प्रजातंत्र की जिम्मेदारी: सत्ता पक्ष ही नहीं, विपक्ष भी जवाबदेह है
Dr SB Misra | Jul 26, 2025, 11:06 IST
भारतीय लोकतंत्र की सफलता सिर्फ सत्ता पक्ष पर नहीं, बल्कि विपक्ष की जिम्मेदारी पर भी निर्भर करती है। लेकिन जब संसद में चर्चा की जगह शोरगुल और सड़क पर केवल लांछन दिखाई दे, तो यह सोचने का समय है कि क्या हम अपने लोकतांत्रिक आदर्शों से भटक रहे हैं।
प्रजातंत्र में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों से अपेक्षा रहती है कि वे प्रामाणिक और ज़िम्मेदार वक्तव्य देंगे। लेकिन हमारे देश में विपक्ष शायद यह समझता है कि जवाबदेही केवल सत्ता पक्ष की है और विपक्ष के लिए आवश्यक नहीं कि वह तथ्यात्मक बातें करे। जब विपक्ष से ऐसे वक्तव्य आते हैं कि महाराष्ट्र और हरियाणा में चुनाव आयोग की मदद से सत्ता पक्ष ने वोटों की चोरी की है, तो इसे कितना दायित्वपूर्ण समझा जाए?
शासन चलाने के लिए अनेक सरकारी एजेंसियां काम करती हैं, लेकिन जब विपक्ष को ईडी, सीबीआई, आयकर विभाग या पुलिस पर भरोसा नहीं रहता तो फिर इसका उपाय क्या है? यदि हमारा विपक्ष सेक्युलर व्यवस्था चाहता है और वह शरिया क़ानून को भी लागू करना चाहता है, तो भला प्रजातंत्र कैसे जीवित रह सकता है? यदि संसद में विपक्ष के नेता अनेक विषयों पर चर्चा करना चाहते हैं लेकिन संसद में इतना हंगामा करते हैं कि उनके द्वारा सुझाए गए अथवा सत्ता पक्ष द्वारा प्रस्तावित किसी विषय पर चर्चा हो ही न सके, तो प्रजातंत्र कैसे बचेगा?
जवाहरलाल नेहरू ने प्रजातांत्रिक व्यवस्था को लागू करने का निश्चय किया और संविधान सभा का सम्मान किया, तो यह एक साहसिक कदम था। इसके साथ ही लागू किया गया वयस्क मताधिकार और सेक्युलर व्यवस्था भी उतने ही साहसिक थे। ये व्यवस्थाएं 1975 तक सामान्य रूप से चलती रहीं, सांसद और विधानसभाओं में कोई कठिनाई नहीं दिखाई पड़ी। 1975 में लगभग दो वर्षों का आपातकाल एक अपवाद सिद्ध हुआ है। इसी व्यवस्था में संसद में एक से बढ़कर एक दिग्गज नेता — जैसे कम्युनिस्ट एस.ए. डांगे, रणदिवे, मधुलिमये, समाजवादी मधु दंडवते, डॉ. राममनोहर लोहिया, और जे.बी. कृपलानी, स्वतंत्र पार्टी के एन.जी. रंगा और मीनू मसानी — और उन सबसे अधिक मुखर और प्रभावी वक्ता डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और अटल बिहारी वाजपेयी अपने तार्किक बल और वाणी के ज़रिए कई बार सरकार को निरुत्तर कर दिया करते थे।
इधर दो सत्रों से विपक्ष का रवैया नकारात्मक रहा है क्योंकि उसने अपने कुतर्कों और वाणी के बल पर सरकार को काम नहीं करने दिया। शोर-शराबा, हो-हल्ला और वॉकआउट के ज़रिए सरकारी कामकाज को ठप किया है। पिछले सत्र में तो कठोर कदम उठाते हुए स्पीकर महोदय ने अनेक सदस्यों को निलंबित कर दिया था और सरकारी कामकाज चलता रहा था। लेकिन वर्तमान सत्र में इतना अधिक शोर-शराबा हो रहा है कि तीन-चार दिन बेकार में व्यतीत हो चुके हैं और बाकी सत्र के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता।
