सड़कें बनीं, वाहन बढ़े… लेकिन सुरक्षा कहाँ? ग्रामीण भारत में बढ़ती दुर्घटनाओं पर सवाल
Dr SB Misra | Nov 28, 2025, 14:02 IST
एक समय था जब गाँवों की लाइफ साइकिल और बैलगाड़ी तक सीमित थी। आज वहां मोटरसाइकिल, कार और ट्रैक्टर की भरमार है, लेकिन ड्राइविंग ट्रेनिंग और ट्रैफिक नियमों की समझ पीछे छूट गई। नतीजा: दुर्घटनाएं बढ़ रहीं, और जिम्मेदारी कोई लेने को तैयार नहीं।
आजकल सड़कों पर शहरों में अनेक प्रकार के वाहन देखने को मिलते हैं जिनमें प्रमुख हैं, बस, ट्रक, मोटर गाड़ियां, मोटरसाइकिल, रिक्शा, तांगा, यहां तक कि बैलगाड़ी भी और पैदल चलने वालों की तो गिनती ही नहीं। ऐसी हालत में दुर्घटनाएं आम हो गई हैं, कभी दो गाड़ियों के बीच में, कभी सोते हुए लोगों के ऊपर से मोटर निकलने के कारण, और कभी बस-ट्रक के आपस में या फिर दूसरे वाहनों से टक्कर के कारण जानलेवा दुर्घटनाएं होती रहती हैं।
अखबारों तथा टीवी पर विस्तृत समाचार पढ़ने और देखने को मिलते हैं। आज से 50 साल पहले ट्रैफिक बहुत कम होता था और दुर्घटनाएं भी कम होती थीं। अब सड़कों में सुधार हुआ है और गाड़ियाँ रफ़्तार से चलने लगी हैं। ऐसी हालत में दुर्घटनाएं इसलिए बढ़ जाती हैं कि सड़क पर अनेक प्रकार के वाहन होते हैं और सबकी अपनी-अपनी रफ़्तार होती है। इसके विपरीत मुख्य सड़कों पर तेज रफ़्तार वाहन—जैसे ट्रक, बसें और मोटरसाइकिल ही चलती हैं जिससे दुर्घटनाएँ कम हो जाती हैं।
दुर्घटनाओं की संख्या में बढ़ोतरी का कारण यह भी है कि समय के साथ वाहनों की संख्या बढ़ी है। रफ़्तार से गाड़ियां चलाने की होड़ जैसे मची हुई है। शराब पीकर गाड़ियां चलाने वालों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। इतना ही नहीं, अनाड़ी ड्राइवरों की संख्या भी बहुत बढ़ी है क्योंकि सीखने की सुविधा होते हुए भी एक ड्राइवर दूसरे को सिखा देता है और लाइसेंस दिलाने के दलाल मौजूद हैं। इसलिए सड़क पर जितनी गाड़ियां चल रही हैं, उनमें बड़ी संख्या में अनाड़ी ड्राइवरों की भरमार है। इन अनाड़ी ड्राइवरों को ट्रैफिक के नियम तक नहीं आते हैं और सड़क तथा वहां की स्थिति के हिसाब से रफ्तार की सीमा क्या होनी चाहिए इसका भी अनुभव नहीं है।
दुर्घटनाएं रात के समय दिन की अपेक्षा काफी अधिक होती हैं क्योंकि ड्राइवर—खासतौर से ट्रकों के ड्राइवर—दिन भर के थके हुए रहते हैं, फिर भी समय पर माल पहुंचाने की बाध्यता उन पर होती है। उन्हें नींद आने लगती है या फिर वे शराब पी लेते हैं और चलते चले जाते हैं, फिर चाहे डिवाइडर पर गाड़ी चढ़ जाए या सामने से आने वाली किसी गाड़ी से टक्कर हो जाए—उन्हें शुद्ध नहीं रहती, नींद या नशे की हालत में। पैसे वाले लोग गाड़ियां खरीद कर बच्चों तक को उन्हें चलाने की अनुमति दे देते हैं या फिर गांव से आने वाले आधा-अधूरा प्रशिक्षण रखने वाले ड्राइवर को गाड़ी चलाने के लिए रख लेते हैं। इन परिस्थितियों में दुर्घटनाओं की समस्या बढ़ती जा रही है क्योंकि गाड़ियां बढ़ती जा रही हैं, ड्राइवरों की मांग बढ़ रही है और उनके प्रशिक्षण पर ध्यान नहीं दिया जाता।
