आर्थिक सुधारों की कीमत किसान क्यों चुकाएं?

Devinder Sharma | Jan 24, 2017, 15:41 IST

वैश्वीकरण की प्रक्रिया से दुनिया में बढ़ रही असमानता के बीच स्विट्जरलैंड के दावोस में बीते मंगलवार से वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की वार्षिक बैठक शुरू हुई। इसमें दुनिया के अमीर से अमीर देशों ने हिस्सा लिया।

दुनिया के आठ धनी लोगों के पास आधी आबादी के बराबर संपत्ति है। भारत में इस असमानता पर गौर करें तो वह चौकाने वाला है। केवल 57 परिवारों के पास 70 फीसदी आबादी के बराबर संपत्ति है। यानि आठ करोड़ 75 लाख लोगों के पास जितना धन उतना धन सिर्फ 57 लोगों के पास है। वैश्विक स्तर पर एक फीसदी आबादी के पास 99 फीसदी लोगों के बराबर संपत्ति है। भारत में शीर्ष एक फीसदी धनाढ्य लोगों के पास 58 फीसदी लोगों से ज्यादा संपत्ति है।

इस बारे में अखबारों में भी खबरें छपीं या टीवी पर भी बुलेटिन चला। लेकिन पता नहीं आप में से कितने लोगों को दुनिया में बढ़ रही ऐसी असमानता पर गुस्सा आया होगा। पर वे लोग जरूर फूले समा रहे होंगे जो इसे अपनी उद्यमशीलता और असाधारण प्रतिभा का नतीजा मानते हैं, मैं बताना चाहता हूं कि एक फीसदी ने जो किया वह कोई असाधारण काम नहीं है बल्कि असाधारण उनकी क्षमता है जिससे उन्हें बेशुमार दौलत कमाने में मदद मिली। उन्होंने कुशलतापूर्वक वैश्विक आर्थिक प्रणाली को अपने हितों के मुताबिक बना लिया है।



मैं लंबे समय से कहता आया हूं कि यह तरक्की आर्थिक डिजाइन का ही नतीजा है। बीते वर्षों में नव उदारवाद आर्थिक एजेंडा, चाहे इसे बाजार सुधार कहें, आर्थिक तरक्की या कुछ भी, तथ्य यही है कि इसे ट्रिकल डाउन थ्योरी के आधार पर गढ़ा गया है। अमीरों के हाथ में ज्यादा से ज्यादा धन दो और उसमें से कुछ हिस्सा खिसकते-खिसकते गरीबों के हाथ में पहुंच जाएगा। अमीरों को अपने कारोबार और उद्योग के लिए ड्राइवर, रसोइए, सेवक और कर्मचारी रखने की जरूरत पड़ेगी ही। जब अमीर गोल्फ खेलेंगे तो चायदान में कुछ न कुछ रकम गिरेगी ही। जब अमीर प्राइवेट एयरक्राफ्ट में घूमेगा तो निश्चित ही उसे पायलट, एयरहोस्टेस, जमीनी कर्मचारी और अन्य की जरूरत पड़ेगी ही। लेकिन अब मैं देख रहा हूं कि लोग उस इकोनॉमिक ग्रोथ सिस्टम का विरोध कर रहे हैं जिससे सिर्फ मुट्ठीभर लोगों के पास बेशुमार धन पहुंच गया। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम पर ‘न्यूयार्क टाइम्स’ का कहना है कि इस सभा में गतिशील बहु साझेदारी वैश्विक गवर्नेंस प्रणाली के निर्माण पर ही बात होगी।

वैश्वीकरण की पूरी प्रक्रिया इसी पर आधारित है। मेरे हर लेख में यही उल्लेख रहा है कि वैश्वीकरण ने दुनिया के अमीरों को प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने के लिए एकजुट किया है। हरेक देश में अमीर और गरीब हैं और ये अमीर वैश्विक स्तर पर मिलकर बहुसंख्य गरीबों का शोषण कर रहे हैं। चाहे यह विश्व व्यापार संगठन के जरिए चलने वाला अंतरराष्ट्रीय कारोबार हो, मुक्त व्यापार समझौता और ट्रांस पैसिफिक या ट्रांस-एटलांटिक ट्रेड संधि हो, इनका गठन अमीरों की मदद के लिए हुआ है ताकि वे भरपूर लाभ कमा सकें।

