पानी की आत्मकथा: बादल से धरती और फिर समुद्र तक

Dr SB Misra | Dec 22, 2025, 12:27 IST
( Image credit : Gaon Connection Network, Gaon Connection )

ग्रामीण भारत की जल-व्यवस्था कभी सामुदायिक तालाबों और कुओं पर टिकी थी। आज वही संरचनाएँ उपेक्षा और अतिक्रमण का शिकार हैं। अगर गाँवों की जल-धरोहर बचाई जाए, तो देश के जल संकट से निपटा जा सकता है।

<p>देश के जलवैज्ञानिक बता सकते हैं कि हमें प्रतिवर्ष कितना पानी चाहिए लेकिन उन्होंने शायद इस बात का आंकलन नहीं किया होगा कि भारत भूमि पर जो तालाब, झीलें, जलाशय, बावली और कुएं हैं उनमें कितना पानी भरने की क्षमता है। <br></p>
जल प्रकति में ठोस, द्रव और वाष्प के रूप में पाया जाता है। पृथ्वी पर विध्यमान सम्पूर्ण जल की मात्रा लगभग स्थिर है और इस मात्रा को जल बजट की संज्ञा दी जा सकती है। जल की विभिन्न अवस्थाओं, उनके पारस्परिक सम्बन्ध और जल बजट की अवधारणा पर विचार करे तो यह प्रकति की अद्भुद घटना लगती है। समुद्र का पानी सौर ऊर्जा द्वारा वाष्पीभूत होकर बदलो के रूप में वायुमंडल में उठता है और पर्वतों की दिशा जाता है। यह वाष्पीभूत जल अपना खारापन समुद्र में ही छोड़ आता है और घनीभूत होकर वर्षा जल के रूप में पृथ्वी पर गिरता है। तत्पश्चात नदियों द्वारा यह वर्षाजल फिर समुद्र में पहुँच जाता है और फिर वाष्प बनता है।

इस प्रक्रिया को जलचक्र कहते है। जलचक्र की प्रक्रिया में कुछ जल ऊँचे पर्वतीय भागों में बर्फ के रूप में बदल जाता है, कुछ भाग पृथ्वी के अंदर जाकर भूजल के रूप में रहता है और कुछ वनस्पति, जीव जंतु और अंततः मनुष्यों द्वारा काम में लाया जाता है। पेय जल की उपलब्धता में भूजल की बहुत महत्ता है। भूजल आवश्यकता और आकाल के समय उसी प्रकार उपलब्ध रहता है, जैसे फसल कट जाने के पश्चात् भंडारों में रखा हुआ अनाज। इस प्रकार प्रकति ने बहुत ही अद्भुत ढंग से जलप्रबंधन की व्यवस्था कर रखी है। यदि भारतीय चिंतन के अनुसार जल की पवित्रता और महत्व को ध्यान में रखकर प्रकति की व्यवस्था में अवांछनीय व्यवधान न डाले जाये तो जलाभाव, जलाधिक्य अथवा जलप्रदूषण के संकटों से बचा जा सकता है।

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भूजल चूँकि बालू कणों से होकर छनकर उतरता है अतः अपेक्षाकृत शुद्ध और आवश्यक धातु तत्वों से भरपूर रहता है। यह शुद्ध जल का एक स्थाई स्रोत है। अनेक स्थानों पर विशेष कर पर्वतीय क्षेत्रो में भूजल के सोतों के रूप में पृथ्वी पर निकलता है और कुछ स्थानों पर नदियों का उद्गमस्थान बनता है। पीने के लिए कुओं, नलकूप, हैंडपंप आदि द्वारा मिलने वाला पानी भूजल ही होता है। पृथ्वी के अंदर बने जलभण्डारों की क्षमता इस बात पर निर्भर करती है कि सम्बंधित शैल समूहों की रंध्रता और जल पारगम्यता कितनी है। जल के बड़े बड़े भंडार हजारों वर्षों में तैयार होते है, अतः एक बार प्रदूषित हो जाने बाद इन्हे प्रदूषण रहित करना असंभव है। अतः भूजल का प्रदुषण, भूतलीय जल प्रदूषण से कहीं घातक है।