हमारे देश की जनता बहुत ही होशियार है। उसने 1975 से 1977 तक आपातकाल झेलने के बाद मौका मिलते ही 1977 में इंदिरा जी की सरकार को धराशायी कर दिया था। लेकिन जब मोरारजी भाई की जनता पार्टी की सरकार आपसी फूट में उलझी रही, तो उसी जनता ने 1980 में इंदिरा गांधी को फिर से सत्ता में बैठा दिया और अनुशासनहीन जनता पार्टी को सत्ता से बाहर कर दिया। पता नहीं इस बार जनता का व्यवहार कैसा रहेगा।
कहा जाता है कि महाराष्ट्र और दूसरी जगहों पर वोटों की चोरी हुई और चुनाव आयोग उस चोरी में शामिल था। इस सब का क्या आधार है, किसी को मालूम नहीं। लेकिन शोर-शराबा और लांछनबाज़ी बराबर चल रही है। इन सभी परिस्थितियों में प्रजातंत्र पर आंच आती है और उसका भविष्य चुनौतीपूर्ण दिखाई पड़ता है।
कहा जाता है कि भारत में सबसे पुराना प्रजातंत्र हुआ करता था — इसका तो पता नहीं — लेकिन वर्तमान में दुनिया के तमाम देशों में प्रजातंत्र मौजूद है और हर देश में सत्ता पक्ष और विपक्ष होता ही है। कहीं भी विपक्ष को निराधार लांछन लगाते हुए सरकार पर नहीं देखा या सुना गया।
इसी प्रकार जब भारत की अर्थव्यवस्था 11वें स्थान से उठकर चौथे स्थान पर आ गई है, प्रति व्यक्ति आय बढ़ी है, अनाज भंडार बढ़ा है, और दुनिया के देशों में भारतवासियों का सम्मान बढ़ा है — तब यह कहना कि देश की दुर्दशा हो रही है, शायद सत्य नहीं है।
मैं नहीं जानता कि संसद में काम लगातार बाधित होना और सड़कों पर सरकार पर लांछन लगाना — इसके बारे में आम जनता क्या सोचती है। शायद किसी ने इसका अध्ययन नहीं किया होगा। जनता की सोच तो चुनाव के बाद ही पता चलती है। विपक्ष के भाषण सुनकर और संसद की चर्चा पढ़कर पाकिस्तान और चीन के लोग ज़रूर प्रसन्न हो रहे होंगे। कहीं ऐसा न हो कि जिस तरह पाकिस्तान में प्रजातंत्र पटरी से उतर गया था, वैसे ही भारत में न हो जाए।
शासन चलाने के लिए अनेक सरकारी एजेंसियां काम करती हैं, लेकिन जब विपक्ष को ईडी, सीबीआई, आयकर विभाग या पुलिस पर भरोसा नहीं रहता तो फिर इसका उपाय क्या है? यदि हमारा विपक्ष सेक्युलर व्यवस्था चाहता है और वह शरिया क़ानून को भी लागू करना चाहता है, तो भला प्रजातंत्र कैसे जीवित रह सकता है? यदि संसद में विपक्ष के नेता अनेक विषयों पर चर्चा करना चाहते हैं लेकिन संसद में इतना हंगामा करते हैं कि उनके द्वारा सुझाए गए अथवा सत्ता पक्ष द्वारा प्रस्तावित किसी विषय पर चर्चा हो ही न सके, तो प्रजातंत्र कैसे बचेगा?