डब्लयूटीओ के अंतर्गत कई कृषि समझौते हुए हैं। लेकिन मुझे यह बात कभी समझ नहीं आई कि क्यों व्यापार मध्यस्थ, अर्थशास्त्री और नीति निर्माता विकासशील देशों के अरबों किसानों की आजीविका के सर्वनाश को व्यापार में उछाल से हुई संपार्श्विक छति मानते हैं यानि आर्थिक तरक्की के लिए चुकाई गई छोटी सी कीमत। धनी विकसित राष्ट्रों ने अपनी भारी कृषि सब्सिडी का संरक्षण करते हुए विकासशील देशों को आजीविका को बढ़ावा देने के लिए सस्ते और सब्सिडी वाले कृषि जिंसों को प्रोत्साहित करने के लिए मजबूर किया है। अनाज का आयात करना रोजगार के आयात करने जैसा है और अर्थशास्त्रियों व बुद्धिजीवियों ने इसका समर्थन किया है। बीते 30 साल में 105 विकासशील देश अनाज का आयात करने वाले देशों में शामिल हो गए हैं। सस्ते खाद्य आयात से कृषि आजीविका बर्बाद हो गई है। लेकिन तब तक कोई परवाह नहीं करेगा जब तक अमीर और अमीर हो रहे हैं।

विशेष आर्थिक परिक्षेत्र (एसईजेड) अधिनियम के मामले में संसद ने उसे पास करने में जरा भी समय नहीं गंवाया। वाणिज्य मंत्रालय एसईजेड प्रस्ताव को बिना विलंब के मंजूरी दे देता है। टीवी चैनलों समेत समूचा मीडिया और पैनल के झुंड, जिन्हें एसईजेड की संभावनाओं पर चर्चा के लिए बुलाया गया था, ने इसका गुणगान कर दिया। एसईजेड को आक्रामक रूप से प्रोत्साहित किया जा रहा था, किसान के जमीन अधिग्रहण के विरोध को दमनकारी नीति से दबा दिया गया। जमीन लेने वाले की सहूलियत के लिए जमीन अधिग्रहण के नियम बदल दिए गए। यह सब आर्थिक तरक्की और रोजगार सृजन के नाम पर हुआ। लेकिन अंतत: एसईजेड के उभार के दस साल बाद ये 13 लाख रोजगार सृजन के वादे की तुलना में सिर्फ 42 हजार लोगों को नौकरियां दे पाए। 50 एसईजेड को आंध्र प्रदेश में मंजूरी दी गई जिनमें सिर्फ 15 काम कर रहे हैं। एसईजेड की स्थिति देश के अन्य हिस्सों में ठीक नहीं है।

लेकिन क्या आपने कभी सुना है कि किसी अर्थशास्त्री या नीति निर्माता को इस असफलता के लिए जवाबदेह ठहराया गया है? क्या आपको उन किसानों के बारे में पता है जिन्हें उनकी जमीन का समुचित मुआवजा दिया गया लेकिन जमीन का इस्तेमाल नहीं हुआ और उन्हें अब तक वह लौटाई भी नहीं गई? इससे पता चलता है कि आर्थिक विकास माडल कैसे काम करता है। यह उनके लिए अच्छा है जो राज्य के शासन की मदद से जमीन पाने में कामयाब रहे।

जरूरत आर्थिक सुधारों की है यानि संसाधनों पर निजी क्षेत्र की पकड़ और मजबूत करने की है। और अगर कोई इस दोषपूर्ण आर्थिक सोच पर सवाल उठाता है तो उसे विकास विरोधी के रूप में लाकर खड़ा कर दिया जाएगा। अगर कहीं ऐसा करने वाला किसान है तो उसे उसकी लागत का ऊंचा मूल्य नहीं मिल रहा है? क्यों सरकारी कर्मचारी को तनख्वाह में अधिक बढ़ोतरी दी जाती है, दो डीए वृद्धि हर साल, और कुल 108 भत्ते। देश की 1.6 फीसदी जनता, जो वेतनभोगी है, सरकारें उनके भले के लिए दिन-रात सोचती है। लेकिन जब किसानों की बात आती है, जो देश की आबादी का 52 फीसदी हैं, तो सुनने में आता है कि किसानों को सरकारों और मौसम से कोई उम्मीद नहीं होती।

किसान उसी 99 फीसदी आबादी का हिस्सा हैं जो वर्षों से नजरअंदाज की जा रही है। किसान अक्षम नहीं हैं। वे गरीब हैं क्योंकि उन्हें कंगाल बनाए रखा गया है। आर्थिक सुधार जारी रखने के लिए किसानों की बलि दी जाती रही है और इस आर्थिक सुधार से सिर्फ अमीर और अमीर हुए हैं। यह सबका साथ, सबका विकास कतई नहीं है?

(लेखक प्रख्यात खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)

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