वर्तमान समय में हमारा ध्यान उपयोग की दृष्टि से भूजल पर सर्वाधिक केंद्रित हो गया है। बिहार में वर्ष 1967-68 के आये सूखा और आकाल के बाद से पेय जल के रूप में भूजल का महत्व और भी बढ़ गया है। विगत वर्षों में जल ने कितने ही एकड़ भूमि की सिंचाई की है और अनगिनत कल कारखानों के लिए जल उपलब्ध कराया है। परंतु आज स्थिति यह है कि स्थलीय जल भंडार निरंतर प्रदूषित हो रहा है और वर्षा जल निर्वनीकरण के कारण निर्बाध रूप से बह जाता है और भूजल का भंडार नहीं हो पता जो कुछ थोड़ा बहुत भूजल भंडार बनता भी है उसका नितांत अपव्यय हो रहा है। असंयमित रूप से इस जल का उपयोग होने के कारण भूजल का स्तर निरंतर नीचे जा रहा है यदि यही दशा रही तो कुछ ही वर्षों में भूजल सामान्य लोगों की पहुंच के बाहर हो जाएगा।

यदि हम भूजल पर बढ़ रहे दबाव को कम करना चाहते हैं तो हमें जल भंडारण के प्राचीन और परंपरागत तरीकों को पुनर्जीवित करना होगा। पुराने समय में प्रत्येक गाँव में एक या दो तालाब हुआ करते थे, जिसमें वर्षा जल एकत्रित हो जाता था । यह पानी पशुओं के पीने और सिंचाई आदि के लिए पर्याप्त हो जाता था। आज इन तालाबों में काई और जलकुंभी के अलावा कुछ नहीं बचा है। पुराने समय में अनेक स्थानों पर पक्के तालाब, विशाल चौड़ाई के कुएं और बावली बनाये जाते थे। इन सब में शुद्ध वर्षा जल का भंडारण होता था और इस प्रकार बनाए गए जल संसाधन पर पूरे गाँव समाज का स्वामित्व रहता था। विश्व का सबसे विशाल और सबसे पुराना जलभंडार गुजरात के कच्छ इलाके में धोलावीरा नमक स्थान पर पुरातत्विकताओं ने ढूंढ निकाला है जो 5000 वर्ष पुराना है ।

पानी को शुद्ध बनाए रखने में उसकी परवाह शीलता बहुत मदद करती है। क्योंकि उसमें गतिज ऊर्जा होने के कारण शुद्धिकरण की क्षमता रहती है। प्रवाहमान जल के द्वारा हज़ारों टन मिट्टी, बालू, पत्थर आज उठा और ढोये जाते हैं और निचले स्थान पर ले जाकर जमा किए जाते हैं। यह सभी कार्य नदियां हिमनद और हवाएं आज एक समान करते हैं, परंतु उनके कार्य करने की गति और अलग-अलग होती है। नदियों तथा अन्य प्रकार के स्थल पानी में घुलनशील लवण तथा धात्विक रहती हैं परंतु इनकी मात्रा बहुत कम होती है। औद्योगिक प्रदूषण के कारण स्थलीय जल मानव उपयोग के लिए उपयुक्त नहीं रह जाएगा। ऐसी स्थिति में हिम शिखरों पर और हिमनदों के रूप में विद्यमान बर्फ ही एकमात्र जल संसाधन बचेगी और वह भी बढ़ती हुई वैश्विक तापीयता के कारण पिघल कर समुद्र में चली जाएगी और खारे पानी में बदल जाएगी।

