जब गाँव बदले, खेती बदली और किसान अकेला पड़ गया

Dr SB Misra | Dec 13, 2025, 15:30 IST
( Image credit : Gaon Connection Creatives, Gaon Connection )

भारत की खेती 10,000 साल पुरानी है, लेकिन आज किसान अपने ही खेत में असहाय खड़ा है। कैसे विकास के गलत मॉडल, रसायनिक खेती और नीतिगत खैरात ने किसान को आत्मनिर्भर से आश्रित बना दिया।

<p>किसानों को आर्थिक संकट से निकालने का एक ही उपाय है कि गाँवों में स्थायी रोजगार के अवसर मुहैया कराए जाएँ।<br></p>
भारत में खेती किसानी का इतिहास करीब 10000 साल पुराना है क्योंकि मोहनजोदड़ो हड़प्पा तथा लोथल के जमाने में भी खेती के प्रमाण मिलते हैं। काफी पुराने समय में गेहूं जो और चावल के अवशेष भी पाए गए हैं। भारत का किसान कृषि लालच व्यापार या लाभ कमाने के लिए खेती नहीं करता था इस प्रकार उसके कार्यकाल आप गीता के संदेश के अनुसार होते थे, जिसमें कम करना ही हमारा अधिकार है फल की इच्छा नहीं रखना। आज भारत के किसान की हालत दयनीय हो चुकी है और उसे पग–पग पर संघर्ष करना पड़ रहा है। केवल खेती के सहारे जीवन यापन भी सरल नहीं रह गया।

बहुत पहले गाँव पर एक कविता पढ़ी थी ‘‘प्रकृति सुन्दरी की गोदी में खेल रहा तू शिशु सा कौन” लेकिन अब प्रकृति की सुन्दरता समाप्त हो रही है। सुन्दरता का एक पैमाना था हरियाली और दूसरा शान्त, स्वस्थ, सुखी जीवन। गाँव के विकास में श्रम और मुफ्त ऊर्जा का प्रमुख योगदान रहता था। अब विकास का शहरी मॉडल जिसमें पूंजी पर जोर और महंगी ऊर्जा पर निर्भरता रहती है। जिन्होंने चालीस और पचास के दशक के गाँव देखे थे उनका गाँव कहीं खो गया है।

गाँवों में बैल तो बचे नहीं, छोटे से छोटा किसान भी किराए के ट्रैक्टर से काम चलाता है। सामान ढोने के साधन बदल चुके हैं और अब वह ऊर्जा जो डीजल, पेट्रोल और बिजली की मोहताज नहीं थी, उपलब्ध नहीं है। शायद हम भूल रहे हैं कि पृथ्वी के अन्दर का पेट्रोलियम जिससे पेट्रोल, डीजल और मिट्टी का तेल बनता है और कोयला जिससे बिजली बनती है, समाप्त हो रहे हैं ।

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गाँवों में मनोरंजन में पूंजी यानी पैसे का कोई काम नहीं था। लोकगीत, लोकनृत्य, नौटंकी, धोबिया नाच, हुड़ुक की थाप पर नाचते गाते बधावा देना। नटों और बाजीगरों के करतब बिना पैसे के देखने को मिलते थे। अब गाँवों में भी रेडियो तक किसी कोने में दुबक कर बैठ गया है और टीवी अकड़ कर चौपाल में बैठा है। हमारे ग्रामीण नौजवान उस टीवी पर देखते हैं, सिनेमा के सीरियल, फ़िल्में और नाच गाने या फिर पांच दिन तक समय खाने वाला क्रिकेट मैच। पैसा है तो मनोरंजन है नहीं तो मन मार कर बैठे रहो ।

गाँव का आदमी जल्दी से पैसा कमाना चाहता है। दुधारू जानवरों को इंजेक्शन लगाकर ज्यादा दूध निकालता है और खेतों में अंग्रेजी खाद डालकर जल्दी ही अधिक पैदावार चाहता है। उसे ज्ञान नहीं कि इन सब के भयानक नतीजे सामने आ रहे हैं। इंजेक्शन द्वारा निकाले गए दूध का सेवन करके पुरुषों का पुरुषत्व तो चला ही जायेगा, अस्तित्व भी खतरे में पड़ेगा। गाँवों का आर्थिक उतावलापन पूरे देश के लिए घातक होगा।

