डुग्गी से सोशल मीडिया तक: कैसे बदले भारत के संचार साधन
Dr SB Misra | Sep 14, 2025, 10:30 IST
भारत में संचार माध्यमों की यात्रा अनोखी रही है। कभी हल्कारा और डुग्गी के जरिए संदेश पहुँचाए जाते थे, तो आज डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हावी है। जानिए कैसे स्वतंत्रता संग्राम, अखबार, रेडियो, टीवी और विज्ञापनों ने संचार की विश्वसनीयता को आकार दिया।
पुराने समय में किसी बात का उद्घोष करना होता था तो विधिक तरीके अपनाए जाते थे। जब रामायण काल में एक घोड़ा छोड़ा गया था इस उद्घोष के साथ कि जो इस घोड़े को बाँध लेगा, उसे रामचंद्र जी से युद्ध करना होगा। उस घोड़े को राम के पुत्र लव और कुश ने बाँध लिया था, बाकी इतिहास है। इसी प्रकार, जब किसी बात की घोषणा करनी होती थी तो गाँव-गाँव जाकर उद्घोषक डुग्गी पीटकर ऐलान किया करते थे।
संदेश भेजने और जवाब पाने के तरीके समय के साथ बदलते रहे हैं। " data-type="link">आल्हा-ऊदल के ज़माने में यह काम हल्कारा के माध्यम से होता था, जिसका प्रमाण है एक काव्यांश – "सुनकै बाते हलकारे की धांधू गइओ सनाका खाये"। यह पद्यति को प्रमाणित करता है।
हमारे देश में लंबे समय तक कागज़ का आविष्कार नहीं हुआ था और भोजपत्र पर लिखने की परंपरा तो थी, लेकिन उन भोजपत्रों को सुरक्षित रखना आसान नहीं होता होगा। हमारे देश में ज्ञान के भंडार को याददाश्त के भरोसे जीवित रखा गया और इसीलिए वेदों को "श्रुति" कहते हैं और शास्त्रों को "स्मृति" के नाम से जाना जाता है, क्योंकि यह सब ज्ञान सुनकर अथवा याददाश्त के माध्यम से जीवित रखा गया था।
गाँव में रहने वाले नाई अथवा बारी यदि नहीं होते थे तो घर का ही कोई व्यक्ति समाचार दूर-दराज तक लेकर पहुँचाता था। यदि लड़की की शादी हुई तो हल्दी की एक गाँठ और यदि लड़के की शादी हुई तो एक सुपारी पहुँचाई जाती थी, जिससे पाने वाले को पता चल जाता था कि शादी किसकी है। इसी प्रकार यदि परिवार में किसी का देहांत हो जाता था, तो भी समाचार पहुँचाया जाता था। कालांतर में जब लिखित पत्रों द्वारा समाचार भेजना आरंभ हुआ तो पत्रवाहक को "चिट्ठी-रसा" के नाम से जाना जाता था।
मुगलों के ज़माने में बादशाह के महल के बाहरी भाग में घंटा रहता था, जिसे कोई भी फरियादी आकर बजा सकता था और उसकी फरियाद – चाहे वह शिकायत हो, समाचार हो या दूसरी जानकारी – बादशाह सलामत तक पहुँच जाती थी। इसके अलावा मुग़लकाल में पत्र-पत्रिकाओं का प्रचलन यदि था तो उसकी अधिक जानकारी आज के लोगों को नहीं है। वैसे "आईने अकबरी", "बाबरनामा" आदि का उल्लेख मिलता है, इसलिए शायद लिखने-पढ़ने का सिलसिला शुरू हो गया था।
अंग्रेज़ों के ज़माने में पत्र-पत्रिकाओं और समाचार माध्यमों का प्रचार-प्रसार अधिक हुआ। जब मारकोनी ने टेलीग्राफ का आविष्कार किया और टेलीप्रिंटर ने "गिट-गर" कहना आरंभ किया तो समाचार दूर-दराज तक जाने लगे। कुछ लोगों का मानना है कि तार-रहित संचार (बेतार) का आविष्कार सर जगदीश चंद्र बोस ने मारकोनी से पहले किया था, लेकिन इस बात का प्रचार-प्रसार नहीं हो पाया।
