जलवायु बदल रही है, बीमारियाँ भी: ज़ूनोटिक रोगों पर बढ़ता मौसम का असर
Divendra Singh | Dec 16, 2025, 13:30 IST
( Image credit : Gaon Connection Network, Gaon Connection )
जलवायु परिवर्तन सिर्फ मौसम को नहीं, बल्कि जानवरों से इंसानों में फैलने वाली बीमारियों के खतरे को भी गहराई से प्रभावित कर रहा है। दुनिया भर के 200 से अधिक अध्ययनों के विश्लेषण से पता चलता है कि तापमान, बारिश और नमी ज़ूनोटिक रोगों के फैलाव में अहम भूमिका निभाते हैं, हालांकि यह प्रभाव हर बीमारी और हर क्षेत्र में अलग-अलग दिखाई देता है। यह शोध भविष्य की महामारी तैयारियों के लिए एक अहम चेतावनी है।
<p>इस अध्ययन का सबसे स्पष्ट निष्कर्ष यह है कि तापमान का असर सबसे मजबूत और सबसे लगातार दिखाई देता है, खासकर उन ज़ूनोटिक बीमारियों में जो मच्छर, टिक या अन्य कीटों के ज़रिये फैलती हैं।<br></p>
साल 2020 में कोरोना वायरस ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया, करोड़ों लोग इस बीमारी से संक्रमित हुए और लाखों लोगों की मौत भी हो गई। लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हुआ था, जब ज़ूनोटिक बीमारियों से इंसान प्रभावित हुए हों। जंगली जानवरों या पक्षियों से इंसानों में बैक्टीरिया या वायरस के संचरण को ज़ूनोटिक स्पिलओवर भी कहा जाता है। विशेषज्ञों के अनुसार ज़ूनोंटिक बीमारियों के पीछे कहीं न कहीं जलवायु परिवर्तन भी ज़िम्मेदार है।
जलवायु परिवर्तन और संक्रामक रोगों के रिश्ते पर पिछले कुछ वर्षों में काफी चर्चा हुई है, लेकिन जानवरों से इंसानों में फैलने वाले रोगों यानी ज़ूनोटिक बीमारियों पर इसका प्रभाव अभी भी पूरी तरह समझा नहीं जा सका है। हाल ही में PNAS में प्रकाशित एक व्यापक वैश्विक अध्ययन इस दिशा में एक अहम कड़ी जोड़ता है। यह शोध बताता है कि ज़ूनोटिक बीमारियों की जलवायु के प्रति संवेदनशीलता दुनिया भर में फैली हुई तो है, लेकिन यह समान नहीं है, कुछ बीमारियाँ तापमान, बारिश और आर्द्रता के प्रति बेहद संवेदनशील हैं, जबकि कुछ पर इनका असर सीमित या परिस्थितियों पर निर्भर करता है।
पिछले दो-तीन दशकों में ज़िका, इबोला, कोविड-19 और निपाह जैसे कई बड़े प्रकोप यह साफ कर चुके हैं कि ज़ूनोटिक रोग केवल स्वास्थ्य संकट नहीं, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिरता को भी चुनौती देते हैं। इन रोगों का उभरना केवल वायरस या बैक्टीरिया का मामला नहीं होता, बल्कि यह पर्यावरणीय बदलाव, भूमि उपयोग, मानव व्यवहार और जलवायु जैसे कई कारकों के जटिल मेल से जुड़ा होता है। इस पूरे तंत्र में जलवायु परिवर्तन एक ऐसा कारक है, जिसकी भूमिका लगातार बढ़ रही है, लेकिन जिसके प्रभाव को लेकर वैज्ञानिक प्रमाण अब तक बिखरे हुए थे।