देश आजाद हुआ तो पहली बार विकास का नेहरूवियन मॉडल हमारे सामने आया। गांधी माडल को परखा नहीं जा सका क्योंकि वह व्यवहार में लाया नहीं गया। आज के जो माडल चर्चा में हैं उनमें मोदी मॉडल जिसका उद्देश्य, प्राथमिकताएँ और फोकस उभर कर आ रहे हैं। नेहरूवियन माडल एक नियंत्रित अर्थव्यवस्था थी जिनमे बड़े उद्योग और मशीनों द्वारा उत्पादन तथा वितरण पर जोर था, जल्दी से जल्दी विकसित देशों की कतार में खड़ा होने की चाहत थी। इस मॉडल में गाँव नहीं था, देश भूखा हो गया, अकाल पड़ा और विदेशी अनाज से पेट भरना पड़ा।

नरेन्द्र मोदी के गुजरात माडल में अच्छी सड़कें, बिजली की उपलब्धता, विदेशी मुद्रा, उद्योगपतियों का रुझान, शिक्षा की अच्छी व्चवस्था, अच्छी स्वास्थ्य सेवाएँ, रोजगार के साधन और अर्थ व्चवस्था की तेज विकास दर प्रमुख हैं। संक्षेप में नेहरुवियन मॉडल के पब्लिक सेक्टर के स्थान पर प्राइवेट सेक्टर का बोलबाला हो रहा है। प्रशासन की दक्षता और जाति धर्म का भेद किए बिना सबके लिए समान अवसर देने वाली योजनाएँ भी लागू हैं। सोचना होगा क्या भय और भूख पर विजय मिली है और क्या गुजरात का माडल भारतीय स्तर पर लागू हो सकेगा।

मॉडल जो भी हो, आवश्यकता होगी अधिकाधिक पूँजी निवेश, अच्छी कानून व्यवस्था, युवक-युवतियों को प्रशिक्षण, महिलाओं की विकास में भागीदारी और चुस्त दुरुस्त प्रशासन। गाँवों के लिए गांधी जी का विकास का मॉडल कुछ मामलों में अजमाया जाना चाहिए। स्वावलम्बी गाँव जाति विहीन पंचायती राज, महिलाओं की सुनिश्चित भागीदारी, ऐसी परियोजनाएँ जिनमें धर्म और जाति के आधार पर गिनती न करनी पड़े।

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प्रायः देखा गया है कि गेहूँ और चना शहर की मंडियों में जाता है और वहाँ से दलिया, सूजी, मैदा, बेसन, जानवरों का चोकर बनकर सब वापस गाँव को आते हैं। इनके अलावा भी अन्य कृषि आधारित उत्पादों के कारखाने जैसे जैम, जेली, पापड़, गुड़, तेल आदि गाँवों में ही बन सकते हैं, लेकिन बनते शहरों में हैं। यदि ग्रामीण क्षेत्रों में गतिविधियाँ बढ़ेंगी, रोजगार मिलेंगे और ग्रामवासियों का शहरों की तरफ पलायन भी रुकेगा। इन सब के लिए किसी मॉडल की आवश्यकता नहीं है, ये सब परम्परागत उद्यम हैं जिन्हें शहरों से हटाकर गाँवों में पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। यदि मॉडल ही चाहिए तो आदर्श मॉडल वह होगा जो सामाजिक समरसता और मानव विकास के साथ भय और भूख मिटाने की क्षमता रखता हो। भौतिक विकास के साथ मानव विकास पर जोर हो। विकास का आदर्श मॉडल वह होगा जिसमें ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयः” का भाव छुपा हो ।

किसानों और मजदूरों को अनाज की खैरात ना देकर उन्हें वह ताकत दी जानी चाहिए जिससे वे अनाज खरीद सकें। अफसोस है कि सरकार लोगों को बैसाखी पर जिन्दा रखना चाहती है, अपने पैरों पर खड़ा नहीं होने देगी।

किसानों को आर्थिक संकट से निकालने का एक ही उपाय है कि गाँवों में स्थायी रोजगार के अवसर मुहैया कराए जायं। ऐसे उद्योग लगाए जाएँ जहाँ किसानों द्वारा उगाई गई चीजों का कच्चे माल की तरह प्रयोग करके उत्पाद बने और किसानों को उन उद्योगों में नियमित नौकरी मिले। उनका भला ना तो मनरेगा से होगा और ना ही मिडडे मील या खाद्य सुरक्षा से। उन्हें चाहिए आर्थिक स्वावलम्बन।