जहां तक गांव का सवाल है, अब वहां भी अच्छी सड़के बन रही हैं और गांव की माली हालत सुधरने के कारण चार पहिया, तीन पहिया और दो पहिया वाले वाहन निरंतर बढ़ते जा रहे हैं। पुराने जमाने में यदि कोई साधन था तो केवल साइकिल का सहारा होता था। मुझे याद है, मेरे गांव में केवल दो साइकिलें थीं और वे साइकिलें एक प्रकार से प्रतिष्ठा की निशानी हुआ करती थीं। बाकी बैलगाड़ियां थीं जिनके लिए गलियारे होते थे, सड़कों का कोई सवाल नहीं था इसलिए चार पहिया गाड़ियां जा नहीं सकती थीं। अब क्योंकि लोगों के पास मोटरसाइकिल और मोटर गाड़ियां हो रही हैं, इसलिए सड़क भी बन रही हैं, इसलिए उन्हें चलाने वाले ड्राइवर चाहिए होंगे, लेकिन सीखने के लिए कोई व्यवस्था नहीं है और एक ड्राइवर दूसरे नए ड्राइवर को तैयार करता है जो खुद भी उतनी जानकारी नहीं रखता, इसलिए नौसिखिए ड्राइवर होते हैं और यह दुर्घटना का कारण बनता है।
सरकारों ने अपनी कोषागार को मजबूत करने के लिए गांव-गांव में शराब की दुकानें खोल रखी हैं और शाम होते ही उन दुकानों पर नौजवान इकट्ठा होने लगते हैं। इन्हीं में से कुछ ड्राइवर बन जाते हैं—अपनी गाड़ी चलाने के लिए अथवा दूसरे की गाड़ी के लिए। अब दहेज में भी मोटरसाइकिल मांगने का फैशन जैसा बन गया है, इसलिए गरीब लड़की वाला भी मांग पूरी करने का प्रयास करता है। वैसे तो गांव में कोई ट्रैफिक पुलिस होती नहीं, लेकिन यह गांव वाले पास के हाईवे पर चले गए और मनमाने तरीके से गाड़ी चलाने लगे तो चालान की नौबत आती है और पैसा ले देकर छूट जाते हैं। शायद यही कारण है कि उन ड्राइवरों को अपनी ड्राइविंग में सुधार की अधिक आवश्यकता महसूस नहीं होती। ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन करने पर ले देकर छूटने का रास्ता केवल गांव में ही नहीं बल्कि शहरों में भी हर चौराहे पर देखने को मिलता है कि किसी न किसी बहाने से गाड़ियां रोक दी जाती हैं और यह ट्रैफिक पुलिस की आमदनी का जरिया बनती हैं।
शहरों में ट्रैफिक पुलिस वालों की कमी नहीं है और न ही चौराहों पर ट्रैफिक लाइट की कमी है, फिर भी ये कई बार काम नहीं करते और पुलिस वाले कई बार इसमें रुचि नहीं रखते कि गलत तरीके से गाड़ी चलाने वाले सुधार करने के लिए मजबूर हों। दुर्घटनाएं कभी ओवरटेक की होड़ में और कभी बड़े घरों के बच्चों द्वारा होती हैं जो पैसे वालों के घर के हैं और अभी वयस्क भी नहीं हैं तथा ठीक से ड्राइविंग भी नहीं आती, मगर घर वाले पैसे की ताकत पर गाड़ी खरीद लेते हैं और उन्हें चलाने की अनुमति दे देते हैं।