स्वतंत्रता संग्राम में बड़े पैमाने पर पंपलेट, पत्र, चिट्ठियाँ और अनेक गुप्त माध्यमों का प्रयोग क्रांतिकारियों ने किया। लेकिन बाकी लोग, जो क्रांतिकारी नहीं थे, उन्होंने पत्र-पत्रिकाएँ और अखबार चलाए। स्वयं गांधी जी, मदन मोहन मालवीय, आशुतोष मुखर्जी, सर सैयद अहमद ख़ान, गणेश शंकर विद्यार्थी और न जाने कितने संपादक और लेखक पैदा हुए। इस प्रकार बनी पठन-पाठन की सामग्री बहुत ही विश्वसनीय होती थी और लोगों तक अंग्रेज़ों से छुपाकर पहुँचाई जाती थी।
क्रांतिकारियों के पोस्टरों की हालत यह थी कि वे किसी की पीठ पर उल्टा चिपकाकर दे दिए जाते थे और वह जाकर किसी दीवार या पेड़ के पास खड़ा हो जाता था, जिससे पोस्टर वहाँ चिपक जाता था।
शांतिपूर्ण ढंग से भी आज़ादी की लड़ाई चलाने वाले लोग अपना तरीका निकालते थे। तब के कवियों ने अपने तरीके से आज़ादी की अलख जगाई थी। जैसे रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा –
“हिमाद्रि तुंग शृंग से
प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्वला
स्वतंत्रता पुकारती।”
इसमें आज़ादी का आह्वान है, लेकिन इस पर आपत्ति नहीं उठाई जा सकती थी, यहाँ तक कि गुलाम भारत में भी।
क्रांतिकारियों के सामने अधिक कठिनाई थी। भले ही वे पंपलेट और प्रचार सामग्री को गुप्त तरीके से बाँट लेते थे, लेकिन उन्हीं के बीच छुपे भेदियों को पहचान पाना मुश्किल होता था। गुलाम भारत में गांधी जी का शांतिप्रिय तरीका कारगर हो रहा था और नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने संगठित सैन्य शक्ति के बल पर आंदोलन को कुछ हद तक आगे बढ़ाया। अखबार, मैगज़ीन, पर्चे, पंपलेट – ये सब शांतिपूर्ण तरीकों में शामिल होते थे। उस समय के अखबारों पर आम आदमी का बड़ा भरोसा और विश्वास रहता था।
अंग्रेज़ों के ज़माने की बातें मैंने देखी नहीं, केवल सुनी और समझी हैं। लेकिन आज़ाद भारत में संचार माध्यमों को बढ़ते और बदलते हुए देखा है। मुझे याद है, नेशनल हेराल्ड अखबार के संपादक चेलापति राव हुआ करते थे और उसी कैंपस से हिंदी का नवजीवन और उर्दू का कौमी आवाज़ छपता था। इन अखबारों के विचार कांग्रेस की तरफ झुकाव रखते थे, लेकिन उनकी विश्वसनीयता में कमी नहीं थी।
पत्रिकाओं और मैगज़ीन में तटस्थ भाव लागू नहीं होता था। जैसे मुंबई से छपने वाला और आर. के. करंजिया द्वारा सम्पादित ब्लिट्ज साम्यवादी विचारों का समर्थक था और वहीं से छपने वाला करंट पूँजीवादी व्यवस्था का पक्षधर। धर्मवीर भारती द्वारा सम्पादित धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान अपेक्षाकृत संतुलित थे। वहीं पांचजन्य और ऑर्गनाइज़र राष्ट्रवादी विचारों के पक्षधर।
रेडियो के आने से समाचार गाँव तक पहुँचे, क्योंकि अनपढ़ लोग भी सुन सकते थे। लेकिन समाचार "देखने" की सुविधा टेलीविजन आने के बाद मिली। टीवी ने अखबारों और रेडियो का महत्व घटा दिया और राजनीति व व्यापार दोनों ने इसे अपने प्रभाव का साधन बना लिया।