इसी खाली जगह को भरने के लिए शोधकर्ताओं ने दुनिया भर के 65 देशों से जुड़े 218 अध्ययनों का विश्लेषण किया। इन अध्ययनों में कुल 53 अलग-अलग ज़ूनोटिक बीमारियों से संबंधित 852 जलवायु-प्रभाव मापों को शामिल किया गया। इन मापों में तापमान, वर्षा और आर्द्रता जैसे जलवायु संकेतकों का रोगों की घटनाओं, मामलों की संख्या, संक्रमण दर और सेरोप्रिवेलेंस जैसे संकेतकों से संबंध देखा गया। विश्लेषण से यह सामने आया कि लगभग 70 प्रतिशत मामलों में तापमान का ज़ूनोटिक रोग जोखिम से महत्वपूर्ण संबंध पाया गया। बारिश और आर्द्रता के मामले में यह अनुपात थोड़ा कम रहा, लेकिन फिर भी आधे से अधिक अध्ययनों में इनका कोई न कोई प्रभाव दर्ज किया गया।
इस अध्ययन का सबसे स्पष्ट निष्कर्ष यह है कि तापमान का असर सबसे मजबूत और सबसे लगातार दिखाई देता है, खासकर उन ज़ूनोटिक बीमारियों में जो मच्छर, टिक या अन्य कीटों के ज़रिये फैलती हैं। वेस्ट नाइल वायरस, जापानी इंसेफेलाइटिस, स्क्रब टाइफस और टिक-बोर्न इंसेफेलाइटिस जैसी बीमारियों में जैसे-जैसे तापमान बढ़ता है, रोग का खतरा भी बढ़ता पाया गया। इसका कारण यह है कि मच्छर और टिक जैसे कीट ठंडे खून वाले जीव होते हैं, जिनकी जीवन-प्रक्रियाएँ सीधे तापमान पर निर्भर करती हैं। गर्मी बढ़ने से इनकी प्रजनन दर तेज होती है, काटने की आवृत्ति बढ़ती है और इनके शरीर में मौजूद रोगजनक जल्दी विकसित होकर इंसानों को संक्रमित करने में सक्षम हो जाते हैं।
किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी की माइक्रोबायोलॉजी विभाग की पूर्व प्रमुख डॉ. अमिता जैन ने गाँव कनेक्शन को बताया, "जो बीमारियाँ किसी जानवर से इंसानों में फैलती हैं, वो जूनोटिक बीमारियाँ कहलाती हैं। जैसे कि बर्ड फ़्लू, इसमें वायरस पक्षियों से इंसानों को संक्रमित करता है। बर्ड फ़्लू एक उदाहरण है, ऐसी बहुत सी बीमारियाँ हैं जो जुनोटिक बीमारियों में आती हैं।"
"कोविड वायरस एनिमल्स के जरिए इंसानों तक पहुंचा, लेकिन एक इंसान से दूसरे इंसान में प्रसारित होता गया। जैसे कि रेबीज भी जूनोटिक बीमारियों में ही आता है। इसी तरह जापानी इन्सेफेलाइटिस, चिकनगुनिया जैसी बीमारियाँ वेक्टर बॉर्न डिज़ीज़ कहलाती हैं, "डॉ. अनीता ने बताया।
हालाँकि, यह संबंध सीधा और अनंत नहीं है। शोध बताता है कि तापमान और रोग जोखिम के बीच अक्सर “घंटी के आकार” जैसा संबंध होता है। एक खास तापमान सीमा तक जोखिम बढ़ता है, लेकिन उससे आगे बहुत अधिक गर्मी रोग फैलाने वाले कीटों के लिए भी घातक हो सकती है। कई जगहों पर यदि तापमान पहले से ही इस आदर्श सीमा के करीब है, तो आगे की गर्मी जोखिम को बढ़ाने के बजाय स्थिर या कम भी कर सकती है। यही वजह है कि अलग-अलग क्षेत्रों में एक ही बीमारी का जलवायु के प्रति व्यवहार अलग दिखता है।
