भारत विभाजन पर वाक् युद्ध, जिम्मेदार कौन?

Dr SB Misra | Aug 23, 2025, 11:03 IST

भारत विभाजन को लेकर आज भी बहस जारी है। उस समय तीन प्रमुख हस्ताक्षरों - नेहरू, जिन्ना और माउंटबेटन - ने इतिहास की दिशा तय की। गांधी जी कट्टर विरोधी थे और आख़िरी क्षण तक विभाजन रोकने की कोशिश करते रहे। लेकिन क्या बँटवारा टाला जा सकता था? और असली जिम्मेदारी किसकी थी - नेताओं की महत्वाकांक्षा, अंग्रेज़ों की रणनीति या हालात की मजबूरी? यह लेख उन्हीं सवालों पर गहराई से नज़र डालता है।

भारत विभाजन की जिम्मेदारी को लेकर एक फिल्म बनी है और उस पर वाक् युद्ध चल रहा है। जिम्मेदार जो थे उनकी तो चर्चा बाद में, लेकिन विभाजन के कागज़ों पर हस्ताक्षर जब शिमला में हुए तो वे हस्ताक्षर तीन लोगों ने किए थे - पंडित जवाहरलाल नेहरू, माउंटबेटन और मोहम्मद अली जिन्ना। उन तीनों पर कोई दबाव नहीं था, कोई बंदिश नहीं थी। उन्होंने स्वेच्छा से विभाजन के कागज़ों पर हस्ताक्षर किए थे। और यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उस समय महात्मा गांधी शिमला में मौजूद थे। मैं नहीं जानता कि यदि वे निर्णय लेने वाली मेज पर उपस्थित होते तो फैसला क्या होता। वैसे गांधी जी कह चुके थे - “भारत का बँटवारा मेरी छाती पर होगा” और वे भारत विभाजन के कट्टर विरोधी थे। विभाजन रोकने के लिए उन्होंने भरसक प्रयास भी किया था।

कांग्रेस पार्टी के अंदर गांधी जी के अलावा किसी ने विभाजन का मुखर विरोध किया हो, ऐसा सामने नहीं आता, लेकिन मौलाना अबुल कलाम आज़ाद निश्चित रूप से इसके विरोधी थे। मौलाना आज़ाद ने मोहम्मद अली जिन्ना से कहा था — “तुम्हारा यह कहना कि हिंदू-बहुल भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यक आबादी सुरक्षित नहीं होगी, लेकिन सोचकर देखो — बचे हुए भारत में जो मुसलमान रह जाएंगे, वे तो और अधिक अल्पसंख्यक होंगे। और उनकी सुरक्षा के लिए तुम्हारे पास क्या समाधान है?” इसका उत्तर मोहम्मद अली जिन्ना ने क्या दिया, यह तो पता नहीं।

लेकिन विभाजन को रोकने के लिए गांधी जी, मोहम्मद अली जिन्ना तक को अविभाजित भारत का प्रधानमंत्री बनने को तैयार थे। यह प्रस्ताव गांधी जी ने माउंटबेटन के सामने रखा भी था। पर माउंटबेटन को भरोसा नहीं था कि कांग्रेस मान जाएगी, अतः उन्होंने चाहा कि कांग्रेस कमेटी का प्रस्ताव आ जाए तो सरल होगा। नेहरू जी ने गांधी जी का यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया और बात वहीं की वहीं रह गई।

विभाजन से गांधी जी इतने खिन्न थे कि जब विभाजित भारत में आज़ादी का जश्न मनाया जा रहा था तो गांधी जी कोलकाता और नोआखाली में दंगे शांत कराने में लगे हुए थे। गांधी जी को भारत विभाजित होने से कितनी पीड़ा हुई होगी, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। जिन नेहरू जी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए गांधी जी ने अपनी पूरी ताक़त लगा दी थी — 1935 में नेताजी सुभाषचंद्र बोस को और 1946 में वल्लभभाई पटेल को रास्ते से हटाकर नेहरू जी के लिए प्रधानमंत्री की कुर्सी सुनिश्चित कर दी थी।

