते। कई बार बारिश नहीं होती थी, कई बार पौधे सूख जाते थे। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। वे कहते हैं, “जब आप एक पौधा लगाते हैं और उसे बड़ा होते देखते हैं, तो मन अपने आप खुश हो जाता है। फिर दिल करता है एक और लगाऊँ, फिर एक और।” यही भावना उनके साथ सालों तक चलती रही।
आज वही ज़मीन, जो कभी सूखी और वीरान थी, अब 70 से अधिक प्रजातियों के लाखों पेड़ों से लहलहा रही है। देवदार, बांज, चीड़, काफल, बुरांश और ओक जैसे पहाड़ी पेड़ वहाँ खड़े हैं, मानो पहाड़ ने फिर से साँस लेना शुरू कर दिया हो।
इस जंगल ने सिर्फ हरियाली नहीं लौटाई, बल्कि जीवन भी बदला। अब गाँव की महिलाओं को दूर जंगल नहीं जाना पड़ता। चारा, ईंधन और घास गाँव के आसपास ही उपलब्ध है। गिरने का डर कम हुआ, शारीरिक कष्ट घटा, और सबसे बड़ी बात, महिलाओं को अपने बच्चों और घर पर ज़्यादा समय देने का मौका मिला।
गाँव की जसुली देवी बताती हैं, “पहले बहुत दूर जाना पड़ता था। अब यहीं सब मिल जाता है। अब तो घर बैठे कमाई भी हो रही है।”
जगत सिंह की कोशिश सिर्फ पेड़ लगाने तक सीमित नहीं रही। उन्होंने समझा कि पर्यावरण तभी बचेगा, जब लोग उसके साथ जुड़ेंगे। उन्होंने गाँव वालों को पानी बचाने, जैविक खेती अपनाने, मधुमक्खी पालन और सौर ऊर्जा जैसे नए रास्तों पर चलने के लिए प्रेरित किया।
धीरे-धीरे उनका जंगल एक सीखने की जगह बन गया - “पर्यावरण की पाठशाला”। आज देशभर से बच्चे, स्कूल और कॉलेज के छात्र यहाँ आते हैं। अब तक 50,000 से ज़्यादा विद्यार्थी इस जंगल को देखकर, छूकर और समझकर पर्यावरण का पाठ सीख चुके हैं।
जगत सिंह का बेटा, देव राघवेंद्र, अपने पिता के इस काम को आगे बढ़ा रहे हैं। वे कहते हैं, “जो प्रेरणा हमें मिली है, वो पिता से मिली है। अब हमारा संकल्प है कि इस मॉडल को पूरे देश में फैलाया जाए, ताकि बच्चे अपने जल, जंगल और ज़मीन से रिश्ता जोड़ सकें।”
आज जिस शब्द को हम असभ्य या पिछड़ा मानते हैं- “जंगली” उसे जगत सिंह ने एक नई पहचान दी है। उनके लिए जंगली होने का मतलब है प्रकृति से जुड़ा होना, उसे समझना और उसे अगली पीढ़ी के लिए बचाकर रखना।
उनका उगाया जंगल सिर्फ पेड़ों का समूह नहीं है। यह उस महिला की स्मृति है, जिसकी मौत ने इस संकल्प को जन्म दिया। यह उन महिलाओं की सुरक्षा है, जो अब सुरक्षित रास्तों पर चल रही हैं। यह उन बच्चों की उम्मीद है, जो सीख रहे हैं कि विकास का मतलब सिर्फ कंक्रीट नहीं, बल्कि हरियाली भी है।
जहाँ हम ‘सोफिस्टिकेटेड’ को आधुनिकता का पैमाना मानते हैं, वहीं जंगली दादा ने अपने हाथों से उगाए जंगल से दुनिया को सिखाया है कि असली सभ्यता प्रकृति के साथ चलने में है, गाँव से, जंगल से, और इंसानियत से।
गाँव की एक महिला रोज़ की तरह चारा और लकड़ी लाने के लिए पहाड़ों की पगडंडियों पर निकली थी। जंगल गाँव से करीब दस किलोमीटर दूर था। रास्ता कठिन था, ढलान भरी थी, और पैरों के नीचे भरोसेमंद ज़मीन नहीं थी। उसी रास्ते में उसका पैर फिसला और वह कभी घर वापस नहीं लौटी। उसकी मौत कोई अपवाद नहीं थी। गाँव की महिलाओं के लिए जंगल जाना, चोट लगना, गिरना या जान गंवाना, जैसे रोज़मर्रा की कहानी बन चुका था। आसपास की ज़मीन बंजर थी, पेड़ नहीं थे, और ज़रूरतें पूरी करने के लिए जंगल ही एकमात्र सहारा था।