बारिश और आर्द्रता के मामले में तस्वीर और भी जटिल है। कुछ बीमारियों में अधिक वर्षा से जोखिम बढ़ता है, तो कुछ में सूखे हालात अधिक खतरनाक साबित होते हैं। उदाहरण के लिए, लेप्टोस्पायरोसिस जैसी जल-जनित बीमारियाँ भारी बारिश और बाढ़ के बाद तेजी से फैलती हैं, क्योंकि चूहों या मवेशियों के मूत्र से दूषित पानी लोगों के संपर्क में आ जाता है। वहीं, क्यू फीवर जैसी बीमारियों में सूखा और तेज़ हवा रोगजनकों को धूल के साथ हवा में फैलाने में मदद करती है, जिससे संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है।
आर्द्रता भी दोहरी भूमिका निभाती है। अधिक नमी मच्छरों और टिकों के जीवित रहने और सक्रिय रहने के लिए अनुकूल होती है, जिससे जापानी इंसेफेलाइटिस जैसी बीमारियों का खतरा बढ़ता है। दूसरी ओर, कम आर्द्रता में धूल अधिक उड़ती है, जिससे कुछ बैक्टीरिया और वायरस हवा के माध्यम से फैल सकते हैं। इसीलिए शोधकर्ताओं ने पाया कि वर्षा और आर्द्रता के प्रभाव अक्सर स्थान, मौसम और रोग के प्रकार पर निर्भर करते हैं, और इनके परिणाम एक दिशा में नहीं जाते।
अध्ययन का एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि जिन क्षेत्रों में ज़ूनोटिक रोगों पर जलवायु का प्रभाव पहले से दिख रहा है, वे अधिकांशतः ऐसे इलाके हैं जहाँ भविष्य में तापमान 1.5 से 2 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक बढ़ने का अनुमान है। इसका मतलब यह है कि जलवायु परिवर्तन के साथ इन बीमारियों का जोखिम और जटिल तथा गंभीर हो सकता है। हालांकि शोध यह भी स्पष्ट करता है कि केवल तापमान या बारिश के आँकड़ों से भविष्य का खतरा तय नहीं किया जा सकता, क्योंकि हर रोग की पारिस्थितिकी अलग होती है।
शोध में मौजूदा अध्ययनों की सीमाओं की ओर भी ध्यान दिलाया गया है। अधिकांश अध्ययनों ने जलवायु और रोग के बीच केवल रैखिक संबंधों को देखा, जबकि वास्तविक दुनिया में ये संबंध अक्सर गैर-रैखिक और समय में विलंबित होते हैं। इसके अलावा, कई ज़ूनोटिक रोगों, खासकर चमगादड़ों से जुड़ी बीमारियों पर बहुत कम अध्ययन उपलब्ध हैं, जबकि हाल के बड़े प्रकोपों में इनकी भूमिका अहम रही है। भौगोलिक असंतुलन भी साफ है—कुछ देशों और बीमारियों पर बहुत ज़्यादा शोध हुआ है, जबकि कई क्षेत्रों में लगभग कोई डेटा नहीं है।
इन सीमाओं के बावजूद, यह अध्ययन एक मजबूत संकेत देता है कि ज़ूनोटिक बीमारियाँ जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील हैं और भविष्य में इनके जोखिम को समझने के लिए अधिक समन्वित और जैविक रूप से यथार्थवादी शोध की ज़रूरत है। वैज्ञानिकों का कहना है कि आगे के अध्ययनों में केवल आंकड़ों के सहसंबंध देखने के बजाय, यह समझना जरूरी होगा कि तापमान, बारिश और आर्द्रता किस जैविक रास्ते से रोग फैलाव को प्रभावित करते हैं।
यह शोध एक चेतावनी भी है और एक अवसर भी। चेतावनी इस मायने में कि जलवायु परिवर्तन के साथ ज़ूनोटिक रोगों का खतरा कई हिस्सों में बढ़ सकता है, और अवसर इसलिए कि यदि हम अभी से बेहतर निगरानी, पूर्वानुमान और “वन हेल्थ” आधारित दृष्टिकोण अपनाएँ, तो भविष्य के प्रकोपों को समय रहते रोका या कम किया जा सकता है। बदलती जलवायु के दौर में मानव, पशु और पर्यावरण के स्वास्थ्य को एक साथ देखने की ज़रूरत पहले से कहीं अधिक स्पष्ट हो गई है।