जवाहरलाल नेहरू ने प्रजातांत्रिक व्यवस्था को लागू करने का निश्चय किया और संविधान सभा का सम्मान किया, तो यह एक साहसिक कदम था। इसके साथ ही लागू किया गया वयस्क मताधिकार और सेक्युलर व्यवस्था भी उतने ही साहसिक थे। ये व्यवस्थाएं 1975 तक सामान्य रूप से चलती रहीं, सांसद और विधानसभाओं में कोई कठिनाई नहीं दिखाई पड़ी। 1975 में लगभग दो वर्षों का आपातकाल एक अपवाद सिद्ध हुआ है। इसी व्यवस्था में संसद में एक से बढ़कर एक दिग्गज नेता — जैसे कम्युनिस्ट एस.ए. डांगे, रणदिवे, मधुलिमये, समाजवादी मधु दंडवते, डॉ. राममनोहर लोहिया, और जे.बी. कृपलानी, स्वतंत्र पार्टी के एन.जी. रंगा और मीनू मसानी — और उन सबसे अधिक मुखर और प्रभावी वक्ता डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और अटल बिहारी वाजपेयी अपने तार्किक बल और वाणी के ज़रिए कई बार सरकार को निरुत्तर कर दिया करते थे।
इधर दो सत्रों से विपक्ष का रवैया नकारात्मक रहा है क्योंकि उसने अपने कुतर्कों और वाणी के बल पर सरकार को काम नहीं करने दिया। शोर-शराबा, हो-हल्ला और वॉकआउट के ज़रिए सरकारी कामकाज को ठप किया है। पिछले सत्र में तो कठोर कदम उठाते हुए स्पीकर महोदय ने अनेक सदस्यों को निलंबित कर दिया था और सरकारी कामकाज चलता रहा था। लेकिन वर्तमान सत्र में इतना अधिक शोर-शराबा हो रहा है कि तीन-चार दिन बेकार में व्यतीत हो चुके हैं और बाकी सत्र के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता।
हमारे देश की जनता बहुत ही होशियार है। उसने 1975 से 1977 तक आपातकाल झेलने के बाद मौका मिलते ही 1977 में इंदिरा जी की सरकार को धराशायी कर दिया था। लेकिन जब मोरारजी भाई की जनता पार्टी की सरकार आपसी फूट में उलझी रही, तो उसी जनता ने 1980 में इंदिरा गांधी को फिर से सत्ता में बैठा दिया और अनुशासनहीन जनता पार्टी को सत्ता से बाहर कर दिया। पता नहीं इस बार जनता का व्यवहार कैसा रहेगा।
कहा जाता है कि महाराष्ट्र और दूसरी जगहों पर वोटों की चोरी हुई और चुनाव आयोग उस चोरी में शामिल था। इस सब का क्या आधार है, किसी को मालूम नहीं। लेकिन शोर-शराबा और लांछनबाज़ी बराबर चल रही है। इन सभी परिस्थितियों में प्रजातंत्र पर आंच आती है और उसका भविष्य चुनौतीपूर्ण दिखाई पड़ता है।
कहा जाता है कि भारत में सबसे पुराना प्रजातंत्र हुआ करता था — इसका तो पता नहीं — लेकिन वर्तमान में दुनिया के तमाम देशों में प्रजातंत्र मौजूद है और हर देश में सत्ता पक्ष और विपक्ष होता ही है। कहीं भी विपक्ष को निराधार लांछन लगाते हुए सरकार पर नहीं देखा या सुना गया।
इसी प्रकार जब भारत की अर्थव्यवस्था 11वें स्थान से उठकर चौथे स्थान पर आ गई है, प्रति व्यक्ति आय बढ़ी है, अनाज भंडार बढ़ा है, और दुनिया के देशों में भारतवासियों का सम्मान बढ़ा है — तब यह कहना कि देश की दुर्दशा हो रही है, शायद सत्य नहीं है।
मैं नहीं जानता कि संसद में काम लगातार बाधित होना और सड़कों पर सरकार पर लांछन लगाना — इसके बारे में आम जनता क्या सोचती है। शायद किसी ने इसका अध्ययन नहीं किया होगा। जनता की सोच तो चुनाव के बाद ही पता चलती है। विपक्ष के भाषण सुनकर और संसद की चर्चा पढ़कर पाकिस्तान और चीन के लोग ज़रूर प्रसन्न हो रहे होंगे। कहीं ऐसा न हो कि जिस तरह पाकिस्तान में प्रजातंत्र पटरी से उतर गया था, वैसे ही भारत में न हो जाए।