समय की मांग कृषि में निवेश, किसान की हालत सुधरने से देश को मिलेगी मंदी से राहत: देविंदर शर्मा

Devinder Sharma | Sep 09, 2019, 09:03 IST

पिछले दो वर्षों में कृषि आय में वास्तविक वृद्धि लगभग शून्य रही है, इससे पहले भी जब नीति आयोग ने अनुमान लगाया था कि 2011-12 से 2015-16 के पांच वर्षों के दौरान वास्तविक कृषि आय प्रति वर्ष आधा पर्सेंट से कम की दर से बढ़ रही थी।

कृषि क्षेत्र की सालाना वृद्धि दर चार प्रतिशत के नीचे है, ऐसे में कृषि राज्यमंत्री ने मान लिया कि तय समय सीमा में किसानों की आय दोगुनी करना मुमकिन नहीं है। किसानों की आय दोगुनी करने के विषय में अप्रैल 2016 में गठित दलवई समिति ने अनुमान लगाया था कि ऐसा करने के लिए किसान की आय में 10.4 प्रतिशत की बढ़ोतरी होनी चाहिए।

बहुत से अर्थशास्त्री भी कह चुके हैं कि इसके लिए बहुत ऊंची आर्थिक वृद्धि दर की आवश्यकता है। मुझे पता है कि यह अति महत्वाकांक्षी लक्ष्य है, इसलिए मुझे खुशी है कि मंत्री महोदय ने अंतत: एक ऐसे वादे पर फिलहाल विराम लगा दिया है जिसे आसानी से पूरा करना संभव नहीं था। वह इस बात पर सहमत हैं कि गैर-कृषि आय में बढ़ोतरी करने के लिए कुछ और विकल्पों पर काम हो सकता है।

उम्मीद है कि अब यह पता चल जाने के बाद कि ऐसा करना संभव नहीं था उन अनगिनत सेमिनारों, कॉन्फ्रेंसों और वर्कशॉप पर विराम लगा जाएगा जो किसानों की आय दोगुनी करने के लिए पिछले दो वर्षों से विश्वविद्यालयों, संस्थानों, कॉलेजों और नागरिक संगठनों द्वारा आयोजित की जा रही थीं।

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पिछले दो वर्षों में कृषि आय में वास्तविक वृद्धि लगभग शून्य रही है, इससे पहले भी जब नीति आयोग ने अनुमान लगाया था कि 2011-12 से 2015-16 के पांच वर्षों के दौरान वास्तविक कृषि आय प्रति वर्ष आधा पर्सेंट से कम की दर से बढ़ रही थी, किसी ने भी उन मौलिक संरचनात्मक बदलावों की बात नहीं की जिनके लिए कृषि क्षेत्र तरस रहा है।

जबकि आवश्यकता है डायरेक्ट इनकम सपोर्ट की जो आय में बढ़ोतरी करने का एक बेहतर तरीका है।

सरकार ने दलवई समिति की सितंबर 2018 में पेश की गई रिपोर्ट की सिफारिशों के कार्यान्वयन और निगरानी के लिए एक कमेटी का गठन किया था। इसमें भी माना गया है कि अगले दो वर्षों में किसान आय को दोगुना करना संभव नहीं है। लेकिन यह निश्चित रूप से उन दीर्घकालिक सुधारों को शुरू करने में मददगार साबित होगी जिनकी इस क्षेत्र को सख्त जरूरत है साथ ही यह तय करने में भी सहायक होगी कि किस जगह ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है।

सबसे पहली और महत्वपूर्ण आवश्यकता है कृषि में सार्वजनिक क्षेत्र के निवेश को बढ़ावा देने की। भारतीय रिज़र्व बैंक के आंकड़ों पर नज़र डालें तो कृषि को लेकर लगातार चल रहा यह पूर्वाग्रह स्पष्ट हो जाता है। ये आंकड़े बताते हैं कि 2011-12 और 2016-17 के बीच कृषि में सार्वजनिक क्षेत्र का निवेश सकल घरेलू उत्पाद के 0.4 प्रतिशत के आसपास रहा था। यह देखते हुए कि देश की लगभग आधी आबादी कृषि पर निर्भर है यह स्थिति बताती है कि हमारे देश में कृषि की जानबूझ कर अनदेखी की गई है।

इसे बदलना होगा, इसका संकेत बीजेपी के घोषणा पत्र से मिला है जिसमें कृषि में 25 लाख करोड़ रुपयों के निवेश का वादा किया गया था। वर्ष 2019-20 के बजट में कृषि के लिए 1,30,485 करोड़ रुपये का प्रावधान किया जिसमें पीएम किसान योजना की शेष तीन किश्तों के लिए आवंटित 75,000 करोड़ रुपये भी शामिल हैं। इसके अलावा डायरेक्ट इनकम सपोर्ट (प्रत्यक्ष आय सहायता) के साथ-साथ कृषि बाजार के बुनियादी ढांचों (वेयरहाउस और गोदामों सहित) के उन्नयन के लिए बजटीय आवंटन और गाँवों को प्रस्तावित कृषि उपज मंडी समितियों से जोड़ने के लिए निवेश की भी आवश्यकता है।

