जब शहर थमे, प्रकृति बदली, लॉकडाउन में चिड़ियाँ फिर जंगल जैसी क्यों हो गईं?

Manvendra Singh | Dec 22, 2025, 19:50 IST
Image credit : Gaon Connection Network, Gaon Connection

लॉकडाउन के दौरान पक्षियों को फिर से बीज, कीड़े और प्राकृतिक स्रोतों पर निर्भर होना पड़ा, जिसके लिए लंबी और पतली चोंच ज़्यादा उपयोगी साबित होती है। वैज्ञानिक मानते हैं कि यही बदलाव चोंच की बनावट में दिखा।

<p>रिसर्च के नतीजे चौंकाने वाले थे। लॉकडाउन के दौरान, यानी 2020 और 2021 में जन्मी चिड़ियों की चोंच शहर जैसी नहीं, बल्कि जंगल में रहने वाले जंको जैसी हो गई थी। यह बदलाव उन पक्षियों में साफ़ दिखा, जिन्होंने अपनी शुरुआती ज़िंदगी कम इंसानी गतिविधियों के बीच बिताई थी।<br></p>
COVID-19 महामारी को पूरी दुनिया एक स्वास्थ्य संकट के तौर पर याद करती है, लेकिन यही वो वक़्त था जब विज्ञान को एक ऐसा मौका मिला जब इंसानी गतिविधियाँ थम गयी थी, और प्रकृति खुद को संभालने में लग गयी थी। जब इंसान अचानक शहरों से गायब हुआ, सड़कें सूनी पड़ीं, दफ्तर, कॉलेज और कैंपस बंद हो गए, तब प्रकृति को एक अलग ही माहौल मिला। इसी असामान्य दौर में यह साफ़ दिखाई दिया कि इंसान की मौजूदगी या गैर-मौजूदगी सिर्फ जानवरों के व्यवहार को नहीं, बल्कि उनके शरीर की बनावट तक को बदल सकती है।

अमेरिका के प्रतिष्ठित जर्नल PNAS में प्रकाशित एक नई रिसर्च इसी ओर इशारा करती है और बताती है कि COVID लॉकडाउन ने शहर में रहने वाली चिड़ियों की चोंच तक बदल दी।

इस अध्ययन का केंद्र एक छोटी-सी चिड़िया है, डार्क-आइड जंको, जो अमेरिका के जंगलों के साथ-साथ पिछले कई दशकों से लॉस एंजेलिस जैसे शहरों में भी रह रही है। वैज्ञानिक पहले से जानते थे कि शहर और जंगल में रहने वाले जंको पक्षियों में फर्क होता है, खासकर उनकी चोंच के आकार और बनावट में। शहर के जंको की चोंच आमतौर पर छोटी और मोटी होती है, जबकि जंगल के जंको की चोंच लंबी और पतली पाई जाती है। इस फर्क की एक बड़ी वजह इंसानों द्वारा पैदा किया गया भोजन और कचरा माना जाता रहा है, जो शहरों में पक्षियों के लिए आसानी से उपलब्ध रहता है।

मार्च 2020 में जब अमेरिका में COVID लॉकडाउन शुरू हुआ, उसी समय UCLA कैंपस में जंको पक्षियों का प्रजनन काल शुरू होने वाला था। कैंपस बंद हो गया, छात्र गायब हो गए, कैंटीन और डाइनिंग हॉल बंद हो गए और खाने का जैविक कचरा लगभग खत्म हो गया। वैज्ञानिक इस दौर को “एंथ्रोपॉज” कहते हैं, यानी इंसानी गतिविधियों में आई ऐतिहासिक ठहराव। UCLA में 2018 से चल रही लम्बी स्टडी के तहत वैज्ञानिकों ने 2018 से 2025 तक पक्षियों को पकड़ा, उनकी उम्र जानी और उनकी चोंच, पैर और शरीर के माप लिए। इसके बाद अलग-अलग वर्षों में जन्मे पक्षियों की तुलना की गई।

रिसर्च के नतीजे चौंकाने वाले थे। लॉकडाउन के दौरान, यानी 2020 और 2021 में जन्मी चिड़ियों की चोंच शहर जैसी नहीं, बल्कि जंगल में रहने वाले जंको जैसी हो गई थी। यह बदलाव उन पक्षियों में साफ़ दिखा, जिन्होंने अपनी शुरुआती ज़िंदगी कम इंसानी गतिविधियों के बीच बिताई थी। जैसे ही 2022 के बाद कैंपस खुले, लोग लौटे और खाने का कचरा फिर बढ़ा, नई पीढ़ी की चोंच कुछ ही वर्षों में दोबारा शहर जैसी बनने लगी। यानी इंसान गया तो चोंच बदली और इंसान लौटा तो चोंच फिर बदल गई।

