ग्रामीण शिक्षा: साधन बढ़े, लेकिन गुणवत्ता क्यों नहीं?

Dr SB Misra | Sep 27, 2025, 11:08 IST

आज के समय में गाँव-गाँव में प्राइमरी स्कूल खुले हैं और हर पंचायत में एक सीनियर प्राइमरी यानी कक्षा 6, 7, 8 के लिए विद्यालय मौजूद है। पहले की अपेक्षा अच्छे भवन हैं, अधिक संख्या में अध्यापक, कुर्सी, मेज, ब्लैकबोर्ड सब कुछ है। लेकिन फिर भी शिक्षा का स्तर दयनीय है।

कहते हैं, बच्चे की पहली पाठशाला परिवार होती है, लेकिन जब पाठशाला ही अनपढ़ हो तो बच्चा पहली पाठशाला कैसे पाएगा? पुराने ज़माने में देश में वर्णाश्रम व्यवस्था होने के कारण ब्राह्मण समाज में शिक्षा का प्रचार-प्रसार सर्वाधिक था और ब्राह्मण परिवार शिक्षित होते थे। लेकिन बाकी तीन वर्णों में शिक्षा का अभाव था। आज से लगभग 75 या 80 साल पहले जब मैं प्राइमरी स्कूल जाता था, तब तक शिक्षा का प्रचार सभी जातियों में हो चुका था और हमारे अध्यापक भी अलग-अलग जातियों से, फिर चाहे अनुसूचित हो या पिछड़ी जाति से, हुआ करते थे।

पीड़ा का विषय यह ज़रूर है कि आज़ाद भारत में आरक्षण के बावजूद अनुसूचित और पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित पद भरने के लिए योग्य अभ्यर्थी नहीं मिल पाते हैं और स्थान खाली रह जाते हैं। यह कठिनाई शहरों की अपेक्षा गाँव में कहीं अधिक होती है।

आज़ाद भारत के प्रारंभिक वर्षों में प्राथमिक शिक्षा के साधन बहुत कम थे। मुझे खुद कक्षा 1, 2, 3 की पढ़ाई के लिए जंगल के रास्ते से लगभग 2 किलोमीटर पैदल जाना होता था, और कक्षा 4 और 5 की पढ़ाई के लिए 4 किलोमीटर। उसके बाद कक्षा 6, 7, 8, जिसे सीनियर प्राइमरी या जूनियर हाई स्कूल कहते हैं, उसके लिए मुझे 12 किलोमीटर जाना और वापस आना होता था। उन्हीं दिनों से मेरी धुन थी कि मेरे गाँव में विद्यालय क्यों नहीं है। सौभाग्य से, हायर सेकेंडरी की पढ़ाई संघर्षों के साथ पूरी करके विश्वविद्यालय और कनाडा से शोध कार्य करने में सफल हुआ। कनाडा का आराम का जीवन छोड़कर जब वापस आया तो पत्नी निर्मला मिश्रा के साथ गाँव में स्कूल खोला। लेकिन वहां लड़कियों को बुलाने और उनकी शिक्षा के लिए निर्मला मिश्रा को बहुत अधिक परिश्रम करना पड़ा। जब वह गाँव की महिलाओं से कहती थीं कि अपनी बेटी को हमारे स्कूल में क्यों नहीं भेजती हो, तो उनका उत्तर होता था—लड़की जात है, चिट्ठी-पत्री लिखना आ गया है, अब और ज़्यादा पढ़कर क्या करेगी। जब वह और आग्रह करतीं, तो महिलाएं कहतीं—लड़की जात है, उसकी सुरक्षा का भी सवाल है। तब निर्मला मिश्रा कहतीं—उसकी ज़िम्मेदारी मैं लेती हूं। और इस प्रकार हमारे विद्यालय में लड़कियों की संख्या लड़कों से अधिक हो गई, और आज भी है।

आज के समय में गाँव-गाँव में प्राइमरी स्कूल खुले हैं और हर पंचायत में एक सीनियर प्राइमरी यानी कक्षा 6, 7, 8 के लिए विद्यालय मौजूद है। पहले की अपेक्षा अच्छे भवन हैं, अधिक संख्या में अध्यापक, कुर्सी, मेज, ब्लैकबोर्ड सब कुछ है। लेकिन फिर भी शिक्षा का स्तर दयनीय है। छात्रों से कोई फीस नहीं ली जाती, यूनिफॉर्म, वज़ीफ़ा और दोपहर का भोजन मुफ्त में दिया जाता है, फिर भी कक्षा 5 पास करने के बाद बच्चे हिंदी का साधारण इमला नहीं लिख पाते। विद्यालयों का निरीक्षण पहले की अपेक्षा बहुत कमजोर है। परिणाम यह हुआ है कि अध्यापक आने, जाने और पढ़ाने में मनमानी करते हैं, उनमें कर्तव्य-बोध नहीं है।

इसके विपरीत, प्राइवेट स्कूलों में अच्छी फीस ली जाती है और व्यवस्था भी उसी स्तर की है। लेकिन अध्यापकों पर दबाव है और जॉब सिक्योरिटी नहीं है। हिंदी के साथ वहां अंग्रेज़ी पढ़ाई जाती है और शिक्षा का स्तर कहीं बेहतर है। गांव के गरीब नागरिक भी अपने बच्चों को परिषदीय विद्यालयों के स्थान पर प्राइवेट स्कूलों को भेजना पसंद करते हैं। ऐसी हालत में शायद बेहतर यह होगा कि सरकारी स्कूल खोलने के बजाय सहायता-प्राप्त प्राइमरी स्कूल अधिक संख्या में खोले जाएं, जिससे शिक्षा की नींव मजबूत होगी।