खाद्य और कृषि संगठन के अनुसार इंसानों में कई तरह की जुनोटिक बीमारियाँ होती हैं। मांस की खपत दिन ब दिन बढ़ती जा रही है। एएफओ के एक सर्वे के अनुसार, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और एशिया के 39% लोगों के खाने में जंगली जानवरों के मांस की खपत बढ़ी है। जोकि जुनोटिक बीमारियों के प्रमुख वाहक होते हैं।
पूरे विश्व की तरह ही भारत में भी जुनोटिक बीमारियों के संक्रमण की घटनाएँ बढ़ रहीं हैं। लगभग 816 ऐसी जूनोटिक बीमारियां हैं, जो इंसानों को प्रभावित करती हैं। ये बीमारियाँ पशु-पक्षियों से इंसानों में आसानी से प्रसारित हो जाती हैं। इनमें से 538 बीमारियाँ बैक्टीरिया से, 317 कवक से, 208 वायरस से, 287 हेल्मिन्थस से और 57 प्रोटोजोआ के जरिए पशुओं-पक्षियों से इंसानों में फैलती हैं। इनमें से कई लंबी दूरी तय करने और दुनिया को प्रभावित करने की क्षमता रखती हैं। इनमें रेबीज, ब्रूसेलोसिस, टॉक्सोप्लाज़मोसिज़, जापानी एन्सेफलाइटिस (जेई), प्लेग, निपाह, जैसी कई बीमारियाँ हैं। राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र (एनसीडीसी) की रिपोर्ट के अनुसार, प्लेग से देश के अलग-अलग हिस्सों में लगभग 12 लाख लोगों की मौत हुई है। हर साल लगभग 18 लाख लोगों को एंटी रेबीज का इंजेक्शन लगता है और लगभग 20 हजार लोगों की मौत रेबीज से हो जाती है। इसी तरह ब्रूसीलोसिस से भी लोग प्रभावित होते हैं।
इंटरनेशनल लाइवस्टॉक रिसर्च इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट के अनुसार, तेरह तरह की जुनोटिक बीमारियों की वजह से भारत में लगभग 24 लाख लोग बीमार होते हैं, जिसमें से हर साल 22 लाख लोगों की मौत हो जाती है। जलवायु परिवर्तन भी जुनोटिक बीमारियों के बढ़ने का एक कारक है।
भारतीय पशु-चिकित्सा अनुसंधान संस्थान के पूर्व निदेशक डॉ. राजकुमार सिंह भी जुनोटिक बीमारियों के बढ़ने के पीछे जलवायु परिवर्तन को एक कारक मानते हैं। डॉ. राजकुमार सिंह गाँव कनेक्शन को बताते हैं, "पिछले कुछ साल में जितनी भी जुनोटिक बीमारियाँ इंसानों तक पहुंची हैं, वो किसी तरह जंगली जानवरों से इंसानों में पहुंची हैं। इंसानों का दखल जंगलों में बढ़ा है। पिछले कुछ साल में कितने जंगल कट गए, अब जंगल कटेंगे तो जंगली जानवर इंसानों के ज्यादा करीब आएंगे, जिससे बीमारियाँ भी उन तक पहुंचेंगी।"
"जंगल का कटना, शहरी करण का बढ़ना भी बीमारियों के बढ़ने के कारण हैं। जंगल के आसपास विकास, सामाजिक-जनसांख्यिकीय परिवर्तन और पलायन, इन क्षेत्रों में नई आबादी की संख्या बढ़ा देता है। ऐसे में नए वातावरण में बीमारियाँ बढ़ने का जोखिम भी बढ़ जाता है। इसके साथ ही फूड चेन में भी बहुत बदलाव आया है, उसका ख़ामियाज़ा भी तो लोगों को उठाना पड़ेगा," डॉ. राजकुमार ने आगे कहा।
