आईआईटी हैदराबाद ने विकसित की ब्लैक फंगस उपचार के लिए ओरल ड्रग
India Science Wire | Jun 02, 2021, 04:39 IST
आईआईटी हैदराबाद ने ब्लैक फंगस के उपचार के लिए एम्फोटेरिसिन बी (एएमबी) दवा की नैनोफाइबर-आधारित गोलियां विकसित की हैं, जो मौखिक रूप से ली जा सकती हैं।
देश में कोरोना संक्रमण में तो कमी आ रही है, लेकिन दूसरी तरफ ब्लैक फंगस के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। ब्लैक फंगस के उपचार में प्रयुक्त होने वाली दवाएं अभी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) हैदराबाद के शोधकर्ताओं ने ब्लैक फंगस के उपचार के लिए एक ओरल सॉल्यूशन विकसित किया है।
ब्लैक फंगस के अधिकांश मरीज ऐसे हैं, जो पहले से किसी गंभीर बीमारी से पीड़ित हैं, और हाल ही में कोरोना संक्रमण से ठीक हुए हैं। देश के कई राज्यों ने ब्लैक फंगस को महामारी घोषित कर दिया है।
आईआईटी हैदराबाद ने ब्लैक फंगस के उपचार के लिए एम्फोटेरिसिन बी (एएमबी) दवा की नैनोफाइबर-आधारित गोलियां विकसित की हैं, जो मौखिक रूप से ली जा सकती हैं। आईआईटी हैदराबाद ने कहा है कि रोगी के लिए 60 मिलीग्राम दवा अनुकूल रहेगी और यह शरीर में धीरे-धीरे नेफ्रो-टॉक्सिसिटी के प्रभाव को कम कर सकती है। नेफ्रो-टॉक्सिसिटी का मतलब रासायनिक कारणों से किडनी को होने वाले नुकसान से है।
वर्ष 2019 में, आईआईटी हैदराबाद के केमिकल इंजीनियरिंग विभाग के सदस्य प्रोफेसर सप्तर्षि मजूमदार और डॉ चंद्रशेखर शर्मा ने अपने एक अध्ययन में कालाजार के इलाज के लिए ओरल नैनो फाइबर युक्त एएमबी को प्रभावी पाया है। कालाजार के इलाज के लिए एम्फोटेरिसिन बी दवा की गोलियां बनाने का यह पहला प्रयास था।
वर्तमान में, काला जार उपचार का उपयोग ब्लैक फंगस और अन्य फंगस संक्रमण के उपचार के लिए किया जा रहा है। वैसे तो एम्फोटेरिसिन बी दवा का इंजेक्शन बाजार में उपलब्ध है। लेकिन, आईआईटी हैदराबाद ने इस दवा की गोलियां बनायी हैं।
डॉ चंद्रशेखर शर्मा ने बताया, "एम्फोटेरिसिन बी दवा को इंजेक्शन के माध्यम से दिया जाए तो विषाक्तता बढ़ने का खतरा रहता है, जिससे किडनी फेल हो सकती है। इसलिए, इस दवा को डॉक्टर की निगरानी में ही दिया जाता है। दूसरी ओर, इंजेक्शन की कीमत भी ज्यादा है, जिससे इलाज में अधिक खर्च आता है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि अपनी एम्फीफिलिक प्रकृति के कारण यह दवा शरीर में बेहतर तरीके से घुल नहीं पाती है, और शरीर के आंतरिक तंत्र में अवरोध उत्पन्न करती है। इस कारण रिनल-फिल्ट्रेशन पर दबाव पड़ता है। इसलिए, इस दवा के सीधे मौखिक सेवन से बचा जाता है। हालांकि, मौखिक रूप से यह दवा लेना आरामदायक और प्रभावी तरीका माना जाता है। इसलिए, शोधकर्ताओं ने अत्यधिक धीमी गति से एम्फोटेरिसिन बी दवा को मौखिक रूप से वितरित करने का निश्चय किया।
शोधकर्ताओं का कहना है कि इस शोध का उद्देश्य है दवा शरीर में बेहतर तरीके से घुल जाए और इसकी वजह से जो समस्याएं आ रही हैं, वे कम हो जाएं।
डॉ चंद्रशेखर शर्मा ने कहा है कि इस दवा की तकनीक बौद्धिक संपदा अधिकार से मुक्त है, जिससे इसका व्यापक स्तर पर उत्पादन हो सकता है, और जनता को यह किफायती और सुगमता से उपलब्ध हो सकती है। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह प्रौद्योगिकी बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए उपयुक्त फार्मा भागीदारों को हस्तांतरित की जा सकती है।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के नैनो मिशन के अनुदान पर आधारित इस अध्ययन में आईआईटी हैदराबाद के प्रोफेसर सप्तर्षि मजूमदार एवं डॉ चंद्रशेखर शर्मा के अलावा पीएचडी शोधार्थी मृणालिनी गेधाने और अनिंदिता लाहा शामिल हैं।