यह अध्ययन इसलिए भी अहम है क्योंकि अब तक लॉकडाउन के दौरान जानवरों के व्यवहार में बदलाव की कई रिपोर्टें सामने आई थीं, लेकिन शरीर की बनावट में इतना तेज़ बदलाव पहली बार साफ़ तौर पर दर्ज किया गया है। रिसर्च की सह-लेखिका प्रोफेसर पामेला येह के अनुसार, यह दिखाता है कि इंसान जानवरों के जीवन को कितनी गहराई तक प्रभावित करता है। चिड़ियों की चोंच सिर्फ एक अंग नहीं होती, बल्कि उनके खाने, जीने और बचने का सबसे अहम औज़ार होती है। जिस तरह का खाना मिलता है, उसी के अनुसार चोंच का आकार और बनावट विकसित होती है।

शहरों में आमतौर पर चिड़ियों को नरम और आसानी से मिलने वाला खाना मिलता है, जैसे इंसानों का बचा हुआ भोजन और कचरा, जिसके लिए छोटी और मोटी चोंच फायदेमंद होती है। लॉकडाउन के दौरान यह सब अचानक खत्म हो गया और पक्षियों को फिर से बीज, कीड़े और प्राकृतिक स्रोतों पर निर्भर होना पड़ा, जिसके लिए लंबी और पतली चोंच ज़्यादा उपयोगी साबित होती है। वैज्ञानिक मानते हैं कि यही बदलाव चोंच की बनावट में दिखा।

यह कहानी सिर्फ अमेरिका तक सीमित नहीं है। भारत के संदर्भ में इसके मायने और भी गहरे हैं। भारत में 2011 की जनगणना के अनुसार करीब 31 प्रतिशत आबादी शहरों में रहती है और संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि 2035 तक यह आंकड़ा 40 प्रतिशत से ज़्यादा हो सकता है। केंद्रीय आवास और शहरी कार्य मंत्रालय के मुताबिक भारत में हर साल छह करोड़ टन से अधिक जैविक कचरा निकलता है। यह कचरा कबूतर, कौआ, मैना और अन्य शहरी जीवों के भोजन का बड़ा स्रोत बन चुका है।

भारत में भी लॉकडाउन के दौरान ऐसे संकेत देखने को मिले थे। बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी और अन्य संगठनों ने शहरों में पक्षियों की संख्या बढ़ने और नई प्रजातियाँ दिखने की रिपोर्ट दी थी। हालांकि वाइल्ड लाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया के साइंटिस्ट आर सुरेश कुमार ने गाँव कनेक्शन को बताया, "भारत में अब तक शहरी जीवों के शरीर की बनावट में बदलाव पर लंबी अवधि के अध्ययन लगभग न के बराबर है" लेकिन अमेरिकी रिसर्च बताती है कि अगर इस दिशा में निगरानी की जाए, तो ऐसे बदलाव यहाँ भी दर्ज किए जा सकते हैं।

वैज्ञानिक इस बदलाव को लेकर तीन संभावनाएँ बताते हैं। पहली, तेज़ प्राकृतिक चयन, जिसमें बदले माहौल में बेहतर ढलने वाले पक्षी ज़्यादा सफल रहे। दूसरी, प्लास्टिसिटी यानी शरीर का लचीलापन, जिसमें बचपन में मिलने वाले खाने के अनुसार शरीर ढल गया। तीसरी, इन दोनों का मिला-जुला असर। ICAR और ICMR से जुड़े कुछ भारतीय अध्ययनों में भी माना गया है कि पर्यावरणीय बदलाव जीवों की संरचना को प्रभावित कर सकते हैं, लेकिन शहरी संदर्भ में अभी और अध्यन की ज़रूरत है।

यह रिसर्च एक बड़ा सवाल खड़ा करती है कि क्या शहरों में रहने वाले जीव हमारी आदतों, कचरे और जीवनशैली के हिसाब से खुद को बदलने को मजबूर हो रहे हैं। विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि यह सिर्फ पक्षियों की कहानी नहीं है, बल्कि भविष्य के मानव-वन्यजीव संघर्ष, बीमारियों के फैलाव और इकोसिस्टम के असंतुलन से भी जुड़ा मामला है।

भारत जैसे देश के लिए यह अध्ययन नीति-निर्माताओं को भी संदेश देता है कि शहरी कचरा प्रबंधन सिर्फ सफ़ाई या सुविधा का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह जैव विविधता और पर्यावरण से सीधे जुड़ा है। स्मार्ट सिटी और शहरी विकास योजनाओं में मानव और प्रकृति के संतुलन को गंभीरता से समझना होगा। COVID लॉकडाउन ने ये दिखा दिया कि जब इंसान पीछे हटता है, तो प्रकृति तुरंत प्रतिक्रिया देती है, और जब इंसान लौटता है, तो बदलाव फिर पलट सकते हैं। यह कहानी सिर्फ एक चिड़िया की नहीं, बल्कि हमारे शहरों, हमारी आदतों और हमारे भविष्य की कहानी है।
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