पिछले 50 साल में दुनिया भर में मांस की खपत भी बढ़ी है, इसलिए मांस उत्पादन भी बढ़ा है। एफएओ ने भी चेतावनी दी है कि मांस उपभोक्ताओं की बढ़ती संख्या नई महामारियों के जोखिम को बढ़ाएगी। विशेष रूप से, जंगलों के करीब बढ़ते पशुधन, खेती और जंगली जानवरों की परस्पर क्रिया मनुष्य के लिए रोगजनकों के प्रसार के महत्वपूर्ण कारण हैं। ये सभी कारक पर्यावरणीय अस्थिरता से संबंधित हैं जो हम इंसानों ने बनाए हैं। प्राकृतिक आवास का नुकसान और खाने में जंगली प्रजातियों को शामिल करने के कारण, जंगली जानवरों और उनके शरीर के वेक्टर जीवों का प्रसार बढ़ गया है।
जलवायु परिवर्तन और संक्रामक रोगों के रिश्ते पर पिछले कुछ वर्षों में काफी चर्चा हुई है, लेकिन जानवरों से इंसानों में फैलने वाले रोगों यानी ज़ूनोटिक बीमारियों पर इसका प्रभाव अभी भी पूरी तरह समझा नहीं जा सका है। हाल ही में PNAS में प्रकाशित एक व्यापक वैश्विक अध्ययन इस दिशा में एक अहम कड़ी जोड़ता है। यह शोध बताता है कि ज़ूनोटिक बीमारियों की जलवायु के प्रति संवेदनशीलता दुनिया भर में फैली हुई तो है, लेकिन यह समान नहीं है, कुछ बीमारियाँ तापमान, बारिश और आर्द्रता के प्रति बेहद संवेदनशील हैं, जबकि कुछ पर इनका असर सीमित या परिस्थितियों पर निर्भर करता है।
पिछले दो-तीन दशकों में ज़िका, इबोला, कोविड-19 और निपाह जैसे कई बड़े प्रकोप यह साफ कर चुके हैं कि ज़ूनोटिक रोग केवल स्वास्थ्य संकट नहीं, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिरता को भी चुनौती देते हैं। इन रोगों का उभरना केवल वायरस या बैक्टीरिया का मामला नहीं होता, बल्कि यह पर्यावरणीय बदलाव, भूमि उपयोग, मानव व्यवहार और जलवायु जैसे कई कारकों के जटिल मेल से जुड़ा होता है। इस पूरे तंत्र में जलवायु परिवर्तन एक ऐसा कारक है, जिसकी भूमिका लगातार बढ़ रही है, लेकिन जिसके प्रभाव को लेकर वैज्ञानिक प्रमाण अब तक बिखरे हुए थे।
( Image credit : Gaon Connection Network, Gaon Connection )
इसी खाली जगह को भरने के लिए शोधकर्ताओं ने दुनिया भर के 65 देशों से जुड़े 218 अध्ययनों का विश्लेषण किया। इन अध्ययनों में कुल 53 अलग-अलग ज़ूनोटिक बीमारियों से संबंधित 852 जलवायु-प्रभाव मापों को शामिल किया गया। इन मापों में तापमान, वर्षा और आर्द्रता जैसे जलवायु संकेतकों का रोगों की घटनाओं, मामलों की संख्या, संक्रमण दर और सेरोप्रिवेलेंस जैसे संकेतकों से संबंध देखा गया। विश्लेषण से यह सामने आया कि लगभग 70 प्रतिशत मामलों में तापमान का ज़ूनोटिक रोग जोखिम से महत्वपूर्ण संबंध पाया गया। बारिश और आर्द्रता के मामले में यह अनुपात थोड़ा कम रहा, लेकिन फिर भी आधे से अधिक अध्ययनों में इनका कोई न कोई प्रभाव दर्ज किया गया।
