मेंथा की लाभकारी खेती: आलू की तरह मेड़ बनाकर लगाएं मेंथा, कम लागत में निकलेगा ज्यादा तेल
Divendra Singh | Feb 11, 2021, 05:18 IST
मेंथा की नई विधि में लागत भी कम लगती है और तेल का ज्यादा उत्पादन भी होता है। इस विधि से बुवाई करने पर सिंचाई भी कम करनी पड़ती है।
अभी तक किसान पुराने तरीकों से मेंथा की बुवाई करते आ रहे हैं, जिसमें लागत भी ज्यादा आती थी और उत्पादन भी ज्यादा नहीं मिलता था, केंद्रीय औषधीय एवं सगंध संस्थान के वैज्ञानिकों ने अगेती मिंट तकनीक विकसित की है, जिस तकनीक से बुवाई करके किसान ज्यादा उत्पादन पा सकते हैं और लागत भी कम लगती है। इसमें बुवाई के लिए जड़ें भी कम लगती हैं और बाद में सिंचाई भी कम करनी पड़ती है।
"मैं पिछले कई साल से मेंथा की खेती कर रहा हूं, सीमैप किसान मेला में भी हर साल आता रहता हूं। यहीं पर मेंथा रोपाई की नई तकनीक के बारे में पता चला था। इस तकनीक में फसल जल्दी तैयार हो जाती है, जिससे समय और पैसे दोनों की बचत हो जाती है," पिछले 20 वर्षों से एलोवेरा और मेंथा जैसी औषधीय फ़सलों की खेती करने वाले गुजरात के किसान हरसुख राणाभाई पटेल ने बताया। हरसुख भाई (65 वर्ष), राजकोट जिले में धोराजी गाँव में रहते हैं। वो अब नई तकनीक से मेंथा की बुवाई करते हैं।
मेंथा की जड़ों को छोटा-छोटा काटकर जूट के बोरी में रख दिया जाता है। फोटो: दिवेंद्र सिंह
सीएसआईआर- केंद्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान ने पिछले कुछ दशकों में मेंथा की कई उन्नतशील किस्में विकसित की हैं। इनमें सिम सरयू, सिम कोसी, सिम क्रांति किस्में किसान सबसे ज्यादा लगाते हैं। सिम कोसी व सिम-क्रान्ति दोनों किस्में खास करके उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में व्यावसायिक रूप से पिछले कई वर्षों से होती चली आ रही हैं।
देश में मेंथा ऑयल के तेज़ी से बढ़ते बाजार को देखते हुए, केंद्रीय औषध एवं सगंध संस्थान के वैज्ञानिकों ने अगेती मिंट तकनीक विकसित की है। इस तकनीक को अपनाकर मेंथा की बुवाई करने वाले किसान ज़्यादा मुनाफ़ा कमा सकते हैं। इस तकनीक से न केवल उत्पादन बढ़ता है बल्कि किसानों की लागत भी कम लगती है।
उत्तर प्रदेश के बाराबंकी, सीतापुर, रायबरेली, बदायूं, बरेली जैसे जिलों में देश के कुल मेंथा का 90% उत्पादन होता है। बाकी का 10% उत्पादन गुजरात और पंजाब आदि राज्यों से होता है।
इस विधि में पॉलीटनल में नर्सरी लगायी जाती है, जिससे तापमान बढ़ जाए। फोटो: दिवेंद्र सिंह
केंद्रीय औषध एवं सगंध संस्थान (CIMAP),लखनऊ के वैज्ञानिक डॉ राकेश कुमार ने बताया, "अभी तक किसान सामान्य विधि से मेंथा की खेती करते आ रहे हैं, इसमें किसान लाइन से लाइन की दूरी तो 60 सेमी के करीब रखते हैं, लेकिन पौध से पौध की दूरी पर ध्यान नहीं देते हैं और नज़दीक लगा देते हैं। ज्यादा नज़दीक पौध लगाने से पौधों की ग्रोथ कम हो जाती है, साथ ही पत्तियां भी नीचे गिरने लगती हैं। इसमें पत्ती से ही तेल निकलता है, अगर पत्ती ही नहीं रहेगी तो नुकसान होगा। इसलिए पौध से पौध की एक दूरी निश्चित की जाती है। सामान्य विधि में किसान सीधे सकर (जड़) लगाते थे, जिसमें एक हेक्टेयर में मेंथा लगाने के लिए ढाई कुंतल से लेकर तीन कुंतल तक सकर लग जाती थी। जबकि नई विधि से पौध के जरिए बुवाई करने पर एक कुंतल जड़ें ही लगती हैं।"