आपातकाल में देश के सभी संचार माध्यम अपंग हो गए। बाद में प्रिंट मीडिया ने अपने को सँभाला, लेकिन विज्ञापन-आधारित निर्भरता ने उसकी स्वतंत्रता घटा दी। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आगे आया और अब उसे भी आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से मुकाबला करना होगा।
संचार माध्यमों की विश्वसनीयता तभी बनी रहेगी जब उनका अस्तित्व केवल विज्ञापनों पर आधारित न हो, विशेषकर सत्ताधारी दल के विज्ञापनों पर। आवश्यकता है कि संचार माध्यम औद्योगिक घरानों की तरह न चलकर एक "मिशन" के तौर पर काम करें।
संदेश भेजने और जवाब पाने के तरीके समय के साथ बदलते रहे हैं। " data-type="link">आल्हा-ऊदल के ज़माने में यह काम हल्कारा के माध्यम से होता था, जिसका प्रमाण है एक काव्यांश – "सुनकै बाते हलकारे की धांधू गइओ सनाका खाये"। यह पद्यति को प्रमाणित करता है।
हमारे देश में लंबे समय तक कागज़ का आविष्कार नहीं हुआ था और भोजपत्र पर लिखने की परंपरा तो थी, लेकिन उन भोजपत्रों को सुरक्षित रखना आसान नहीं होता होगा। हमारे देश में ज्ञान के भंडार को याददाश्त के भरोसे जीवित रखा गया और इसीलिए वेदों को "श्रुति" कहते हैं और शास्त्रों को "स्मृति" के नाम से जाना जाता है, क्योंकि यह सब ज्ञान सुनकर अथवा याददाश्त के माध्यम से जीवित रखा गया था।
गाँव में रहने वाले नाई अथवा बारी यदि नहीं होते थे तो घर का ही कोई व्यक्ति समाचार दूर-दराज तक लेकर पहुँचाता था। यदि लड़की की शादी हुई तो हल्दी की एक गाँठ और यदि लड़के की शादी हुई तो एक सुपारी पहुँचाई जाती थी, जिससे पाने वाले को पता चल जाता था कि शादी किसकी है। इसी प्रकार यदि परिवार में किसी का देहांत हो जाता था, तो भी समाचार पहुँचाया जाता था। कालांतर में जब लिखित पत्रों द्वारा समाचार भेजना आरंभ हुआ तो पत्रवाहक को "चिट्ठी-रसा" के नाम से जाना जाता था।
मुगलों के ज़माने में बादशाह के महल के बाहरी भाग में घंटा रहता था, जिसे कोई भी फरियादी आकर बजा सकता था और उसकी फरियाद – चाहे वह शिकायत हो, समाचार हो या दूसरी जानकारी – बादशाह सलामत तक पहुँच जाती थी। इसके अलावा मुग़लकाल में पत्र-पत्रिकाओं का प्रचलन यदि था तो उसकी अधिक जानकारी आज के लोगों को नहीं है। वैसे "आईने अकबरी", "बाबरनामा" आदि का उल्लेख मिलता है, इसलिए शायद लिखने-पढ़ने का सिलसिला शुरू हो गया था।
अंग्रेज़ों के ज़माने में पत्र-पत्रिकाओं और समाचार माध्यमों का प्रचार-प्रसार अधिक हुआ। जब मारकोनी ने टेलीग्राफ का आविष्कार किया और टेलीप्रिंटर ने "गिट-गर" कहना आरंभ किया तो समाचार दूर-दराज तक जाने लगे। कुछ लोगों का मानना है कि तार-रहित संचार (बेतार) का आविष्कार सर जगदीश चंद्र बोस ने मारकोनी से पहले किया था, लेकिन इस बात का प्रचार-प्रसार नहीं हो पाया।
स्वतंत्रता संग्राम में बड़े पैमाने पर पंपलेट, पत्र, चिट्ठियाँ और अनेक गुप्त माध्यमों का प्रयोग क्रांतिकारियों ने किया। लेकिन बाकी लोग, जो क्रांतिकारी नहीं थे, उन्होंने पत्र-पत्रिकाएँ और अखबार चलाए। स्वयं गांधी जी, मदन मोहन मालवीय, आशुतोष मुखर्जी, सर सैयद अहमद ख़ान, गणेश शंकर विद्यार्थी और न जाने कितने संपादक और लेखक पैदा हुए। इस प्रकार बनी पठन-पाठन की सामग्री बहुत ही विश्वसनीय होती थी और लोगों तक अंग्रेज़ों से छुपाकर पहुँचाई जाती थी।
