भौतिक सुविधाओं के साथ खोती जा रही ग्रामीण संस्कृति

Divendra Singh | Sep 20, 2025, 18:12 IST

कैसे पिछले 80 वर्षों में गाँवों का भौतिक विकास हुआ, लेकिन इसके साथ-साथ ग्रामीण संस्कृति, पारंपरिक जीवनशैली और परिवार भाव में कमी आई।

चाहे गाँव हो अथवा शहर, सभी को जीवन यापन के लिए रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और चिकित्सा की आवश्यकता रहती है। इनमें एक भौतिक पक्ष होता है और दूसरा मानवीय दृष्टिकोण। गाँव में ग्रामीण संस्कृति परस्पर लगाव और मानवीय गुणों से भरपूर रहती थी। उनके अंदर स्वकेन्द्रित व्यवहार न होकर परिवार भाव और ग्रामीण जीवन अच्छी तरह भरा रहता था और सही मन में हर एक गाँव सर्वे भवंतु सुखिनः के सिद्धांत का पालन करता था। अब भौतिक सुविधाओं का काफी विकास हुआ है और हो रहा है, लेकिन गाँव की पुरानी परिवार भाव वाली संस्कृति घटती जा रही है। और गाँव के लोग भी स्वकेन्द्रित व्यवहार वाले बनते जा रहे हैं। जब तक भौतिक और मानवीय सुविधाओं के बीच सामंजस्य नहीं बिठाया जा सकेगा, तब तक अकेला भौतिक विकास अधिक सार्थक नहीं होगा और हमें अपनी जड़ों से दूर ले जाएगा।

जब देश आजाद हुआ, तो शहर और गाँव दोनों की हालत खराब थी। अंग्रेजों ने देश को खोखला करके छोड़ा था। लेकिन हमारे शहर भौतिक दृष्टि से काफी आगे थे – वहां बिजली थी, पानी था, सड़कें और दूसरे यातायात के साधन मौजूद थे। लेकिन गाँव के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। इसके विपरीत, गाँव में पगडंडियां और गलियारे थे, कुएं या तालाबों से पानी पीना होता था। खादी, गाढ़ा और गज्जी के कपड़े गाँव में ही बनते थे और उन्हीं का प्रयोग किया जाता था। दूर-दूर तक ना कोई स्कूल थे, ना अस्पताल, लेकिन पेट भूखा नहीं रहता था। उस समय गेहूं और चावल तो नहीं प्रयोग में आते थे, लेकिन मोटे अनाज और दालें तथा दूध भी मठ्ठा प्रचुर मात्रा में गांव में मिलता था, और गाँव के लोग स्वस्थ और बलिष्ठ हुआ करते थे।

मुझे याद है कि एक गाँव से दूसरे गाँव तक जाने के लिए पगडंडी या बैलगाड़ी के गलियारे का सहारा लेना पड़ता था, जिनमें बरसात में पानी भर जाता था, गर्मियों में धूल उड़ती रहती थी और सर्दियों में ठिठुरन बनी रहती थी। मैं अपने बाबा के साथ उनके ससुराल जगदीशपुर पैदल 30 किलोमीटर या फिर अपने ननिहाल 15 किलोमीटर तक जाया करता था। ऐसे ही रास्तों पर। आज उन गलियारों की जगह पक्की सड़क बन गई है और पगडंडियां भी चलने लायक बनी हैं। पहले जिन रास्तों पर पैदल जाने के अलावा कोई तरीका नहीं था, आजकल वहां साइकिल, मोटरसाइकिल या मोटर गाड़ियां दौड़ रही हैं।

पुराने समय में इतने लंबे रास्तों पर किनारे-किनारे आराम करने के लिए छायादार पेड़ हुआ करते थे और पीने के लिए अपने साथ लोटा और डोर ले जाना पड़ता था, ताकि कुएं से पानी निकालकर पी सके। साथ में खाने की सामग्री जैसे सत्तू, पूड़ी आदि ले जानी होती थी या फिर रास्ते में किसी ग्रामीण दुकान से कुछ लेने के लिए लिया जा सकता था। अब इस सब की आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि जो दूरी 10 या 12 घंटे में पैदल चली जाती थी, वह अब दो या तीन घंटे में किसी न किसी साधन द्वारा पूरी हो जाती है। मैं स्वयं भी कक्षा 6, 7 और 8 की पढ़ाई के लिए इटौंजा तक 12 किलोमीटर रोज जाता और लौटकर आता था।