उत्तर प्रदेश के किसानों का फसली कर्जा माफ़ कर दिया गया तो मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, पंजाब और तमिलनाडु में भी कर्जा माफी की आवाज उठने लगी । कल सारे देश से आवाज उठेगी हमें कर्जा दो और उसे माफ कर दो। या फिर मुफ्त में बीज, खाद, पानी दे दो और हम जो पैदा कर पाएंगे उपलब्ध भाव से बेचते रहेंगे। क्या किसान पिछली सरकारों से बेहतर हालत में है आज? खैरात बांटने का पिछली सरकारों ने भी किया था और उसके पहले वालों ने भी।

क्या पुरानी सरकारों की खैरात वाली डगर पर चलकर किसान की आय दूनी हो जाएगी? उसकी आय तभी दूनी होगी जब उसका आलू, टमाटर और प्याज उसकी लागत से दूने दाम पर बिकेगा। दालों के दाम बढ़े तो आप ने दाल का आयात कर लिया। किसान को क्या मिला क्योंकि किसान तो जो बोता है वहीं खाता है दाल खरीद कर नहीं खाता। किसान मेंथा बोता है तो उसके बच्चों की पढ़ाई शायद हो जाय लेकिन सेहत नहीं सुंधरेगी। बहुतों को पता होगा कि चीन ने मेंथा की खेती प्रतिबंधित कर दी थी।

आप ने खैरात बांट कर किसानों की आत्महत्याएं बन्द करनी चाहीं लेकिन यह नहीं वोचा कि आत्महत्या की नौबत ही क्यों आई। आज से 50 साल पहले भी किसान कर्जा लेता था, ब्याज देता था और कर्जा चुकता भी था। रूखा सूखा खाकर जीवन बिताता था लेकिन आत्महत्या नहीं करता था। आत्महत्या इसलिए करता है कि पहले की सरकारों ने कर्जा माफी की आदत डाली और जब बैंकों ने वसूली आरम्भ की और सिर से बड़ी आंख हो गई यानी मूलधन से अधिक ब्याज हो गया तो उसे कोई रास्ता नहीं दिखाई वढ़ा जीवन लीला समाप्त करने के अलावा।

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आखिर उपाय क्या है? किसान जो कच्चा माल पैदा करता है उससे गाँवों में उद्योग लगाकर गाँव में ही सामान बने जैसे तेल, दलिया, बेसन, चिप्स, सॉस, चॉकलेट आदि और किसान का गाँव में ही लागत मूल्य वसूल हो जाए। मोदी जी कहते तो हैं कि हम आटा बाहर भेजते हैं और रोटी आयात करते हैं। यह सटीक है किसान के लिए जो गेहूं, चावल, दालें, सब्जियों शहर भेजता है और टॉनिक, सॉस, ब्रेड, चाकलेट बच्चों के लिए महंगे दाम पर खरीदता है। हम गांधी जी के नाम की माला तो जपते हैं लेकिन स्वावलम्बी गाँव जो गांधी जी का सपना था उसके लिए क्या किया ।

वर्तमान परिस्थितियों में गाँव के कर्मठ नौजवान यदि बड़ी, मुंगौड़ी, पापड़, बेसन और दलिया जैसी चीजें बनाना भी चाहें तो बेचने की व्यवस्था नहीं है। सरकार वह आलू पांच रुपया किलो खरीदने को तैयार है तो कितने किलो खरीदा। यदि किसान की लागत 6 रुपया प्रति किलो है और आप पांच में खरीद रहे हैं, कोई मेहरबानी नहीं कर रहे हैं। शहरी इलाकों की की जरूरतों को पूरा करने के लिए आयात बन्द हो और बाजार में जो उपलब्ध है खाइए। किसान यदि गुड़ बनाना चाहता है तो लाइसेंस चाहिए, आटा चक्की या तेल घानी के लिए लाइसेंस चाहिए। तो दूसरों को यह सब करने के लिए प्रेरित करिए किसानों के बच्चे उन कुटीर उद्योगों में रोजगार कैसे पाएंगे।