जहाँ तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सवाल है, उसके कार्यकर्ताओं ने व्यक्तिगत स्तर पर जश्न में भाग लिया होगा, लेकिन विभाजित भारत के बाद संगठनात्मक दृष्टि से कोई जोश नहीं था। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार जी, संघ की स्थापना से पहले लगभग चार साल कांग्रेस पार्टी के सदस्य रहे थे। लेकिन उनके मन में बड़ा लक्ष्य था और 1925 में संघ की स्थापना की।

यह सच है कि कांग्रेस के तरीके से आज़ादी की लड़ाई में संघ के स्वयंसेवकों ने भाग नहीं लिया, लेकिन उनके मन में नेताजी सुभाषचंद्र बोस, सुखदेव, भगत सिंह, राजगुरु, चंद्रशेखर आज़ाद, मदनलाल ढींगरा, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ उल्ला ख़ान जैसे अनेक योद्धाओं के प्रति संघ ने हमेशा ही श्रद्धापूर्वक सम्मान व्यक्त किया है। इस विषय के विस्तार में जाने से विषयांतर हो जाएगा, इसलिए विभाजन पर ही केंद्रित रहना उचित होगा।

ऐसा प्रतीत होता है कि अविभाजित भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू नहीं हो सकते थे यदि गांधी जी ने हस्तक्षेप नहीं किया होता। इस बात को “सरदार” नाम की फिल्म में दर्शाया गया है। भारत विभाजन पर गांधी जी की बात मानी गई होती तो आज़ादी कुछ समय के लिए टल सकती थी, भले ही अंग्रेज अपना बोरिया-बिस्तर लेकर भाग गए होते। 1946-47 में अंग्रेजों की आर्थिक हालत यह नहीं थी कि वे भारत को संभाल सकें। वे भारत छोड़कर बाइज़्ज़त जाना चाहते थे। वह मौका नेहरू और कांग्रेस ने कॉमनवेल्थ में शामिल होकर आज़ादी स्वीकार करके अंग्रेजों को दे दिया।

यह कहना कि विभाजन को खून-खराबा रोकने के लिए स्वीकार किया गया था, सच नहीं है। खून-खराबा विभाजन के बाद हुआ और दोनों देशों की आबादी का बड़े पैमाने पर पलायन सभी जानते हैं। आज़ाद भारत में भी हिंदू-मुसलमान के बीच दंगे होते रहे हैं और आज भी हो रहे हैं। तो विभाजन भी हुआ और खून-खराबा भी हुआ।

कुछ लोग विनायक दामोदर सावरकर को विभाजन के लिए जिम्मेदार मानते हैं और इस तर्क का आधार बताते हैं सावरकर का संघ से संबंध होना। यह तो अनभिज्ञता का बयान है या जानबूझकर शरारतपूर्ण वक्तव्य, क्योंकि सावरकर जी कभी भी संघ की शाखा पर नहीं गए। वे न तो स्वयंसेवक थे और न संघ के पदाधिकारी। सावरकर जी ने हिंदू और मुस्लिम आबादी की अदला-बदली की बात कही थी, लेकिन यह संघ विचार से सर्वथा विपरीत थी। उन्होंने यह बात हिंदू महासभा के कर्ताधर्ता के रूप में कही थी, न कि संघ के प्रतिनिधि के रूप में।

इसी प्रकार डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नाम लिया जाता है। इन लोगों को जो राजनीति में हैं, इतना तो पता होगा कि डॉक्टर मुखर्जी पहले हिंदू महासभा में थे और उसके बाद जनसंघ की स्थापना की थी। जनसंघ अपने जन्म से ही अखंड भारत का पक्षधर था। तब डॉ. मुखर्जी को इस विवाद में नहीं लाया जा सकता था।

यदि भारत के विभाजन को देशवासियों ने एकजुट होकर रोका होता तो वह रुक भी जाता, लेकिन आज़ादी का समय टल जाता। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अंग्रेजों को तो जाना ही था। वे भुखमरी के कगार पर थे, वे चले जाते। उनके जाने के बाद क्या होता, यह कल्पना का विषय है। मेरे विचार से देश बिखरता नहीं।