मेंथा की नई विधि के बारे में डॉ. राकेश कुमार ने बताया कि किसान अभी सामान्य विधि से जो रोपाई करते हैं, जिसमें पानी ज्यादा लगता है, खरपतवार नियंत्रण में ज्यादा समय लगता है। इसलिए अगेती मिंट तकनीक विकसित की गई है। इसमें सबसे पहले नर्सरी तैयार की जाती है। नर्सरी तैयार करने के लिए सबसे पहले किसान मेंथा की जड़ लेकर, उसको छोटा-छोटा काट लेंगे। फिर उसे जूट के बोरे में दो-तीन दिनों के लिए रख देंगे, ताकि जड़ें विकसित हो जाएं।"
मेड़ के दोनों तरफ पौधे लगा दिए जाते हैं, जिससे फसल की बढ़वार अच्छी होती है। फोटो: दिवेंद्र सिंह
इसके बाद खेत तैयार करने के बाद पलेवा करके उसमें जड़ें बिखेर देंगे, जिस तरह से धान की नर्सरी तैयार करते हैं। इसके बाद इसे पॉलिथिन शीट से ढंक देते हैं, ताकि अगर तापमान कम भी रहे तो पौधों को गर्मी मिलती रहे। फरवरी महीने में मेंथा की नर्सरी तैयार करते हैं, क्योंकि इस समय तामपान बढ़ने लगता है, तापमान बढ़ने से मेंथा की बढ़वार अच्छी होती है। फरवरी में लगाई गई नर्सरी 20 से 25 दिन में तैयार हो जाती है।
नर्सरी तैयार होने के बाद अब बारी आती है, मेंथा रोपाई की। नई विधि में सीधे खेत में रोपाई न करके आलू की बुवाई की तरह मेड़ बनायी जाती है। इसमें भी एक मेड़ से दूसरी मेड़ की दूरी 60 सेंटीमीटर रखी जाती है। इसमें एक बात का और ध्यान रखना होता है। फरवरी में मेंथा की रोपाई कर रहे हों तो एक पौधे से दूसरे पौधे की दूरी 30 सेमी रखनी चाहिए। मेड़ लगाने का एक और फायदा है, जब खेत की सिंचाई करते हैं तो पानी पौधों की जड़ों तक आसानी से पहुंचता है।
अगर किसान मार्च के बाद मेंथा की रोपाई करते हैं तो मेड़ से मेड़ की दूरी 60 सेमी ही रखते हैं, लेकिन पौधों को पेड़ के दोनों साइड में लगाते हैं। एक बात और ध्यान रखनी चाहिए, पौधे एक दूसरे के सीध में नहीं लगाने चाहिए। इस विधि से मेंथा की बुवाई करने पर किसान दो बार मेंथा की कटाई कर सकते हैं।
कई किसान गेहूं की कटाई के बाद अप्रैल में मेंथा की बुवाई करते हैं, इसके लिए लगाने की विधि मार्च महीने की तरह ही होती है, मेड़ से मेड़ की दूरी 60 सेमी ही रखते हैं, लेकिन पौध से पौध की दूरी कम करके 20 से 25 सेमी कर देते हैं। जिससे मेंथा का अच्छा उत्पादन मिल जाता है।
"मैं पिछले कई साल से मेंथा की खेती कर रहा हूं, सीमैप किसान मेला में भी हर साल आता रहता हूं। यहीं पर मेंथा रोपाई की नई तकनीक के बारे में पता चला था। इस तकनीक में फसल जल्दी तैयार हो जाती है, जिससे समय और पैसे दोनों की बचत हो जाती है," पिछले 20 वर्षों से एलोवेरा और मेंथा जैसी औषधीय फ़सलों की खेती करने वाले गुजरात के किसान हरसुख राणाभाई पटेल ने बताया। हरसुख भाई (65 वर्ष), राजकोट जिले में धोराजी गाँव में रहते हैं। वो अब नई तकनीक से मेंथा की बुवाई करते हैं।
सीएसआईआर- केंद्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान ने पिछले कुछ दशकों में मेंथा की कई उन्नतशील किस्में विकसित की हैं। इनमें सिम सरयू, सिम कोसी, सिम क्रांति किस्में किसान सबसे ज्यादा लगाते हैं। सिम कोसी व सिम-क्रान्ति दोनों किस्में खास करके उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में व्यावसायिक रूप से पिछले कई वर्षों से होती चली आ रही हैं।