ऐसे बच्चे अपनी पैसे की ताकत पर या प्रशासन में पहुंच के कारण एक टेलीफोन पर छूट जाते हैं, इसलिए जिम्मेदारी बच्चों की अकेले नहीं बल्कि घर के बड़े लोगों की भी है जो बच्चों को कई बार बिना लाइसेंस के गाड़ी चलाने की अनुमति दे देते हैं। ट्रैफिक जाम की समस्या से निजात पाने के लिए सभी शहरों में ओवर ब्रिज बनाए गए हैं, लेकिन अनेक बार ऐसे ओवर ब्रिज बिना ट्रैफिक समस्या पर विचार किए चालू कर दिए जाते हैं। बाद में कुछ उपाय सोचकर रास्ते निकाले जाते हैं, पर तब तक दुर्घटना हो चुकी होती है। लखनऊ में कई जगह मैंने ऐसे ओवर ब्रिज देखे हैं जिनमें सुधार हुए हैं लेकिन कुछ में अभी बाकी है।
कई बार पहले से रेलवे लाइन बनी हुई रहती है और बाद में सड़क का निर्माण होता है, और सड़क पर गाड़ियां बराबर आती-जाती रहती हैं। वहां पर फाटक बनाने की जरूरत नहीं समझी जाती, और जब एक-दो दुर्घटनाएं हो चुकी होती हैं तब जाकर फाटक बनाया जाता है। बिना फाटक वाली सड़क पर रेलवे लाइन पार करते हुए दुर्घटना होते मैंने खुद देखा है, और काफी समय बीत जाने के बाद फाटक बना था—यह सीतापुर जिले में अटरिया के पास का प्रकरण है। इसी तरह सड़क पार करने के लिए पैदल चलने वालों के लिए ज़ेब्रा क्रॉसिंग बनी हुई हैं, लेकिन अधिकांश लोग इनका सम्मान नहीं करते, और यदि पैदल चलने वाले सड़क पार कर रहे होते हैं तो गाड़ियां उनकी ज्यादा परवाह नहीं करतीं। देश के तमाम शहरों में वाहन चालकों द्वारा ज़ेब्रा क्रॉसिंग पर चल रहे पैदल लोगों की सुरक्षा का ध्यान रखा जाता है और गाड़ी चलाने वाले लोग रुक जाते हैं तथा पैदल लोगों को सड़क पार करने देते हैं। यह एक स्वस्थ परंपरा है जिसे पूरे देश में माना और लागू किया जाना चाहिए।
प्रायः देखा गया है कि जब हमारे वाहन चालक सड़क पर चलते हैं तब सड़क पर आराम से दाहिने या बाएं चलाते रहते हैं। कठिनाई तब होती है जब अचानक सामने से गाड़ी आ जाती है। कठिनाई तब भी होती है जब चालक ओवरटेक करना चाहता है अथवा यू-टर्न लेना चाहता है अथवा चौराहे में प्रवेश करके उसे पार करना चाहता है। तब गलतियां होती हैं और दुर्घटना की संभावना भी बढ़ती है। बहुत से लोग ट्रैफिक लाइट का भी सम्मान नहीं करते और उनका चालान हो जाता है।
आवश्यकता इस बात की है कि लाइसेंस देते समय इतनी लचीली व्यवस्था नहीं होनी चाहिए और ड्राइविंग की अच्छी तरह जांच-परख हो जाने के बाद ही ड्राइवर को लाइसेंस मिलना चाहिए। इस तरह दुर्घटनाएं घट सकती हैं यदि लाइसेंस देने में पूरी सावधानी बरती जाए, शराब पीकर गाड़ी चलाने वालों पर ईमानदारी से कार्रवाई की जाए, और रात में गाड़ी चलाने वालों पर विशेष ध्यान दिया जाए। वांछनीय यह