जब तक आप बातें गांधी की करेंगे और काम नेहरू वाला करेंगे तो किसान तो मरेगा ही और देश फिर से पीएल 480 का गेहूँ खोजेगा। कभी कभी शास्त्री को भी याद करिए। आवश्यकता है किसान की क्रयशक्ति बढ़ाने की जो तभी बढ़ेगी जब उसके द्वारा पैदा किया हुआ कच्चा माल गाँवों में बने कारखानों में प्रयोग होगा। और उसे उचित दाम मिलेगा। उसकी कर्जा चुकाने की आदत केा मारिए नहीं बल्कि उसे बल दीजिए। किसान के हित अनेक बार व्यापारी के हितों से टकराते हैं तब आप को निर्णय करना होगा प्राथमिकता क्या हो।

कुछ मजबूरी और कुछ लालच में किसानों ने विदेशी विधियां अपनाकर पचास साल खेती किया और अपने खेतों की मिट्टी, जमीन के अन्दर का पानी और वातावरण की हवा प्रदूषित कर ली। अन्नदाता की मजबूरी बनी देश की आबादी जो 1955 में केवल 40 करोड़ थी और आज 140 करोड़ हो गई है। अन्नदाता कहाँ तक पूर्ति करता। साठ के दशक में भुखमरी की नौबत आ गई तो इन्दिरा गांधी की सरकार ने किसानों पर लेवी लगा दिया, जिसका मतलब था जमीन के रकबा के हिसाब से सरकारी क्रय केन्द्रों पर गेहूं की एक निश्चित मात्रा जमा करनी थी, अन्यथा सजा का प्रावधान था। उन्हीं दिनों बाजार में उन्ही दिनों अधिक उपज वाली बौनी प्रजाति का गेहूं और धान आया जिसकी किसान को अत्यन्त आवश्यकता थी।

बौनी प्रजातियों की पैदावार पारम्परिक गेहूं से कई गुना अधिक थी और किसानों ने पैदावार पूरी लेने के लिए यूरिया झोंकना आरम्भ कर दिया। बाद में लेवी वसूली बन्द हो गई लेकिन किसान का लालच नहीं बन्द हुआ। जो मैक्सिकन गेहूं वरदान बनकर आया था, अन्ततः अभिषाप बन गया। यह गेहूं कई गुना अधिक पैदावार देता है फिर भी गिरता नहीं है लेकिन इसमें पानी और खाद की अधिक आवश्यकता होती है। फिर आईं धान की नई नई प्रजातियाँ जिनमे बौने धान की आईआर -8 किस्म प्रमुख थी। भारत के किसानों ने अपनी पुरानी किस्में भूलकर गेहूं और धान की नई प्रजातियों को अपना लिया, इसे हरित क्रान्ति कहा गया।

निरन्तर पैदावार बढ़ाते रहने के प्रयासों से रसायनिक खादों का उपयोग खूब बढ़ा और फसलों में बीमारियाँ भी बढ़ीं। बीमारियों से छुटकारा पाने के लिए कीट-नाशक, फफूँद नाशक और ना जाने कितने प्रकार के इन्सेक्टीसाइ और पेस्टीसाइड प्रयोग होने लगे। दवाइयायाँ छिड़कते रहे बीमारियाँ बढ़ती रहीं। पानी की अत्यधिक मांग के कारण भूजल पर दबाव बढ़ा और जलस्तर गिरता गया, पेस्टीसाइड और इन्सेक्टीसाइड के अधिक प्रयोग से कैंसर जैसी बीमारी गॉंवो में भी फैल रही है और रसायनिक पदार्थों के विकिरण से हवा जहरीली हो रही है ।

खेती अब जीवन यापन का जरिया न होकर व्यावसायिक रूप ले रहीं थी, किसान का लालच भी बढ़ रहा था। सत्तर के दशक में तो किसानों को लगा हम जितना यूरिया डालते जाएँगे पैदावार बढ़ती जाएगी लेकिन यह ज्यादा समय नहीं चला। एक समय आया जब यूरिया बढ़ाने के बाद भी पैदावार बढ़नी बन्द हो गई। पता चला कि यूरिया तो पौधे को केवल नाइट्रोजन देती है, उसे फास्फोरस और पोटाश भी चाहिए। तब किसानों ने एनपीके अर्थात नाइट्रोजन-फास्फोरस-पोटाश डालना शुरू कर दिया। अनेक स्थानों पर एनपीके की मात्रा बढ़ाते रहने के बावजूद प्रति एकड़ पैदावार बढ़नी बन्द हो गई।