पहने के लिए जो भी मोटा या महीन कपड़ा मिल जाता था, वही पहनते थे। मेरे गाँव में काफी दूर से गंगो जुलाहा कपड़े बेचने आता था। उसमें गाढ़ा, गज्जी, खादी के कपड़े होते थे, जिन्हें बड़े लोगों के लिए बनियान और अन्य कपड़े घर की महिलाएं सिल दिया करती थीं। कभी मशीन नहीं थी, तो हाथ से सुई और धागे का प्रयोग करके बना देती थीं। स्कूल जाने वाले बच्चों या दफ्तर जाने वालों के लिए कमीज और पजामा दर्जी से सिलवाए जाते थे। सिले-सिलाए कपड़े खरीदने का रिवाज नहीं था और ना कोट, सिदरी, साड़ियां चलती थीं। जड़ों के लिए बंदी बनाई जाती थी, यानी हुई भर के और अंदर पहनने वाला सलूका जैसा कपड़ा।

सामान ढोने या बाजार तक समान बेचने के लिए बैलगाड़ी, घोड़ा आदि का प्रयोग होता था। घोड़े का प्रयोग सवारी के रूप में दूर जाने के लिए होता था, उसकी पीठ पर बैठकर एक आदमी जा सकता था। आजादी के बाद साइकिलों का उपयोग बढ़ने लगा। चाहे गाँव से खोया बनाकर बाजार पहुंचाना हो या ग्रामीण दुकानदारों से थोक व्यापार में सामान लाना हो, घोड़े और साइकिल बहुत उपयोगी सिद्ध हुए। यदि शादी-ब्याह में बारात को जाना हो अथवा परिवार के सभी लोग किसी निमंत्रण पर जाएं, तो बैलगाड़ी का छोटा एक अध्धा इस्तेमाल होता था। ऐसे अध्धों पर गाते-बजाते हुए सफर का आनंद लेते हुए ग्रामीण एक गाँव से दूसरे गाँव जाते थे। 1940 और 50 के दशक में साइकिल प्रचलित हो गई थी, लेकिन स्कूटर 1960 के दशक में और मोटरसाइकिल शायद इसके बाद गांव में पहुंची थी। स्कूटर के दो प्रकार – लम्ब्रेटा और बजाज – प्रचलित थे। मोटरसाइकिल के भी दो प्रकार – जावा और राजदूत – बाद में अनेक प्रचलित हुई। चार पहिए की मोटर जाने का रास्ता नहीं था, लेकिन सामान उठाने के लिए ट्रक जरूर जाने लगे थे।

गाँव में पक्के मकान बहुत कम ही होते थे। ज्यादातर मिट्टी की दीवारें और छत पर पेड़ की मोटी धन्निया और पतली कुरेठी डालकर छत को पाट दिया जाता था। हर गाँव में एक या दो मकान पक्के हुआ करते थे, जिन्हें अधिक पैसे वाले लोग बैलगाड़ी से ईंट और सीमेंट लाकर बनवाते थे। दीवारों की जुदाई मिट्टी के कीचड़ से कर ली जाती थी और पक्की छत कच्ची छत की तरह बनाई जाती थी। कच्चे मकान का एक लाभ यह था कि उनमें गर्मी नहीं होती थी और हाथ से पंखे का काम हो जाता था। प्रत्येक गांव में एक या दो तालाब जरूर होते थे। बरसात के दिनों में इन तालाबों में पानी भर जाता था और प्राकृतिक रूप से वाटर हार्वेस्टिंग हो जाती थी। यह पानी खेतों की सिंचाई और जानवरों के पीने के लिए काम आता था।

जब मैं गाँवों में कच्चे और पक्के मकानों के बारे में सोचता हूं, तो उस जमाने में गाँव के सभी मकान मिट्टी के बने होते थे। कभी-कभी इस मिट्टी से सांचे में ढाल कर कच्ची ईंटें बनाई जाती थीं और उन्हें जोड़कर सजली दीवारें बनती थीं। इसके लिए राजमिस्त्री होते थे, लेकिन कच्ची ईंटें पकाने का काम काफी बाद में शुरू हुआ, शायद 50 के दशक के बाद। मेरे गाँव में गंगा प्रसाद पांडे नाम के एक महाजन हुआ करते थे, जिनके घर पक्के थे। वह अनाज और भूसा का व्यापार करते थे और लखनऊ से लौटते समय पक्की ईंटें अपनी बैलगाड़ी में रखकर लाते थे। बाकी आसपास के गांव के मकान कच्ची मिट्टी के ही बने होते थे।