इस अध्ययन का सबसे स्पष्ट निष्कर्ष यह है कि तापमान का असर सबसे मजबूत और सबसे लगातार दिखाई देता है, खासकर उन ज़ूनोटिक बीमारियों में जो मच्छर, टिक या अन्य कीटों के ज़रिये फैलती हैं। वेस्ट नाइल वायरस, जापानी इंसेफेलाइटिस, स्क्रब टाइफस और टिक-बोर्न इंसेफेलाइटिस जैसी बीमारियों में जैसे-जैसे तापमान बढ़ता है, रोग का खतरा भी बढ़ता पाया गया। इसका कारण यह है कि मच्छर और टिक जैसे कीट ठंडे खून वाले जीव होते हैं, जिनकी जीवन-प्रक्रियाएँ सीधे तापमान पर निर्भर करती हैं। गर्मी बढ़ने से इनकी प्रजनन दर तेज होती है, काटने की आवृत्ति बढ़ती है और इनके शरीर में मौजूद रोगजनक जल्दी विकसित होकर इंसानों को संक्रमित करने में सक्षम हो जाते हैं।
किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी की माइक्रोबायोलॉजी विभाग की पूर्व प्रमुख डॉ. अमिता जैन ने गाँव कनेक्शन को बताया, "जो बीमारियाँ किसी जानवर से इंसानों में फैलती हैं, वो जूनोटिक बीमारियाँ कहलाती हैं। जैसे कि बर्ड फ़्लू, इसमें वायरस पक्षियों से इंसानों को संक्रमित करता है। बर्ड फ़्लू एक उदाहरण है, ऐसी बहुत सी बीमारियाँ हैं जो जुनोटिक बीमारियों में आती हैं।"
"कोविड वायरस एनिमल्स के जरिए इंसानों तक पहुंचा, लेकिन एक इंसान से दूसरे इंसान में प्रसारित होता गया। जैसे कि रेबीज भी जूनोटिक बीमारियों में ही आता है। इसी तरह जापानी इन्सेफेलाइटिस, चिकनगुनिया जैसी बीमारियाँ वेक्टर बॉर्न डिज़ीज़ कहलाती हैं, "डॉ. अनीता ने बताया।
हालाँकि, यह संबंध सीधा और अनंत नहीं है। शोध बताता है कि तापमान और रोग जोखिम के बीच अक्सर “घंटी के आकार” जैसा संबंध होता है। एक खास तापमान सीमा तक जोखिम बढ़ता है, लेकिन उससे आगे बहुत अधिक गर्मी रोग फैलाने वाले कीटों के लिए भी घातक हो सकती है। कई जगहों पर यदि तापमान पहले से ही इस आदर्श सीमा के करीब है, तो आगे की गर्मी जोखिम को बढ़ाने के बजाय स्थिर या कम भी कर सकती है। यही वजह है कि अलग-अलग क्षेत्रों में एक ही बीमारी का जलवायु के प्रति व्यवहार अलग दिखता है।
बारिश और आर्द्रता के मामले में तस्वीर और भी जटिल है। कुछ बीमारियों में अधिक वर्षा से जोखिम बढ़ता है, तो कुछ में सूखे हालात अधिक खतरनाक साबित होते हैं। उदाहरण के लिए, लेप्टोस्पायरोसिस जैसी जल-जनित बीमारियाँ भारी बारिश और बाढ़ के बाद तेजी से फैलती हैं, क्योंकि चूहों या मवेशियों के मूत्र से दूषित पानी लोगों के संपर्क में आ जाता है। वहीं, क्यू फीवर जैसी बीमारियों में सूखा और तेज़ हवा रोगजनकों को धूल के साथ हवा में फैलाने में मदद करती है, जिससे संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है।
आर्द्रता भी दोहरी भूमिका निभाती है। अधिक नमी मच्छरों और टिकों के जीवित रहने और सक्रिय रहने के लिए अनुकूल होती है, जिससे जापानी इंसेफेलाइटिस जैसी बीमारियों का खतरा बढ़ता है। दूसरी ओर, कम आर्द्रता में धूल अधिक उड़ती है, जिससे कुछ बैक्टीरिया और वायरस हवा के माध्यम से फैल सकते हैं। इसीलिए शोधकर्ताओं ने पाया कि वर्षा और आर्द्रता के प्रभाव अक्सर स्थान, मौसम और रोग के प्रकार पर निर्भर करते हैं, और इनके परिणाम एक दिशा में नहीं जाते।