भी है कि यदि किसी की दुर्घटना हुई है और हम अपनी गाड़ी से उस जगह से गुजर रहे हैं तो रुककर पूछें कि क्या हम किसी प्रकार मदद कर सकते हैं। लेकिन हमारे देश में जो मदद करने वाला होता है उसे भी शायद सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया जाता है, इसलिए लोग ध्यान नहीं देते और चले जाते हैं। आशा की जानी चाहिए कि समय के साथ वाहन चालकों में धैर्य, अनुशासन और संवेदनशीलता आ जाएगी।
अखबारों तथा टीवी पर विस्तृत समाचार पढ़ने और देखने को मिलते हैं। आज से 50 साल पहले ट्रैफिक बहुत कम होता था और दुर्घटनाएं भी कम होती थीं। अब सड़कों में सुधार हुआ है और गाड़ियाँ रफ़्तार से चलने लगी हैं। ऐसी हालत में दुर्घटनाएं इसलिए बढ़ जाती हैं कि सड़क पर अनेक प्रकार के वाहन होते हैं और सबकी अपनी-अपनी रफ़्तार होती है। इसके विपरीत मुख्य सड़कों पर तेज रफ़्तार वाहन—जैसे ट्रक, बसें और मोटरसाइकिल ही चलती हैं जिससे दुर्घटनाएँ कम हो जाती हैं।
दुर्घटनाओं की संख्या में बढ़ोतरी का कारण यह भी है कि समय के साथ वाहनों की संख्या बढ़ी है। रफ़्तार से गाड़ियां चलाने की होड़ जैसे मची हुई है। शराब पीकर गाड़ियां चलाने वालों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। इतना ही नहीं, अनाड़ी ड्राइवरों की संख्या भी बहुत बढ़ी है क्योंकि सीखने की सुविधा होते हुए भी एक ड्राइवर दूसरे को सिखा देता है और लाइसेंस दिलाने के दलाल मौजूद हैं। इसलिए सड़क पर जितनी गाड़ियां चल रही हैं, उनमें बड़ी संख्या में अनाड़ी ड्राइवरों की भरमार है। इन अनाड़ी ड्राइवरों को ट्रैफिक के नियम तक नहीं आते हैं और सड़क तथा वहां की स्थिति के हिसाब से रफ्तार की सीमा क्या होनी चाहिए इसका भी अनुभव नहीं है।
दुर्घटनाएं रात के समय दिन की अपेक्षा काफी अधिक होती हैं क्योंकि ड्राइवर—खासतौर से ट्रकों के ड्राइवर—दिन भर के थके हुए रहते हैं, फिर भी समय पर माल पहुंचाने की बाध्यता उन पर होती है। उन्हें नींद आने लगती है या फिर वे शराब पी लेते हैं और चलते चले जाते हैं, फिर चाहे डिवाइडर पर गाड़ी चढ़ जाए या सामने से आने वाली किसी गाड़ी से टक्कर हो जाए—उन्हें शुद्ध नहीं रहती, नींद या नशे की हालत में। पैसे वाले लोग गाड़ियां खरीद कर बच्चों तक को उन्हें चलाने की अनुमति दे देते हैं या फिर गांव से आने वाले आधा-अधूरा प्रशिक्षण रखने वाले ड्राइवर को गाड़ी चलाने के लिए रख लेते हैं। इन परिस्थितियों में दुर्घटनाओं की समस्या बढ़ती जा रही है क्योंकि गाड़ियां बढ़ती जा रही हैं, ड्राइवरों की मांग बढ़ रही है और उनके प्रशिक्षण पर ध्यान नहीं दिया जाता।