गांधी जी ने कहा था — “कांग्रेस का काम पूरा हो गया है और अब उसे भंग कर देना चाहिए।” किसी ने नहीं माना। लेकिन यह कल्पना का विषय है कि यदि गांधी जी की बात मान ली गई होती तो क्या विभाजन स्वीकार्य होता? अथवा क्या नेहरू जी अविभाजित भारत के पहले प्रधानमंत्री बन पाते? शायद नहीं।

यदि गांधी जी की राय मानकर कांग्रेस पार्टी को भंग कर दिया गया होता तो नेहरू जी पार्टी के अध्यक्ष भी नहीं बनते। यदि वल्लभभाई पटेल देश के पहले प्रधानमंत्री बने होते तो फिर बंटवारे की शर्तों के अनुसार भारत और पाकिस्तान को हिंदू और मुस्लिम आबादी के अनुपात में क्षेत्रफल दिया जाता, जैसा जिन्ना ने माँगा था। लेकिन जब शरणार्थी बराबर आ रहे थे पाकिस्तान से, तो वल्लभभाई पटेल ने कहा था — “यदि बहुत ज़्यादा शरणार्थी आए तो उन्हें बसाने के लिए ज़मीन पाकिस्तान से लेनी होगी।”

इस प्रकार यदि हम निष्पक्ष भाव से सोचें तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विनायक दामोदर सावरकर या डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी को विभाजन के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि इनके पास विभाजन स्वीकार करने की न शक्ति थी और न इच्छा। कम से कम उस समय के लेखों से तो ऐसा ही प्रतीत होता है।

इसी प्रकार अंग्रेजों को भी भारत बँटवारे का जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। गवर्नर जनरल माउंटबेटन को इंग्लैंड सरकार द्वारा यह दायित्व दिया गया था कि शांति पूर्वक भारत को आज़ाद कर दिया जाए। भले ही अंग्रेजों का झुकाव मुस्लिम लीग की तरफ था, बंटवारे का जिम्मेदार उन्हें नहीं ठहराया जा सकता।

जिम्मेदारी उनकी होगी जो फैसला कर सकते थे, हस्ताक्षर कर सकते थे। बँटवारे के कागजात पर हस्ताक्षर करने वालों में सर्वाधिक इच्छुक थे मोहम्मद अली जिन्ना। भले ही जब वे इंग्लैंड से भारत आए तो आरंभ में एक सेकुलर व्यक्ति थे और मुस्लिम लीग से दूरी बनाए रखते थे। संभवतः वे कांग्रेस के सदस्य भी रहे हों, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि उन्होंने कांग्रेस पार्टी कब और क्यों छोड़ी।

लेकिन वे कब और कैसे मुस्लिम लीग में शामिल हुए और क्यों शामिल हुए — यह सोचने का विषय है। यह सत्य है कि सबसे अधिक सक्रिय और प्रभावी भूमिका भारत विभाजन में मोहम्मद अली जिन्ना की रही।

माउंटबेटन को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि अंग्रेज लोग भारत से छुटकारा चाहते थे और सम्मान सहित अपने घर लौटना चाहते थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उनकी हैसियत नहीं बची थी कि वे भारत जैसे विशाल देश पर शासन कर सकें। उन्हें तो जाना ही था, वे चले भी जाते। उन्होंने 15 अगस्त का अल्टीमेटम दे रखा था, तब तक फैसला करना था। फैसला करने का अधिकार कांग्रेस पार्टी के पास था और उसी ने फैसला किया। कांग्रेस पार्टी के प्रमुख कर्ताधर्ता नेहरू जी थे और इसलिए सारे फैसलों की जिम्मेदारी उन्हें ही लेनी पड़ेगी।

मुझे लगता है जल्दी आज़ादी पाने की इच्छा उन्हीं लोगों में सर्वाधिक थी जो तुरंत लाभान्वित होने वाले थे — मंत्री या अधिकारी बनने वाले थे और बने भी। फिर भी, इतिहास जानने वाले ही इस पर प्रकाश डाल सकते हैं। लेकिन यदि नेहरू और गांधी जी के साथ काम करने वाला कोई जीवित होता और सक्रिय रहा होता, तो वह साधिकार उत्तर दे सकता था।