( Image credit : Gaon Connection Network, Gaon Connection )
अध्ययन का एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि जिन क्षेत्रों में ज़ूनोटिक रोगों पर जलवायु का प्रभाव पहले से दिख रहा है, वे अधिकांशतः ऐसे इलाके हैं जहाँ भविष्य में तापमान 1.5 से 2 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक बढ़ने का अनुमान है। इसका मतलब यह है कि जलवायु परिवर्तन के साथ इन बीमारियों का जोखिम और जटिल तथा गंभीर हो सकता है। हालांकि शोध यह भी स्पष्ट करता है कि केवल तापमान या बारिश के आँकड़ों से भविष्य का खतरा तय नहीं किया जा सकता, क्योंकि हर रोग की पारिस्थितिकी अलग होती है।
शोध में मौजूदा अध्ययनों की सीमाओं की ओर भी ध्यान दिलाया गया है। अधिकांश अध्ययनों ने जलवायु और रोग के बीच केवल रैखिक संबंधों को देखा, जबकि वास्तविक दुनिया में ये संबंध अक्सर गैर-रैखिक और समय में विलंबित होते हैं। इसके अलावा, कई ज़ूनोटिक रोगों, खासकर चमगादड़ों से जुड़ी बीमारियों पर बहुत कम अध्ययन उपलब्ध हैं, जबकि हाल के बड़े प्रकोपों में इनकी भूमिका अहम रही है। भौगोलिक असंतुलन भी साफ है—कुछ देशों और बीमारियों पर बहुत ज़्यादा शोध हुआ है, जबकि कई क्षेत्रों में लगभग कोई डेटा नहीं है।
इन सीमाओं के बावजूद, यह अध्ययन एक मजबूत संकेत देता है कि ज़ूनोटिक बीमारियाँ जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील हैं और भविष्य में इनके जोखिम को समझने के लिए अधिक समन्वित और जैविक रूप से यथार्थवादी शोध की ज़रूरत है। वैज्ञानिकों का कहना है कि आगे के अध्ययनों में केवल आंकड़ों के सहसंबंध देखने के बजाय, यह समझना जरूरी होगा कि तापमान, बारिश और आर्द्रता किस जैविक रास्ते से रोग फैलाव को प्रभावित करते हैं।
यह शोध एक चेतावनी भी है और एक अवसर भी। चेतावनी इस मायने में कि जलवायु परिवर्तन के साथ ज़ूनोटिक रोगों का खतरा कई हिस्सों में बढ़ सकता है, और अवसर इसलिए कि यदि हम अभी से बेहतर निगरानी, पूर्वानुमान और “वन हेल्थ” आधारित दृष्टिकोण अपनाएँ, तो भविष्य के प्रकोपों को समय रहते रोका या कम किया जा सकता है। बदलती जलवायु के दौर में मानव, पशु और पर्यावरण के स्वास्थ्य को एक साथ देखने की ज़रूरत पहले से कहीं अधिक स्पष्ट हो गई है।
खाद्य और कृषि संगठन के अनुसार इंसानों में कई तरह की जुनोटिक बीमारियाँ होती हैं। मांस की खपत दिन ब दिन बढ़ती जा रही है। एएफओ के एक सर्वे के अनुसार, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और एशिया के 39% लोगों के खाने में जंगली जानवरों के मांस की खपत बढ़ी है। जोकि जुनोटिक बीमारियों के प्रमुख वाहक होते हैं।