ब्लैक फंगस के अधिकांश मरीज ऐसे हैं, जो पहले से किसी गंभीर बीमारी से पीड़ित हैं, और हाल ही में कोरोना संक्रमण से ठीक हुए हैं। देश के कई राज्यों ने ब्लैक फंगस को महामारी घोषित कर दिया है।
आईआईटी हैदराबाद ने ब्लैक फंगस के उपचार के लिए एम्फोटेरिसिन बी (एएमबी) दवा की नैनोफाइबर-आधारित गोलियां विकसित की हैं, जो मौखिक रूप से ली जा सकती हैं। आईआईटी हैदराबाद ने कहा है कि रोगी के लिए 60 मिलीग्राम दवा अनुकूल रहेगी और यह शरीर में धीरे-धीरे नेफ्रो-टॉक्सिसिटी के प्रभाव को कम कर सकती है। नेफ्रो-टॉक्सिसिटी का मतलब रासायनिक कारणों से किडनी को होने वाले नुकसान से है।
वर्ष 2019 में, आईआईटी हैदराबाद के केमिकल इंजीनियरिंग विभाग के सदस्य प्रोफेसर सप्तर्षि मजूमदार और डॉ चंद्रशेखर शर्मा ने अपने एक अध्ययन में कालाजार के इलाज के लिए ओरल नैनो फाइबर युक्त एएमबी को प्रभावी पाया है। कालाजार के इलाज के लिए एम्फोटेरिसिन बी दवा की गोलियां बनाने का यह पहला प्रयास था।
वर्तमान में, काला जार उपचार का उपयोग ब्लैक फंगस और अन्य फंगस संक्रमण के उपचार के लिए किया जा रहा है। वैसे तो एम्फोटेरिसिन बी दवा का इंजेक्शन बाजार में उपलब्ध है। लेकिन, आईआईटी हैदराबाद ने इस दवा की गोलियां बनायी हैं।
डॉ चंद्रशेखर शर्मा ने बताया, "एम्फोटेरिसिन बी दवा को इंजेक्शन के माध्यम से दिया जाए तो विषाक्तता बढ़ने का खतरा रहता है, जिससे किडनी फेल हो सकती है। इसलिए, इस दवा को डॉक्टर की निगरानी में ही दिया जाता है। दूसरी ओर, इंजेक्शन की कीमत भी ज्यादा है, जिससे इलाज में अधिक खर्च आता है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि अपनी एम्फीफिलिक प्रकृति के कारण यह दवा शरीर में बेहतर तरीके से घुल नहीं पाती है, और शरीर के आंतरिक तंत्र में अवरोध उत्पन्न करती है। इस कारण रिनल-फिल्ट्रेशन पर दबाव पड़ता है। इसलिए, इस दवा के सीधे मौखिक सेवन से बचा जाता है। हालांकि, मौखिक रूप से यह दवा लेना आरामदायक और प्रभावी तरीका माना जाता है। इसलिए, शोधकर्ताओं ने अत्यधिक धीमी गति से एम्फोटेरिसिन बी दवा को मौखिक रूप से वितरित करने का निश्चय किया।
शोधकर्ताओं का कहना है कि इस शोध का उद्देश्य है दवा शरीर में बेहतर तरीके से घुल जाए और इसकी वजह से जो समस्याएं आ रही हैं, वे कम हो जाएं।
डॉ चंद्रशेखर शर्मा ने कहा है कि इस दवा की तकनीक बौद्धिक संपदा अधिकार से मुक्त है, जिससे इसका व्यापक स्तर पर उत्पादन हो सकता है, और जनता को यह किफायती और सुगमता से उपलब्ध हो सकती है। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह प्रौद्योगिकी बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए उपयुक्त फार्मा भागीदारों को हस्तांतरित की जा सकती है।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के नैनो मिशन के अनुदान पर आधारित इस अध्ययन में आईआईटी हैदराबाद के प्रोफेसर सप्तर्षि मजूमदार एवं डॉ चंद्रशेखर शर्मा के अलावा पीएचडी शोधार्थी मृणालिनी गेधाने और अनिंदिता लाहा शामिल हैं।