मोदी ठान लें तो कोई नहीं रहेगा भूखा

Devinder Sharma | Nov 26, 2016, 14:44 IST

क्या यह दुखद नहीं है। साल दर साल बाद भी हमें उस एक मानवीय त्रासदी की याद दिलाई जानी पड़ती है जो सदियों बाद भी बनी हुई है। और हम एक देश के तौर पर उस त्रासदी के लिए शर्मिंदा तक महसूस नहीं करते। मैं भुखमरी की बात कर रहा हूं, जिसकी चपेट में आज भी करोड़ों भारतीय हैं। जबसे मुझे याद है, दुनिया में सबसे ज्यादा भूखे लोगों की सूची में भारत हमेशा से आगे रहा है। हमारे चारों ओर भूख और गरीबी है, लेकिन पता नहीं क्यों, हमें इस भूख और गरीबी की इतनी आदत हो गई है कि हम इसे लेकर ज़रा भी आक्रोशित नहीं होते।

कुछ हफ्ते पहले वाशिंगटन स्थित अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान (आईएफपीआरआई) ने ग्लोबल हंगर इंडेक्स (वैश्विक भूख सूचकांक) की सूची जारी की। ये सूची देशों की जनसंख्या और उस देश में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या के अनुपात के आधार पर बनाई गई है। 118 विकासशील देशों की इस सूची में भारत का 97वां स्थान है, यानी पाकिस्तान के अलावा भारत के सभी पड़ोसी देशों में सबसे खराब। 11 साल पहले इस सूची में भारत का 119 देशों में 96वां स्थान था। यानी इस साल, जबकि दावा किया जा रहा है कि हमारी जीडीपी दुनिया में सबसे ज़्यादा होगी, भारत भुखमरी से लड़ने के मामले में 11 साल पहले से भी खराब हालत में पहुंच गया है।

मुझे हैरानी नहीं है कि रिपोर्ट आने के एक-दो दिन बाद तक मीडिया ने भुखमरी के मामले में भारत की खराब रैंकिंग पर रस्म अदायगी के अंदाज़ में रिपोर्टिंग की। उसके बाद सब भुला दिया जाएगा। आपको अखबारों में एक जैसे संपादकीय दिखेंगे, एक तरह की राय वाले आर्टिकल होंगे और जैसे ही मामला ठंडा होगा सबकुछ पहले जैसा हो जाएगा। सिर्फ मीडिया ही नहीं, नीतियां बनाने वाले लोग भी भुखमरी को भूल कर आर्थिक विकास, छह लेन वाले नए हाई वे, नई सिंचाई परियोजनाओं, नए हवाईअड्डों, ढांचागत परियोजनाओं, वनों और प्राकृतिक संसाधनों के निजीकरण से जुड़ी योजनाओं में जुट जाएंगे। भुखमरी ख़त्म करना कभी उनकी वरीयता में था ही नहीं।



कम से कम पिछले 11 साल में, यानी जबसे ग्लोबल हंगर इंडेक्स की शुरुआत हुई है, मानवता के सबसे बड़े अभिशाप को मिटाने के नाम पर भारत के पास दिखाने के लिए ज़्यादा कुछ नहीं है। मैं मानता हूं कि भुखमरी हटाना बहुत जटिल और चुनौतीपूर्ण काम है, लेकिन ये नामुमकिन यकीनन नहीं है। पर देश के प्रधानमंत्रियों की अच्छी मंशा के बावजूद इस दिशा में उपयुक्त आर्थिक नीतियां बनाने का काम नौकरशाही के भरोसे छोड़ दिया गया है, जो दुर्भाग्य से खुद कुछ कॉर्पोरेट इकनॉमिक सोच वाले हैं और जिन्हें लगता है कि गरीबी को सिर्फ 'ट्रिकल डाउन' थ्योरी से ख़त्म किया जा सकता है।

2013 में जब देश में खाद्य सुरक्षा अधिनियम पर चर्चा हो रही थी तो मुख्यधारा के कुछ अर्थशास्त्रियों ने इसका पुरज़ोर विरोध करते हुए कहा था कि शहरी इलाकों के 50 फीसदी और ग्रामीण इलाके के 75 फीसदी गरीबों के भोजन पर आने वाला खर्च निरर्थक है। उनका कहना था कि इससे देश का वित्तीय घाटा बढ़ेगा। मनरेगा और खेती के लिए बजट को हमेशा कम से कम रखने की कोशिश की जाती रही है। आधारभूल सोशल सिक्योरिटी नेट, जैसे सरकार की तरफ़ से दी जानी वाली शिक्षा या स्वास्थ्य सुविधाओं में कटौती ने ग्रामीण और शहरी इलाक़ों में गरीबी को और बढ़ाया है।



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास बहुत बड़ा अवसर है कि वह भुखमरी से लड़ने के प्रयास तेज करें और इसे जड़ से मिटाने के लिए मुख्यधारा में आकर कार्रवाई करें। ये देखते हुए कि इस विषय में पहले किए गए सारे प्रयास असफल साबित हुए हैं, नए प्रयासों को सार्थक करने के लिए फिर से रणनीति बनाने की जरूरत है। अगर सरकार हर महीने बिजनेस रैंकिंग को सुधारने की कोशिश कर रही है तो फिर वैश्विक भूख सूचकांक में भारत की स्थिति सुधारने के प्रयास क्यों नहीं किए जा सकते। इसके लिए सिर्फ मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है।

(लेखक प्रख्यात खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)

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