दिलचस्प बात यह है कि जहां कृषि वैज्ञानिक और अर्थशास्त्री आम तौर पर खेती की वास्तविक आय बढ़ाने और खेती के खोए गौरव को लौटाने के लिए क्रांतिकारी कदम उठाने की बात कहने से हिचकते हैं, वहीं पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने अपने एक आदेश में कहा था कि किसानों को संकट से बचाने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएससपी) लागत का तीन गुना होना चाहिए।



'हालांकि 1965 से एमएसपी का ऐलान होता रहा है लेकिन कड़वी सचाई यह है कि यह किसानों की आय को बढ़ाने और उन्हें गरीबी से निकालने में नाकाम रहा है। अब समय आ गया है जब किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य दिलाने के लिए कानूनी अधिकार देकर एमएसपी को कानूनी बल दिया जाए।' उचित कानून लाकर एमएसपी को कानूनी दर्जा देने का यह निर्देश न्यायमूर्ति राजीव शर्मा और एचएस सिद्धू की खंडपीठ से आया है। इसमें उन्होंने बिचौलियों को दूर करने, गोदामों की स्थापना, मौसम आधारित फसल बीमा, इंटरनेट तकनीक का इस्तेमाल, ऋण सेवा संचालन सहित सुधारात्मक उपाय सुझाए।

पिछले दो वर्षों में किसानों ने कथित रूप से 20 से 30 प्रतिशत कम कीमत पर दाल, तिलहन और मोटे अनाज बेचे थे। यहां तक कि गेहूं और चावल के मामले में, जो दो फसलें सरकार खरीदती है, किसानों को केवल वहीं न्यूनतम दाम मिले जहां सरकार की बेहतर खरीद व्यवस्था है।

उदाहरण के लिए, बहुत से बेइमान व्यापारी बिहार में किसानों से कम कीमत पर गेहूं और धान खरीदते हैं और फिर इसे पंजाब और हरियाणा में ले जाकर ऊंची कीमतों पर बेचते हैं क्योंकि यहां एमएसपी अधिक मिलता है।

एमएसपी को कानूनी दर्जा देने से न केवल किसानों में विश्वास पैदा होता है, बल्कि किसानों को न्यूनतम कीमत का आश्वासन भी मिलता है, जिससे खेत की आय में वृद्धि होती है, कर्ज कम होता है और कृषि संकट कम होता है। इसके अलावा एमएसपी को उत्पादन की औसत लागत से तीन गुना तक बढ़ाना, जिसमें स्वामित्व वाली भूमि और पूंजी पर लगाया गया किराया और ब्याज शामिल है, निश्चित रूप से एक उचित कदम होगा। यह अकेले कृषि क्षेत्र के प्रदर्शन में उल्लेखनीय बदलाव लाने की क्षमता रखता है और इसे यह लागू किया जा सकता है।

मेरा सुझाव है कि दो मूल्य स्तर बनाए जाएं- एक जिसमें एमएसपी पर खरीद होती है और दूसरा, वह वास्तविक कीमत जो किसान को चुकाई जाती है। आज जब सभी किसान जन धन बैंक खातों से जुड़े हुए हैं, दोनों स्तरों के बीच के अंतर को सीधे किसान के बैंक खातों में पहुंचाया जा सकता है।

अब समय आ गया है कि हम कृषि में बढ़त के आंकड़ों के प्रति लगाव से बाहर निकलें। अब समय है मानव संसाधन में निवेश करने की जो भारतीय कृषि की सबसे बड़ी ताकत है। जैसे-जैसे वास्तविक कृषि आय की बढ़ोतरी में अधिक निवेश किया जाएगा किसानों की अधिकांश पूंजी अपने आप कृषि तकनीकों को सुधारने में लगने लगेगी।

इससे भी अधिक जैसे-जैसे कृषि आय बढ़ेगी ग्रामीण क्षेत्रों में मांग भी बढ़ेगी और औद्योगिक विकास का पहिया भी तेजी से घूमने लगेगा। ऐसे समय में जब देश मंदी के दौर से गुजर रहा है, बाजार की मांग बढ़ाना एक बड़ी चुनौती है जो कि केवल खेती से ही पूरी हो सकती है। इसलिए अर्थव्यवस्था को राहत पहुंचाने का सबसे सुरक्षित तरीका है कृषि में निवेश करना। यही सबका साथ, सबका विकास का रास्ता भी है।

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