हिमनद अर्थात प्रवाहमान बर्फ हिमनद रेखा के ऊपर विद्यमान रहते हैं। हिमनद रेखा वह रेखा है जहाँ पर बर्फ पिघलती और जल में परिवर्तित हो जाती है। मौसम के बदलने से हिमनद रेखा का स्थान भी बदलता रहता है और उससे जलवायु और अंततः पर्यावरण पर प्रभाव पड़ता है। यदि पृथ्वी पर विद्यमान बर्फ पिघलकर नदियों के माध्यम से समुद्र में पहुंच जाए तो समुद्र के जल का स्तर ऊपर उठ जाएगा और समुद्र तटीय नगर जलमग्न हो जाएंगे हिमनद भी नदियों की ही भांति बालू, पत्थर, मिट्टी आदि जमा करते हैं। और कच्चे धरातल का निर्माण करते हैं।

प्रवाहमान या स्थिर दोनों ही प्रकार का पानी मानवीय गतिविधियों से प्रभावित होता है। जब जंगलों को काटकर खेती की जाती है या नगर बसाए जाते हैं, तो भूमिक्षरण और परिणामता मिट्टी, बालू की उपलब्धता अचानक बढ़ जाती है। नदियां इस अचानक बढ़ी हुई बालू, मिट्टी को नहीं ढो पाती हैं उनका तल ऊपर उठ जाता है और बाढ़ की संभावना बढ़ती है। अनेक क्षेत्रों में नदी, नाले अवरुद्ध हो जाते हैं। जलाशय झीलें, नहरे और नदियां पट जाती हैं, जहां पर भूमिक्षरण होता है। वहां की भूमि अनुउपजाऊ हो जाती है कीचड़ के कारण जल प्रदूषण होता है और मिट्टी जहाँ जाकर जमा होती है वहाँ की वनस्पति दब जाती है। भूमिक्षरण को रोकने का एक ही उपाय है पृथ्वी पर वनस्पति की चादर बिछाकर मिट्टी को सुरक्षित करना। इससे पृथ्वी की जल ग्रहण क्षमता स्वतः बढ़ जाएगी और भूजल भंडार बढ़ेंगे।

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शहरीकरण के फल स्वरुप जहाँ भवन बनते हैं वहाँ मिट्टी का क्षरण बढ़ता । भूमिक्षरण और अवसाद उत्पादन के कारण जहाँ एक ओर नदियों में बरसात के समय पानी का तूफान आता है वहीं गर्मी के दिनों में अनेक नदियां सूख जाती हैं। नदियों के तल में मिट्टी बालू भर जाने के कारण उनका विस्तार और किनारों पर फैलाव बढ़ जाता है। नदियों के विस्तार को रोकने के लिए नगरीय क्षेत्रों में अनेक स्थानों पर तटबंध बनाए जाते हैं, लेकिन जब कभी तटबंध टूटते हैं तो साथ में तबाही का सैलाब लाते हैं। तटबंधों के कारण नदी किनारो की वनस्पति और मिट्टी की नमी भी दुष्प्रभावित होती है।

जल की शुद्धता बनाए रखने में पानी में रहने वाले छोटे बड़े जीव जंतुओं का बड़ा महत्व है परंतु उन्हें अपने अस्तित्व के लिए पानी में खुली हुई ऑक्सीजन पर निर्भर रहना पड़ता है। यह ऑक्सीजन प्रदूषण कार्बनिक पदार्थ द्वारा नष्ट कर दी जा रही है।

अब मौसम वैज्ञानिकों द्वारा अतिवृष्टि और अनावृषिट की भविष्यवाणी संभव है और सरकारें अपना धर्म निभाते हुए आपदा प्रबंधन में लगती हैं, लेकिन इस काम में भी लगना चाहिए कि जब अच्छी वर्षा होगी तब और उसके पहले हम क्या कर सकते हैं ।

देश के जलवैज्ञानिक बता सकते हैं कि हमें प्रतिवर्ष कितना पानी चाहिए लेकिन उन्होंने शायद इस बात का आंकलन नहीं किया होगा कि भारत भूमि पर जो तालाब, झीलें, जलाशय, बावली और कुएं हैं उनमें कितना पानी भरने की क्षमता है । यह आंकड़ा पंचायतवार प्रधान उपलब्ध करा सकते हैं, बिना खर्चा। यह जानकारी क्षेत्रवार इन्टरनेट पर उपलब्ध करा सकते हैं वर्षा के पहले। अधिकांश तालाब अब सूखे पड़े हैं उनकी खुदाई करके उनकी जलधारक क्षमता जितनी बढाई जा सकती हो बढ़ाई जाय भले ही मनरेगा का पैसा ऐडवांस में खर्च करना पड़े । अब समय है हम आपदा प्रबन्धन के साथ साथ आपदा नियंत्रण और निवारण पर काम करें ।