जहां तक गांव का सवाल है, अब वहां भी अच्छी सड़के बन रही हैं और गांव की माली हालत सुधरने के कारण चार पहिया, तीन पहिया और दो पहिया वाले वाहन निरंतर बढ़ते जा रहे हैं। पुराने जमाने में यदि कोई साधन था तो केवल साइकिल का सहारा होता था। मुझे याद है, मेरे गांव में केवल दो साइकिलें थीं और वे साइकिलें एक प्रकार से प्रतिष्ठा की निशानी हुआ करती थीं। बाकी बैलगाड़ियां थीं जिनके लिए गलियारे होते थे, सड़कों का कोई सवाल नहीं था इसलिए चार पहिया गाड़ियां जा नहीं सकती थीं। अब क्योंकि लोगों के पास मोटरसाइकिल और मोटर गाड़ियां हो रही हैं, इसलिए सड़क भी बन रही हैं, इसलिए उन्हें चलाने वाले ड्राइवर चाहिए होंगे, लेकिन सीखने के लिए कोई व्यवस्था नहीं है और एक ड्राइवर दूसरे नए ड्राइवर को तैयार करता है जो खुद भी उतनी जानकारी नहीं रखता, इसलिए नौसिखिए ड्राइवर होते हैं और यह दुर्घटना का कारण बनता है।
सरकारों ने अपनी कोषागार को मजबूत करने के लिए गांव-गांव में शराब की दुकानें खोल रखी हैं और शाम होते ही उन दुकानों पर नौजवान इकट्ठा होने लगते हैं। इन्हीं में से कुछ ड्राइवर बन जाते हैं—अपनी गाड़ी चलाने के लिए अथवा दूसरे की गाड़ी के लिए। अब दहेज में भी मोटरसाइकिल मांगने का फैशन जैसा बन गया है, इसलिए गरीब लड़की वाला भी मांग पूरी करने का प्रयास करता है। वैसे तो गांव में कोई ट्रैफिक पुलिस होती नहीं, लेकिन यह गांव वाले पास के हाईवे पर चले गए और मनमाने तरीके से गाड़ी चलाने लगे तो चालान की नौबत आती है और पैसा ले देकर छूट जाते हैं। शायद यही कारण है कि उन ड्राइवरों को अपनी ड्राइविंग में सुधार की अधिक आवश्यकता महसूस नहीं होती। ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन करने पर ले देकर छूटने का रास्ता केवल गांव में ही नहीं बल्कि शहरों में भी हर चौराहे पर देखने को मिलता है कि किसी न किसी बहाने से गाड़ियां रोक दी जाती हैं और यह ट्रैफिक पुलिस की आमदनी का जरिया बनती हैं।
शहरों में ट्रैफिक पुलिस वालों की कमी नहीं है और न ही चौराहों पर ट्रैफिक लाइट की कमी है, फिर भी ये कई बार काम नहीं करते और पुलिस वाले कई बार इसमें रुचि नहीं रखते कि गलत तरीके से गाड़ी चलाने वाले सुधार करने के लिए मजबूर हों। दुर्घटनाएं कभी ओवरटेक की होड़ में और कभी बड़े घरों के बच्चों द्वारा होती हैं जो पैसे वालों के घर के हैं और अभी वयस्क भी नहीं हैं तथा ठीक से ड्राइविंग भी नहीं आती, मगर घर वाले पैसे की ताकत पर गाड़ी खरीद लेते हैं और उन्हें चलाने की अनुमति दे देते हैं।
ऐसे बच्चे अपनी पैसे की ताकत पर या प्रशासन में पहुंच के कारण एक टेलीफोन पर छूट जाते हैं, इसलिए जिम्मेदारी बच्चों की अकेले नहीं बल्कि घर के बड़े लोगों की भी है जो बच्चों को कई बार बिना लाइसेंस के गाड़ी चलाने की अनुमति दे देते हैं। ट्रैफिक जाम की समस्या से निजात पाने के लिए सभी शहरों में ओवर ब्रिज बनाए गए हैं, लेकिन अनेक बार ऐसे ओवर ब्रिज बिना ट्रैफिक समस्या पर विचार किए चालू कर दिए जाते हैं। बाद में कुछ उपाय सोचकर रास्ते निकाले जाते हैं, पर तब तक दुर्घटना हो चुकी होती है। लखनऊ में कई जगह मैंने ऐसे ओवर ब्रिज देखे हैं जिनमें सुधार हुए हैं लेकिन कुछ में अभी बाकी है।