( Image credit : Gaon Connection Network, Gaon Connection )
यह हादसा जगत सिंह के मन में घर कर गया। उन्होंने सोचा, अगर गाँव के पास ही चारा और ईंधन मिल जाए, तो महिलाओं को इतनी दूर क्यों जाना पड़े? अगर जंगल गाँव के आसपास हो, तो शायद किसी माँ, बहन या बेटी को अपनी जान न गंवानी पड़े। यही सवाल, यही बेचैनी, उनके जीवन का नया उद्देश्य बन गई।
लोगों ने उन्हें तब समझा नहीं। कोई उन्हें अजीब कहता, कोई पागल। धीरे-धीरे गाँव में उनका नाम पड़ गया - “जंगली दादा”। जंगल से प्रेम करने वाला, जंगल के लिए जीने वाला, और जंगल को जन्म देने का सपना देखने वाला इंसान।
दर्द से शुरू हुई साधना
सेवानिवृत्ति के बाद, जब ज़्यादातर लोग आराम की तलाश करते हैं, जगत सिंह ने अपनी पूरी ऊर्जा प्रकृति की सेवा में झोंक दी। उन्होंने अपनी डेढ़ हेक्टेयर बंजर ज़मीन को जंगल में बदलने की ठान ली। कोई सरकारी योजना नहीं, कोई बड़ी मशीन नहीं, बस उनके हाथ, उनका धैर्य और प्रकृति पर भरोसा।
( Image credit : Gaon Connection Network, Gaon Connection )
वे अलग-अलग जगहों से बीज लाते, पौधों को नर्सरी में उगाते, गड्ढे खोदते और उन्हें अपने हाथों से रोपते। कई बार बारिश नहीं होती थी, कई बार पौधे सूख जाते थे। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। वे कहते हैं, “जब आप एक पौधा लगाते हैं और उसे बड़ा होते देखते हैं, तो मन अपने आप खुश हो जाता है। फिर दिल करता है एक और लगाऊँ, फिर एक और।” यही भावना उनके साथ सालों तक चलती रही।
बंजर ज़मीन से घना जंगल
इस जंगल ने सिर्फ हरियाली नहीं लौटाई, बल्कि जीवन भी बदला। अब गाँव की महिलाओं को दूर जंगल नहीं जाना पड़ता। चारा, ईंधन और घास गाँव के आसपास ही उपलब्ध है। गिरने का डर कम हुआ, शारीरिक कष्ट घटा, और सबसे बड़ी बात, महिलाओं को अपने बच्चों और घर पर ज़्यादा समय देने का मौका मिला।
गाँव की जसुली देवी बताती हैं, “पहले बहुत दूर जाना पड़ता था। अब यहीं सब मिल जाता है। अब तो घर बैठे कमाई भी हो रही है।”
जंगल से आगे की सोच
( Image credit : Gaon Connection Network, Gaon Connection )
धीरे-धीरे उनका जंगल एक सीखने की जगह बन गया - “पर्यावरण की पाठशाला”। आज देशभर से बच्चे, स्कूल और कॉलेज के छात्र यहाँ आते हैं। अब तक 50,000 से ज़्यादा विद्यार्थी इस जंगल को देखकर, छूकर और समझकर पर्यावरण का पाठ सीख चुके हैं।
जगत सिंह का बेटा, देव राघवेंद्र, अपने पिता के इस काम को आगे बढ़ा रहे हैं। वे कहते हैं, “जो प्रेरणा हमें मिली है, वो पिता से मिली है। अब हमारा संकल्प है कि इस मॉडल को पूरे देश में फैलाया जाए, ताकि बच्चे अपने जल, जंगल और ज़मीन से रिश्ता जोड़ सकें।”
‘जंगली’ शब्द का नया अर्थ
उनका उगाया जंगल सिर्फ पेड़ों का समूह नहीं है। यह उस महिला की स्मृति है, जिसकी मौत ने इस संकल्प को जन्म दिया। यह उन महिलाओं की सुरक्षा है, जो अब सुरक्षित रास्तों पर चल रही हैं। यह उन बच्चों की उम्मीद है, जो सीख रहे हैं कि विकास का मतलब सिर्फ कंक्रीट नहीं, बल्कि हरियाली भी है।
जहाँ हम ‘सोफिस्टिकेटेड’ को आधुनिकता का पैमाना मानते हैं, वहीं जंगली दादा ने अपने हाथों से उगाए जंगल से दुनिया को सिखाया है कि असली सभ्यता प्रकृति के साथ चलने में है, गाँव से, जंगल से, और इंसानियत से।