देश में भूजल पर काम करने वाली अनेक संस्थाएं हैं, भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण, केन्द्रीय भूजल बोर्ड, प्रान्तों के प्रान्तीय भूजल बोर्ड, सिंचाई विभाग और ना जाने कितने विभाग धरती की ड्रिलिंग करते रहते हैं और आंकड़े अपने कार्यालयों में जमा करते रहते हैं। उन सब में कोई सामंजस्य नहीं रहता । यदि सभी विभाग जल सम्बन्धी सभी आंकड़े इन्टरनेट पर डाल दें और वैज्ञानिकों को इस काम पर लगाया जाय तो अधिक उपयोगिक हो सकता है। सरकारी योजनाएं बनाने में सहुलिय हो सकती है।

शहरों में जल संचय के लिए वाटर हारवेस्टिंग की योजना चलाई जा रही है, तो क्या यह योजना काम भी कर रही है, इसके मुल्यांकन का समय है। जमीन के अन्दर का पानी बराबर खर्च कर रहे हैं उसकी पूर्ति के लिए विचार करने की जरूरत है । इसके लिए आवश्यक है धरती के अन्दर का जलभंडार बढ़े । यह तभी सम्भव है जब हमारी जमीन पर वर्षा जल कुछ देर रुके । किसान अपने खेतों की मेड़ें ऊंची करके उन पर हेज यानी करौंदा जैसे पेड़ पौधे लगाकर बरसात के पानी को कुछ देर रोक सकते हैं और पानी धरती में प्रवेश कर जाएगा । यह सब अभी से या पहली वर्षा के तुरन्त बाद करना होगा ।

कभी कभी देश में पानी के लिए त्राहि त्राहि मचती है, और कभी बाढ़ आती है किसानों का तो जीवन ही संकट में हो जाता है कभी कभी पानी के आभाव में तबाही मचती है । जैसे 60 के दशक में हुआ था। यदि नदियों को जोड़ने की रिपोर्ट सरकारी दफ्तरों में धूल न खा रहीं होती तो शायद हालात कुछ बेहतर होते । लगता है गरीबी, भुखमरी, अकाल पर राजनीति हमेशा भारी पड़ती है । जल संकट आज है और अन्न संकट कल होगा फिर ऊर्जा सेकट परसों । छुद्र राजनीति से ऊपर उठने की जरूरत है ।

सच कहा जाय तो जल संकट की ही तरह ऊर्जा संकट की परछाई सारे देश और विशेषकर उत्तर प्रदेश पर लम्बी होती जा रहीं है। इस पर विवाद नहीं हो सकता कि हमारी सरकारें कृषि, उद्योग, परिवहन और घरेलू उपयोग के लिए पर्याप्त ऊर्जा उपलब्ध कराने का प्रयास कर रही है।

ऊर्जा उत्पादन मुख्य रूप से कोयला और पेट्रोलियम पर निर्भर है, जो खुद ही निरन्तर घटते हुए श्रोत हैं। घटती हुई उपलब्धता के साथ ही इनके कचरा विसर्जन और अम्लीय वायु प्रदूषण की समस्या है। ऊर्जा संकट से निपटने में जलशक्ति पहली प्राथमिकता होनी चाहिए थी। यह श्रोत सस्ता, साफ सुथरा और आसानी से उपलब्ध है ।

ऊर्जा श्रोत के दूसरे विकल्प हैं सौर ऊर्जा बायोगैस वायु ऊर्जा और पानी के गरम सोते। जलशक्ति हमें ज्वार-भाटा, तरंगों, जलताप और जलविद्युत के रूप में मिल सकती है और मिलती है। विकसित देशों के विकास में जलविद्युत का योगदान कुल आवश्यकता का 50 प्रतिशत से अधिक रहता है जबकि भारत में यह 15 प्रतिशत के लगभग है । ध्यान रहे भारत के पास जलशक्ति के उत्पादन की सम्भावना दुनिया के किसी भी देश से अधिक है।