Man walking along a long road back to his home with rice fields
जानवरों के लिए घर के पास ही या घर से मिलाकर बाड़ा होता था, जिसमें जानवरों का रहना और खाना सब कुछ होता था। उस समय के गांव शिक्षा और अज्ञानता से भरे हुए थे क्योंकि स्कूलों की बेहद कमी थी। कक्षा एक और दो के लिए शायद ही गाँव में कोई अध्यापक उपलब्ध था। कक्षा एक के बाद प्राइमरी कक्षाओं के लिए गाँव से चार-पाँच किलोमीटर की दूरी पर स्कूल होता था। मिडिल स्कूल में कक्षा 6, 7 और 8 की पढ़ाई होती थी। उसके बाद गांवों में कोई विकल्प नहीं था, सिवाय शहर जाने का।

गाँव के लोगों का स्वास्थ्य आम तौर पर काफी ठीक रहता था। पुराने समय में ना तो भोजन की कमी थी और ना दूध, दही, मठ्ठा की कोई दिक्कत। फिर भी यदि कोई बीमार हो जाता था, तो दूर-दराज तक कोई भी डॉक्टर या हकीम नहीं मिलता था। ऐसी स्थिति में लोग भगवंत डॉक्टर के पास जाते थे। मुझे भी बाबा कई बार वहां ले गए थे और मरहम-पट्टी कराई थी। उन दिनों आधुनिक रोग नहीं हुआ करते थे, लेकिन मलेरिया, चेचक, टायफाइड और अन्य बुखार आम थे।

आजकल शहर के सभी बीमारियां गांव में आ गई हैं, यहां तक कि कैंसर और अन्य बीमारियां भी। लेकिन पुराने जमाने में टीवी से बड़े रोग गाँव में नहीं होते थे। समय बदल गया, फैशन और शराब की दुकानें गाँव-गाँव में खुल गईं। पहले गाँव के बच्चे छोटे-छोटे पदों तक ही पहुंच सकते थे – जैसे प्राइमरी स्कूल के अध्यापक, पुलिस में हवलदार, पटवारी या लेखपाल। इंजीनियर, डॉक्टर या प्रशासनिक अधिकारी बनने का विचार ही नहीं था।

समय बदलने के बाद शहरों में अच्छे कॉलेज और विद्यालय बने, जिससे शहरी बच्चे टेक्निकल, मेडिकल और प्रशासनिक पदों पर पहुंच सके। लेकिन गाँव वालों के लिए दरवाजे अभी भी बंद हैं। पैसे वाले गाँव वाले अपने बच्चों को शहर में भेज सकते हैं, लेकिन आम आदमी और निर्धन के लिए कोई रास्ता नहीं है। जब तक गाँव में रहने वाली 70% आबादी को उसका उचित हक नहीं मिलेगा, देश को प्रगतिशील या समृद्ध नहीं कहा जा सकेगा। इसके लिए गाँव में अच्छे माध्यमिक और उच्च शिक्षा संस्थान, अच्छे औषधि विद्यालय और प्रशिक्षित अध्यापक आवश्यक हैं।

पिछले 80 सालों में गाँवों में भौतिक सुविधाएं बढ़ी हैं – रहने, यात्रा करने, कपड़े पहनने और प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों को भेजने में सुधार हुआ है। लेकिन पहले का संतुलित आहार अब संभव नहीं है। अब शहर जैसी दिखावटी चीजें – मकान, शादियां, कामकाज, बच्चों के संस्कार – गाँवों में भी बढ़ गई हैं। पहले चिकित्सा की आवश्यकता कम थी, लेकिन अब तमाम शहरी रोग गाँवों में भी फैल गए हैं।

पहले गाँव में लोग एक परिवार की तरह रहते थे, सभी के सुख-दुख में शामिल होते थे। अब गाँव वाले भी शहरवासियों की तरह स्वकेन्द्रित हो गए हैं। संस्कार विहीन शिक्षा और स्वार्थ प्रेरित धर्मपालकों के कारण सुधार की आवश्यकता है।