कई बार पहले से रेलवे लाइन बनी हुई रहती है और बाद में सड़क का निर्माण होता है, और सड़क पर गाड़ियां बराबर आती-जाती रहती हैं। वहां पर फाटक बनाने की जरूरत नहीं समझी जाती, और जब एक-दो दुर्घटनाएं हो चुकी होती हैं तब जाकर फाटक बनाया जाता है। बिना फाटक वाली सड़क पर रेलवे लाइन पार करते हुए दुर्घटना होते मैंने खुद देखा है, और काफी समय बीत जाने के बाद फाटक बना था—यह सीतापुर जिले में अटरिया के पास का प्रकरण है। इसी तरह सड़क पार करने के लिए पैदल चलने वालों के लिए ज़ेब्रा क्रॉसिंग बनी हुई हैं, लेकिन अधिकांश लोग इनका सम्मान नहीं करते, और यदि पैदल चलने वाले सड़क पार कर रहे होते हैं तो गाड़ियां उनकी ज्यादा परवाह नहीं करतीं। देश के तमाम शहरों में वाहन चालकों द्वारा ज़ेब्रा क्रॉसिंग पर चल रहे पैदल लोगों की सुरक्षा का ध्यान रखा जाता है और गाड़ी चलाने वाले लोग रुक जाते हैं तथा पैदल लोगों को सड़क पार करने देते हैं। यह एक स्वस्थ परंपरा है जिसे पूरे देश में माना और लागू किया जाना चाहिए।
प्रायः देखा गया है कि जब हमारे वाहन चालक सड़क पर चलते हैं तब सड़क पर आराम से दाहिने या बाएं चलाते रहते हैं। कठिनाई तब होती है जब अचानक सामने से गाड़ी आ जाती है। कठिनाई तब भी होती है जब चालक ओवरटेक करना चाहता है अथवा यू-टर्न लेना चाहता है अथवा चौराहे में प्रवेश करके उसे पार करना चाहता है। तब गलतियां होती हैं और दुर्घटना की संभावना भी बढ़ती है। बहुत से लोग ट्रैफिक लाइट का भी सम्मान नहीं करते और उनका चालान हो जाता है।
आवश्यकता इस बात की है कि लाइसेंस देते समय इतनी लचीली व्यवस्था नहीं होनी चाहिए और ड्राइविंग की अच्छी तरह जांच-परख हो जाने के बाद ही ड्राइवर को लाइसेंस मिलना चाहिए। इस तरह दुर्घटनाएं घट सकती हैं यदि लाइसेंस देने में पूरी सावधानी बरती जाए, शराब पीकर गाड़ी चलाने वालों पर ईमानदारी से कार्रवाई की जाए, और रात में गाड़ी चलाने वालों पर विशेष ध्यान दिया जाए। वांछनीय यह भी है कि यदि किसी की दुर्घटना हुई है और हम अपनी गाड़ी से उस जगह से गुजर रहे हैं तो रुककर पूछें कि क्या हम किसी प्रकार मदद कर सकते हैं। लेकिन हमारे देश में जो मदद करने वाला होता है उसे भी शायद सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया जाता है, इसलिए लोग ध्यान नहीं देते और चले जाते हैं। आशा की जानी चाहिए कि समय के साथ वाहन चालकों में धैर्य, अनुशासन और संवेदनशीलता आ जाएगी।