ऊंचाई पर स्थित पानी में स्थितिज ऊर्जा होती हे जो बहाव के साथ गतिज ऊर्जा में बदल सकती है। यह गतिज ऊर्जा टर्बाइन घुमाकर बिजली पैदा कर सकती है । इसी तरह समुद्र सतह पर चलने वाली हवाएं धाराओं और लहरों के माध्यम से अपनी पवन ऊर्जा समुद्र को दे देती है । समुद्र तट पर दिन रात टकराती लहरें में टाइडल एनर्जी होती है जो विद्युत पैदा करने की क्षमता रखती हैं। इसी प्रकार नदियों पर बहुउद्देशीय बांध बनाकर जलविद्युत पैदा की जाती है। बांधों से जलाशयों में बड़ी मात्रा में पानी रोका जाता है जिसे सुरंग के द्वारा टर्बाइनों तक ले जाया जाता है जो जेनेरेटर्स को घुमाते हैं और बिजली पैदा होती है ।

देश में अनेक बड़े बांध हैं जैसे भाकरा नंगल, रिहन्द, नागार्जुन सागर, सरदार सरोवर और टिहरी बांध। विद्युत उत्पादन के साथ ही इन बांधों से सिंचाई, मछली पालन और पर्यटन को बढ़ावा मिलता है। इन बड़े बांधों से कुछ हानियां भी होती हैं जैसे जंगलों, खनिज सम्पदा और सांस्कृतिक धरोहर का जलमग्न होना और निवासियों का विस्थापन। फिर भी यदि भारत को विकसित देशों की जमात में जाना है तो यह हानि सहन करनी होगी।

यदि नदियों द्वारा ऊर्जा उत्पादन से बाढ़ और सूखा को नियंत्रित किया जा सके तो देश का कल्याण होगा । उत्तर भारत की नदियों में प्रायः अतिरिक्त जल रहता है जबकि दक्षिण की नदियों में कमी रहती है । चूंकि उत्तर से दक्षिण को जमीन का ढलान है इसलिए गंगा को कावेरी या अन्य नदियों को परस्पर जोड़ा जा सकता है । इस विषय पर अनेक रिपोर्टें सरकारी दफ्तरों में धूल खा रहीं हैं। यदि नदियों को जोड़ने का काम रोका न गया होता तो बाढ़ या सूख्चा इतना नहीं सताता और शायद भारत दुनिया का अनाज भंडार बना होता ।

जल संकट से उबरने के लिए जरूरत है पारम्परिक वाटर हार्वेस्टिंग और प्राकृतिक रीचार्ज की जिसके लिए आवश्यक तैयारी नहीं हुई है फिर भी कुछ तो अभी भी हो सकता है। यदि कुछ न किया तो किसी भी सरकार के लिए पेय जल उपलब्ध कराना असम्भव हो जाएगा ।

शहरों में जलाभाव की क्षतिपूर्ति के लिए दो उपाय सरकार ने सोचे हैं, एक तो सतह पर वर्षा जल का संचय और दूसरे भूमिगत जल को रीचार्ज करके भूजल में इजाफा। दोनों ही विधियां दूरगामी परिणाम ला सकती हैं परन्तु इनके अपने जोखिम भी हैं।

गंगा यमुना के मैदानी भाग के नीचे कई हजार मीटर बालू की परत है, जिसमें असीमित जलसंचय की क्षमता है। खूब वर्षा वाले इस इलाके में जलाभाव नहीं चाहिए। वर्तमान जलाभाव विभिन्न सरकारों के लोक लुभावन प्रयासों का परिणाम है । इन सरकारों ने वैज्ञानिकों के सचेत करने पर भी ध्यान नहीं दिया । वहां भी अनगिनत सरकारी ट्यूबवेल बनाए गए जहां भूमिगत जल स्तर दस से बारह मीटर तक की गहराई पर है । भूवैज्ञानिकों की सलाह है कि जहां छह मीटर से अधिक गहराई पर जल स्तर पहुंच गया हो वहां सिंचाई के लिए भूमिगत जल का उपयोग नहीं करना चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि विभिन्न कामों के लिए जल उपयोग की कोई स्पष्ट नीति नहीं है ।