देश में मेंथा ऑयल के तेज़ी से बढ़ते बाजार को देखते हुए, केंद्रीय औषध एवं सगंध संस्थान के वैज्ञानिकों ने अगेती मिंट तकनीक विकसित की है। इस तकनीक को अपनाकर मेंथा की बुवाई करने वाले किसान ज़्यादा मुनाफ़ा कमा सकते हैं। इस तकनीक से न केवल उत्पादन बढ़ता है बल्कि किसानों की लागत भी कम लगती है।
उत्तर प्रदेश के बाराबंकी, सीतापुर, रायबरेली, बदायूं, बरेली जैसे जिलों में देश के कुल मेंथा का 90% उत्पादन होता है। बाकी का 10% उत्पादन गुजरात और पंजाब आदि राज्यों से होता है।
केंद्रीय औषध एवं सगंध संस्थान (CIMAP),लखनऊ के वैज्ञानिक डॉ राकेश कुमार ने बताया, "अभी तक किसान सामान्य विधि से मेंथा की खेती करते आ रहे हैं, इसमें किसान लाइन से लाइन की दूरी तो 60 सेमी के करीब रखते हैं, लेकिन पौध से पौध की दूरी पर ध्यान नहीं देते हैं और नज़दीक लगा देते हैं। ज्यादा नज़दीक पौध लगाने से पौधों की ग्रोथ कम हो जाती है, साथ ही पत्तियां भी नीचे गिरने लगती हैं। इसमें पत्ती से ही तेल निकलता है, अगर पत्ती ही नहीं रहेगी तो नुकसान होगा। इसलिए पौध से पौध की एक दूरी निश्चित की जाती है। सामान्य विधि में किसान सीधे सकर (जड़) लगाते थे, जिसमें एक हेक्टेयर में मेंथा लगाने के लिए ढाई कुंतल से लेकर तीन कुंतल तक सकर लग जाती थी। जबकि नई विधि से पौध के जरिए बुवाई करने पर एक कुंतल जड़ें ही लगती हैं।"
नई तकनीक से ऐसे करें बुवाई
इसके बाद खेत तैयार करने के बाद पलेवा करके उसमें जड़ें बिखेर देंगे, जिस तरह से धान की नर्सरी तैयार करते हैं। इसके बाद इसे पॉलिथिन शीट से ढंक देते हैं, ताकि अगर तापमान कम भी रहे तो पौधों को गर्मी मिलती रहे। फरवरी महीने में मेंथा की नर्सरी तैयार करते हैं, क्योंकि इस समय तामपान बढ़ने लगता है, तापमान बढ़ने से मेंथा की बढ़वार अच्छी होती है। फरवरी में लगाई गई नर्सरी 20 से 25 दिन में तैयार हो जाती है।
नर्सरी तैयार होने के बाद अब बारी आती है, मेंथा रोपाई की। नई विधि में सीधे खेत में रोपाई न करके आलू की बुवाई की तरह मेड़ बनायी जाती है। इसमें भी एक मेड़ से दूसरी मेड़ की दूरी 60 सेंटीमीटर रखी जाती है। इसमें एक बात का और ध्यान रखना होता है। फरवरी में मेंथा की रोपाई कर रहे हों तो एक पौधे से दूसरे पौधे की दूरी 30 सेमी रखनी चाहिए। मेड़ लगाने का एक और फायदा है, जब खेत की सिंचाई करते हैं तो पानी पौधों की जड़ों तक आसानी से पहुंचता है।
अगर किसान मार्च के बाद मेंथा की रोपाई करते हैं तो मेड़ से मेड़ की दूरी 60 सेमी ही रखते हैं, लेकिन पौधों को पेड़ के दोनों साइड में लगाते हैं। एक बात और ध्यान रखनी चाहिए, पौधे एक दूसरे के सीध में नहीं लगाने चाहिए। इस विधि से मेंथा की बुवाई करने पर किसान दो बार मेंथा की कटाई कर सकते हैं।
कई किसान गेहूं की कटाई के बाद अप्रैल में मेंथा की बुवाई करते हैं, इसके लिए लगाने की विधि मार्च महीने की तरह ही होती है, मेड़ से मेड़ की दूरी 60 सेमी ही रखते हैं, लेकिन पौध से पौध की दूरी कम करके 20 से 25 सेमी कर देते हैं। जिससे मेंथा का अच्छा उत्पादन मिल जाता है।