हकीकत यह है कि सहायता-प्राप्त विद्यालयों की कौन कहे, मान्यता-प्राप्त विद्यालय बनाने के लिए भी मोटी रकम खर्च करनी पड़ती है और उसके बाद उन्हें भी सरकार भूल जाती है। जब तक शिक्षण संस्थाओं का सघन निरीक्षण नहीं होगा और अध्यापकों पर पढ़ाने का दबाव नहीं होगा, जैसा पुराने ज़माने में हुआ करता था, तब तक शिक्षा में गुणवत्ता लाने का विचार एक ख्याली पुलाव से अधिक कुछ नहीं होगा।

गाँव में निरक्षर लोगों की आबादी बहुत थी और इसलिए इस निरक्षरता से निपटने के लिए सरकारों ने "सर्व शिक्षा अभियान" चलाया। लेकिन सर्व शिक्षा अभियान कोई शिक्षा नहीं देता था, बल्कि एक लक्ष्य बना दिया गया था कि नागरिक को हस्ताक्षर करना आता हो। सरकारी अध्यापकों ने गांव-गांव जाकर लोगों को हस्ताक्षर करना सिखा दिया और उन्हें साक्षर मान लिया गया। लेकिन इसका कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। साथ ही स्कूलों की शिक्षा का स्तर भी नहीं सुधरा। तब स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता पर सरकारों का ध्यान गया और उसके लिए अभियान शुरू हुआ। लेकिन इतने वर्षों के प्रयास के बाद भी शिक्षा की गुणवत्ता में कोई विशेष अंतर नहीं आया है और गांव की शिक्षा उसी पुराने ढर्रे पर चल रही है।

गुणवत्ता सुधारने की इस प्रक्रिया में प्रति-अध्यापक छात्र-छात्राओं की संख्या निर्धारित की गई, बिल्डिंग, फर्नीचर, ब्लैकबोर्ड आदि पर ध्यान दिया गया, लेकिन फिर भी शिक्षा का स्तर नहीं सुधरा। और जो समर्थ थे, जो फीस दे सकते थे, उन्होंने अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजना बेहतर समझा और आज भी समझ रहे हैं। अध्यापकों की संख्या बढ़ाई गई और उनका वेतन बढ़ाया गया, लेकिन यह एक कड़वी सच्चाई है कि इसके बाद भी शिक्षा में गुणवत्ता नहीं आई। परेशानी यह है कि अध्यापक स्वेच्छा से अपने दायित्व को समझते नहीं और शिक्षा विभाग सघन निरीक्षण करता नहीं। इसलिए शिक्षा में गुणवत्ता लाने का प्रयास वहीं का वहीं पड़ा है, आगे नहीं बढ़ रहा।

गांव के बच्चे प्राइमरी या सीनियर प्राइमरी के बाद अक्सर पढ़ाई छोड़ देते हैं। या तो घर के काम में लग जाते हैं, अथवा पढ़ाई में उनकी रुचि नहीं होती और कोई प्रोत्साहन तथा मार्गदर्शन देने वाला नहीं रहता। निर्धनता के कारण घर की हालत अच्छी नहीं होती, या उनके घर के बड़े लोग शराब के आदी हो जाते हैं। ऐसी हालत में जो बच्चे पढ़ने में होशियार हों और आर्थिक रूप से कमजोर हों, उन परिवारों को खैरात बांटने के बजाय एक तो काम दिया जाए और दूसरे अधिक से अधिक छात्रावास बनाए जाएं, जहां रहकर उनकी निःशुल्क पढ़ाई हो सके।

ऐसे परिवारों के बच्चे और ग्रामीण बच्चे भी सामान्य रूप से जीवन का कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं कर पाते और भटक जाते हैं। उनके मार्गदर्शन की व्यवस्था स्कूलों में नहीं रहती। यदि यह रहे तो उनकी रुचि पढ़ाई में कम नहीं होगी और छात्रों का रुझान देखकर उन्हें जीवन का रास्ता भी बताया जा सकता है। वैसे तो गांव की ही भांति कस्बों के बच्चे भी यह नहीं जानते कि वे क्यों पढ़ रहे हैं और पढ़कर क्या बनेंगे। पुराने ज़माने में ज्ञान के लिए विद्या होती थी और दान के लिए धन, लेकिन अब विद्या का उद्देश्य एक ही है—जीविकोपार्जन के लिए कोई उपयोगी व्यवसाय, उद्यम या नौकरी पाना।

ग्रामीण क्षेत्रों में जो अध्यापक नियुक्त किए जाएं, वे यदि उसी पंचायत के नहीं हो सकते तो कम से कम उसी ब्लॉक के होने चाहिए, ताकि उन्हें विद्यालय पहुंचने में अधिक समय न लगे। प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में ग्राम प्रधानों की भूमिका सुनिश्चित की जानी चाहिए, ताकि वे अध्यापकों की उपस्थिति और उनके कार्य का विवरण बनाते रहें। पुराने समय वाला निरीक्षक मंडल का काम फिर से आरंभ किया जाना चाहिए। इसके बगैर प्राथमिक शिक्षा को उद्देश्यपूर्ण और प्रभावी बनाना बहुत कठिन होगा। छात्रों में स्मरण शक्ति बढ़ाने, श्रुतिलेख और सुलेख पर विशेष आग्रह होना चाहिए।