लोकलुभावन कार्यक्रमों में मत्स्य पालन भी आता है जब सरकार तालाब खोदकर मछली पालन को प्रोत्साहित करती है और उन तालाबों में पानी की कमी को भूमिगत जल से पूरा किया जाता है। यह जलाभाव वाले क्षेत्रों में कतई स्वीकार्य नहीं है ।

हमारी सरकार शहरी पानी की हार्वेस्टिंग और भूजल के कृत्रिम रीचार्ज पर विशेष ध्यान दे रहीं है। कठिनाई तब हो सकती है जब वर्षाजल में प्रदूषित वायु घुलकर एसिड रेन यानी अम्लीय वर्षा होती है । शहरी इलाकों में प्रदूषण अधिक है इसलिए वर्षा जल भी अधिक प्रदूषित होता है जो पीने योग्य नहीं रहता । जमीन के अन्दर टैंक बनाकर वाटर हार्वेस्टिंग करने से वर्षा जल के स्वाभाविक भूमि प्रवेश में बाधा होगी। इस प्रकार वाटर हार्वेस्टिंग और कृत्रिम रीचार्ज को तात्कालिक लाभ से अधिक कुछ नहीं कह सकते। आज की तारीख में अत्यधिक वर्षा जल सड़कों पर भर जाता है इसमें से कितना समुद्र में वापस जाता और कितना संचित हो सकेगा साल भर के लिए, यह जल प्रबन्धन का विषय होना चाहिए ।

यदि ग्रामीण क्षेत्रों में उपलब्ध पेय जल की उचित व्यवस्था की जाय तो गांव का इलाका उसी तरह शहरों को पेय जल दे सकता है जैसे अनाज, फल और सब्जियां देता है। यदि गाँवों के तालाबों की रक्षा हो सके और उन्हें भूमाफियाओं से बचाया जा सके तो सिंचाई के लिए पानी कम नहीं पड़ेगा। गाँवों में यदि उद्योग लगाए जायं तो उनके लिए भी यह पानी उपलब्ध रहेगा। आजकल भूसतह पर मौजूद पानी पहले की अपेक्षा एक चौथाई बचा है। यदि सिंचाई का काम भूतल पर मौजूद जल से हो सके तो भूजल बचाया जा सकता है और शहरों को भेंजा जा सकता है ।

जल रीचार्ज की बहुत बड़ी समस्या है कंकड़ की वह परत जो जमीन के नीचे तीन चार फिट की गहराई पर मौजूद है। यह परत वर्षा जल को जमीन के अन्दर घुसने नहीं देती। यदि इसे पंक्चर न किया गया तो बरसात में पानी नीचे नहीं घुसेगा और गर्मियों में नीचे से पौधों की जड़ों तक ऊपर नहीं आएगा । जलभराव और सूखा की जड़ में यही कंकड़ की परत है।

देश के पारम्परिक पेड़ जैसे आम, जामुन, महुआ, पीपल, पकरिया और अर्जुन की जगह अब इउक्लिप्टिस और पाप्लर के विदेशी पेड़ लगाए जाते हैं जो जल्दी उगते और पैसा देते हैं । लेकिन पानी अधिक खाते है। इनकी जड़ें जमीन को उतना पंक्चर नहीं करतीं कि जमीन पानी को अन्दर जाने दे और गर्मियों में पेड़ पौधों के लिए पानी उपलब्ध रहे । यदि वर्षा जल द्वारा प्राकृतिक रीचार्ज हो सके और तालाबों, झीलों आदि में वाटर हार्वेस्टिंग हो सके तो समस्या का बेहतर समाधान होगा ।
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