क्रांतिकारियों के पोस्टरों की हालत यह थी कि वे किसी की पीठ पर उल्टा चिपकाकर दे दिए जाते थे और वह जाकर किसी दीवार या पेड़ के पास खड़ा हो जाता था, जिससे पोस्टर वहाँ चिपक जाता था।
शांतिपूर्ण ढंग से भी आज़ादी की लड़ाई चलाने वाले लोग अपना तरीका निकालते थे। तब के कवियों ने अपने तरीके से आज़ादी की अलख जगाई थी। जैसे रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा –
“हिमाद्रि तुंग शृंग से
प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्वला
स्वतंत्रता पुकारती।”
इसमें आज़ादी का आह्वान है, लेकिन इस पर आपत्ति नहीं उठाई जा सकती थी, यहाँ तक कि गुलाम भारत में भी।
क्रांतिकारियों के सामने अधिक कठिनाई थी। भले ही वे पंपलेट और प्रचार सामग्री को गुप्त तरीके से बाँट लेते थे, लेकिन उन्हीं के बीच छुपे भेदियों को पहचान पाना मुश्किल होता था। गुलाम भारत में गांधी जी का शांतिप्रिय तरीका कारगर हो रहा था और नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने संगठित सैन्य शक्ति के बल पर आंदोलन को कुछ हद तक आगे बढ़ाया। अखबार, मैगज़ीन, पर्चे, पंपलेट – ये सब शांतिपूर्ण तरीकों में शामिल होते थे। उस समय के अखबारों पर आम आदमी का बड़ा भरोसा और विश्वास रहता था।
अंग्रेज़ों के ज़माने की बातें मैंने देखी नहीं, केवल सुनी और समझी हैं। लेकिन आज़ाद भारत में संचार माध्यमों को बढ़ते और बदलते हुए देखा है। मुझे याद है, नेशनल हेराल्ड अखबार के संपादक चेलापति राव हुआ करते थे और उसी कैंपस से हिंदी का नवजीवन और उर्दू का कौमी आवाज़ छपता था। इन अखबारों के विचार कांग्रेस की तरफ झुकाव रखते थे, लेकिन उनकी विश्वसनीयता में कमी नहीं थी।
पत्रिकाओं और मैगज़ीन में तटस्थ भाव लागू नहीं होता था। जैसे मुंबई से छपने वाला और आर. के. करंजिया द्वारा सम्पादित ब्लिट्ज साम्यवादी विचारों का समर्थक था और वहीं से छपने वाला करंट पूँजीवादी व्यवस्था का पक्षधर। धर्मवीर भारती द्वारा सम्पादित धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान अपेक्षाकृत संतुलित थे। वहीं पांचजन्य और ऑर्गनाइज़र राष्ट्रवादी विचारों के पक्षधर।
रेडियो के आने से समाचार गाँव तक पहुँचे, क्योंकि अनपढ़ लोग भी सुन सकते थे। लेकिन समाचार "देखने" की सुविधा टेलीविजन आने के बाद मिली। टीवी ने अखबारों और रेडियो का महत्व घटा दिया और राजनीति व व्यापार दोनों ने इसे अपने प्रभाव का साधन बना लिया।
आपातकाल में देश के सभी संचार माध्यम अपंग हो गए। बाद में प्रिंट मीडिया ने अपने को सँभाला, लेकिन विज्ञापन-आधारित निर्भरता ने उसकी स्वतंत्रता घटा दी। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आगे आया और अब उसे भी आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से मुकाबला करना होगा।
संचार माध्यमों की विश्वसनीयता तभी बनी रहेगी जब उनका अस्तित्व केवल विज्ञापनों पर आधारित न हो, विशेषकर सत्ताधारी दल के विज्ञापनों पर। आवश्यकता है कि संचार माध्यम औद्योगिक घरानों की तरह न चलकर एक "मिशन" के तौर पर काम करें।