वैज्ञानिकों ने बताया अकेले एनपीके पर्याप्त नहीं है। जब खूब खाद डालते हों तो तन्दुरुस्त पौधों को उसी अनुपात में विविध सूक्ष्म तत्व या खनिज जैसे लोहा, ताँबा, कैल्शियम, सल्फर, जस्ता, मैग्नीशियम आदि की भी जरूरत बढ़ जाती है और पौधा जमीन से इन तत्वों को घसीटता है। उदाहरण के लिए जब दुधारू गाय को इंजेक्शन लगाकर दूध निकालते जाते हैं तो उसका शरीर टूटता जाता है उसी प्रकार धरती से उर्वरा शक्ति खींचते रहने से धरती बाँझ होने लगी है। इसके विपरीत जब धीरे–धीरे पौधे इन तत्वों को लेते हैं तो प्रति वर्ष मिट्टी छीजने या रिसने से सूक्ष्म तत्व मिट्टी में बनते रहते हैं।

आजकल कुछ लोग कहते हैं बहुफसली खेती करनी चाहिए मानों कोई आविष्कार किया हो। इस देश में जब पुरानी प्रजातियाँ बोई जाती थीं तो किसान मिली जुली खेती करता था, जैसे गेहॅू-सरसों, चना-अलसी-सरसों, अरहर-उरद, ज्वार और ना जाने कितने मिश्रण बनाकर बोए जाते थे। बौनी प्रजातियाँ आने के बाद एकल प्रजाति (मोनो क्राप) में तात्कालिक लाभ दिखाई पड़ा और बहुफसली खेती केा बन्द कर दिया गया। खाद्यानों की विविधता कम होने लगी और अनेक प्रजातियाँ तो विलुप्त हो गई या हो रही हैं। वास्तव में बहुफसली खेती के बहुत लाभ थे और इस ओर फिर से वैज्ञानिकों और किसानों का ध्यान जा रहा है ।

विदेशों से एक और समस्या आई उन्नत बीजों के साथ। अनेक प्रकार के खर पतवार के बीज भी आ गए जो स्थानीय उत्पत्ति के नहीं हैं और जिनके बारे में हमने सुना तक नहीं था। उन्हें भी नष्ट करने के लिए विषैली दवाओं का प्रयोग होता है जो हवा, पानी और मिट्टी के जरिए आदमी के शरीर में पहुँच रही हैं। बैक्टीरिया, फफूंद, वाइरस, यहाँ तक कि कीड़े मकोड़े भी विषरोधी अर्थात इम्यून हो गए हैं। उन पर विष का असर नहीं होता। कहना कठिन है कि धरती को धीरे धीरे बाँझ और पर्यावरण को पिषैला बनाने में हरित क्रान्ति को दोषी माना जाय या फिर लालची किसान को ।

अब किसान को साधन उपलब्ध हैं मिट्टी की जाँच कराने के जिससे पता लग जाता है इसमे कितनी जान बची है अथवा कितने तत्वों की कमी आ गई है

अब लोगेां को जैविक खेती याद आई है जिसे पचास साल पहले त्याग दिया था और कीटनाशकों के रूप मे नीम, लस्सुन, मदार जैसे पदार्थो का प्रयोग आरम्भ हो चुका है। वह विधाएं जो देश में सैकड़ेां साल से प्रचलित थीं, पुनर्जीवित हो रही हैं । लेकिन भारत जैसे देश में जहां प्रतिवर्ग किलोमीटर 455 लोग रहते हैं, वहां अन्न का उत्पादन जीवन यापन के लिए ही होना चाहिए न कि निर्यात के लिए। जिस देश में कभी ‘‘उत्तम खेती, मध्यम बान, निपट चाकरी भीख समान” का सोच था, वहां अब खेती को व्यापार बना रहे हैं अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया की तरह जहां आबादी का दबाव है ही नहीं।

हमें चीन की तरह देश की आबादी घटाने का युद्धस्तर पर प्रयास करना होगा नहीं तो बहुफसली खेती, जैविक खेती या नई प्रजातियों की खेती हमारा उद्धार नहीं कर पाएगी। खेती की पुरानी विधाएं फिर से अपनाने और आधुनिक पद्धतियों को त्यागने से भी काम नहीं चलेगा। हमें पुरातन को युगानुकूल और विदेशी का स्वदेशानुकूल बनाकर चलना होगा अन्यथा दुनिया में बहुत पिछड़ जाएंगे।
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