पारंपरिक ज्ञान सिर्फ शब्दों में लिपिबद्ध नहीं

डॉ दीपक आचार्य | Jun 23, 2017, 11:09 IST

विगत दिनों नेशनल बॉयोडायवर्सिटी अथॉरिटी द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में मुझे शिमला आमंत्रित किया गया। अहमदाबाद की तपती गर्मी से दूर शिमला की ठंडी बयारों ने बड़ी राहत दिलाई थी। कार्यक्रम 4 दिनों का था जिसमें रोज सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे तक देशभर में हो रहे जैवविविधता संरक्षण प्रयासों और पारंपरिक ज्ञान पर लोग अपने अपने अनुभव साझा करते थे। मुझे भी अपने अनुभवों को साझा करने का मौका मिला।

एक वैज्ञानिक होने के नाते मेरा पूरा फोकस इस बात पर था कि पारंपरिक हर्बल ज्ञान को आधुनिक विज्ञान की मदद से बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इस दौरान पारंपरिक हर्बल ज्ञान विषय से जुड़े कई सवालों और जवाबों से रूबरू भी हुआ।

पूरे कार्यक्रम के दौरान कई जानकार पारंपरिक ज्ञान के असर को लेकर सवालिया निशान खड़े करते रहे। दरअसल अब तक इस ज्ञान को संदेह की नज़रों से ही देखा गया है। स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में पारंपरिक ज्ञान को सही स्थान न मिल पाने की कई वजहें रही हैं लेकिन मेरे विचार से मुख्य वजह पारंपरिक ज्ञान के असर की वैज्ञानिक पुष्टियों या प्रमाणों का एकत्रिकरण ना हो पाना है।

पारंपरिक ज्ञान को विज्ञान की नज़रों से देखा जाए और इसे प्रमाणित करके आम जनों तक लाया जाए तो निश्चत ही लोगों का भरोसा जाग उठेगा और आहिस्ता-आहिस्ता लोग इस विषय को गंभीरता से लेना शुरू कर देंगे। मैंने हमेशा कोशिश करी है कि उन जानकारियों या नुस्खों को आम जनों तक लाया जाए जिनकी पैरवी आधुनिक विज्ञान भी खूब करता है।

औषधीय पौधे हमारे सामाजिक जीवन का हिस्सा हैं। सदियों से हम भारतीय विभिन्न विकारों के इलाज के लिए औषधीय पौधों का उपयोग करते आ रहें हैं। यह बात अलग है कि 21वीं सदी में कृत्रिम और रसायन आधारित दवाओं, जिन्हें एलोपैथिक ड्रग्स कहा जाता है, ने बहुत हद तक आम जनों का घरेलू और पारंपरिक उपचार पद्धतियों से विश्वास कम कर दिया।

वजहें जो भी हो किंतु सत्यता ये है कि भागती-दौड़ती जिंदगी में हर व्यक्ति रफ्तार से चुस्त-दुरुस्त होना चाहता है और एलोपैथिक ड्रग्स अल्प-अवधि के लिए ऐसा संभव भी कर देती है, किंतु इन ड्रग्स के साईड इफेक्ट्स का भुगतान शरीर को किस हद तक करना पड़ सकता है, इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है।

शिमला में रोज सुबह उठकर पहाड़ों की सैर को चल दिया करता था, कोशिश करता था कि स्थानीय लोगों से, खासतौर से बुजुर्गों से बातचीत करने का मौका मिले। एक बुजुर्ग ने अस्थमा का दौरा पड़ने पर पारंपरिक ज्ञान आधारित तुलसी से जुड़े एक नुस्खे की बात बतायी।

श्वसन रोगों में तुलसी के कारगर असर के क्लिनिकल प्रमाण कई विज्ञान पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। पातालकोट (मध्य प्रदेश) में भी वनवासी हर्बल जानकार दमा की समस्या होने पर गर्म पानी में तुलसी के 5 से 10 पत्ते मिलाकर सेवन करने की सलाह देते हैं। तुलसी के एंटीइन्फ्लेमेटरी गुणों की पैरवी आयुर्वेद से लेकर आधुनिक विज्ञान भी करता रहा है।

शिमला से लेकर पातालकोट तक स्थानीय पारंपरिक ज्ञान लगभग एक जैसा ही है, पीढ़ी दर पीढ़ी शब्दों के जरिए तैरता हुआ लेकिन अब तक लिपिबद्ध नहीं। सही जानकार के ज्ञान को आधुनिक विज्ञान के हाथों परखकर देखा जाए तो निश्चित ही हमें कई रोगों से निपटने के लिए सस्ती और कारगर दवाएं मिल पाएंगी ...लेकिन इन सबसे ज्यादा जरूरी बुजुर्गों से बात करना, उनके ज्ञान को संकलित करना है ताकि उनकी पारंपरिक विरासत को आने वाले पीढ़ी भी जान पाए।

(लेखक गाँव कनेक्शन के कंसल्टिंग एडिटर हैं और हर्बल जानकार व वैज्ञानिक भी।)

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