पूरे विश्व की तरह ही भारत में भी जुनोटिक बीमारियों के संक्रमण की घटनाएँ बढ़ रहीं हैं। लगभग 816 ऐसी जूनोटिक बीमारियां हैं, जो इंसानों को प्रभावित करती हैं। ये बीमारियाँ पशु-पक्षियों से इंसानों में आसानी से प्रसारित हो जाती हैं। इनमें से 538 बीमारियाँ बैक्टीरिया से, 317 कवक से, 208 वायरस से, 287 हेल्मिन्थस से और 57 प्रोटोजोआ के जरिए पशुओं-पक्षियों से इंसानों में फैलती हैं। इनमें से कई लंबी दूरी तय करने और दुनिया को प्रभावित करने की क्षमता रखती हैं। इनमें रेबीज, ब्रूसेलोसिस, टॉक्सोप्लाज़मोसिज़, जापानी एन्सेफलाइटिस (जेई), प्लेग, निपाह, जैसी कई बीमारियाँ हैं। राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र (एनसीडीसी) की रिपोर्ट के अनुसार, प्लेग से देश के अलग-अलग हिस्सों में लगभग 12 लाख लोगों की मौत हुई है। हर साल लगभग 18 लाख लोगों को एंटी रेबीज का इंजेक्शन लगता है और लगभग 20 हजार लोगों की मौत रेबीज से हो जाती है। इसी तरह ब्रूसीलोसिस से भी लोग प्रभावित होते हैं।
इंटरनेशनल लाइवस्टॉक रिसर्च इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट के अनुसार, तेरह तरह की जुनोटिक बीमारियों की वजह से भारत में लगभग 24 लाख लोग बीमार होते हैं, जिसमें से हर साल 22 लाख लोगों की मौत हो जाती है। जलवायु परिवर्तन भी जुनोटिक बीमारियों के बढ़ने का एक कारक है।
भारतीय पशु-चिकित्सा अनुसंधान संस्थान के पूर्व निदेशक डॉ. राजकुमार सिंह भी जुनोटिक बीमारियों के बढ़ने के पीछे जलवायु परिवर्तन को एक कारक मानते हैं। डॉ. राजकुमार सिंह गाँव कनेक्शन को बताते हैं, "पिछले कुछ साल में जितनी भी जुनोटिक बीमारियाँ इंसानों तक पहुंची हैं, वो किसी तरह जंगली जानवरों से इंसानों में पहुंची हैं। इंसानों का दखल जंगलों में बढ़ा है। पिछले कुछ साल में कितने जंगल कट गए, अब जंगल कटेंगे तो जंगली जानवर इंसानों के ज्यादा करीब आएंगे, जिससे बीमारियाँ भी उन तक पहुंचेंगी।"
"जंगल का कटना, शहरी करण का बढ़ना भी बीमारियों के बढ़ने के कारण हैं। जंगल के आसपास विकास, सामाजिक-जनसांख्यिकीय परिवर्तन और पलायन, इन क्षेत्रों में नई आबादी की संख्या बढ़ा देता है। ऐसे में नए वातावरण में बीमारियाँ बढ़ने का जोखिम भी बढ़ जाता है। इसके साथ ही फूड चेन में भी बहुत बदलाव आया है, उसका ख़ामियाज़ा भी तो लोगों को उठाना पड़ेगा," डॉ. राजकुमार ने आगे कहा।
पिछले 50 साल में दुनिया भर में मांस की खपत भी बढ़ी है, इसलिए मांस उत्पादन भी बढ़ा है। एफएओ ने भी चेतावनी दी है कि मांस उपभोक्ताओं की बढ़ती संख्या नई महामारियों के जोखिम को बढ़ाएगी। विशेष रूप से, जंगलों के करीब बढ़ते पशुधन, खेती और जंगली जानवरों की परस्पर क्रिया मनुष्य के लिए रोगजनकों के प्रसार के महत्वपूर्ण कारण हैं। ये सभी कारक पर्यावरणीय अस्थिरता से संबंधित हैं जो हम इंसानों ने बनाए हैं। प्राकृतिक आवास का नुकसान और खाने में जंगली प्रजातियों को शामिल करने के कारण, जंगली जानवरों और उनके शरीर के वेक्टर जीवों का प्रसार बढ़ गया है।