रीसाइक्लिंग के बारे में सुना है? हमारे गाँवों में तो बरसों से यही होता आ रहा है
Divendra Singh | Mar 18, 2025, 17:24 IST
भारत के गाँवों में लोग भले ही रीसाइक्लिंग शब्द से परिचित न हों, लेकिन करना बखूबी जानते हैं। नानी-दादी अपनी आने वाली पीढ़ियों को सिखा जाती हैं।
पिछले कुछ सालों में शायद आपने भी ये शब्द सुने हों? रीसाइक्लिंग और अपसाइक्लिंग, वही पुराने सामान को दोबारा इस्तेमाल में लाना और उससे कुछ नया बनाना, लेकिन हमारे गाँवों में तो ये बरसों से चला आ रहा है।
दीदी-भैया के कपड़े छोटे हुए तो छोटे भाई -बहन के काम आ गए, और ज्यादा पुराने हुए तो तकिये में भर दिए गए, हो गई न रीसाइक्लिंग, हमारे यहाँ तो कई राज्यों में तो कई कला भी इन्हीं पुराने कपड़ों से बनती आ रहीं हैं; ऐसी ही एक कला तो बिहार की सुजनी कला भी है।
पुराने कपड़ों पर बड़ी सुई, जिसे गाँव में सूजा कहते हैं, इसकी मदद से मोटे धागों से पुराने कपड़ों को जोड़कर बनती है सुजनी।
चलिए सुजनी से आगे बढ़ते हैं, शादियों के कार्ड, साड़ी के पुराने डिब्बे से बनते हैं हाथ के पंखे और उनके किनारे लगती हैं पुराने कपड़ों की कतरनों की झालर, गर्मियों से पहले ही सब इकट्ठे कर लिए जाते हैं और सर्दियों को विदा करते ही काम शुरू हो जाता है।
गाँव के घरों में रीसाइक्लिंग और अपसाइक्लिंग के कई नमूने मिल जाते हैं, अब तो गाँवों में पुरानी साड़ियाँ देकर दरी भी बनने लगीं हैं; रसोई में डालडा के नीले डिब्बे हों, या फिर कनस्तर हर किसी का इस्तेमाल होता है, ऐसे न जाने कितने उदाहरण हैं हमारे ग्रामीण भारत में।
लेकिन पिछले कुछ साल में प्लास्टिक के बोझ के तले ग्रामीण भारत दबने लगा है सिंगल यूज प्लास्टिक उन गाँवों तक पहुंच गया है, जहाँ पर कोई अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली ही नहीं है।
भारत में लगभग 600,000 गाँव हैं। देश में डिब्बाबंद और प्रोसेस्ड फूड इंडस्ट्री के विकास के साथ, खाने के लिए तैयार खाद्य पदार्थ जैसे इंस्टेंट नूडल्स, बिस्कुट और चिप्स, और शैंपू, बालों के तेल और क्रीम के पाउच ने ग्रामीण भारत में पैठ बना ली है।
ग्रामीण बाजार, जो देश में कुल एफएमसीजी (फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स) की बिक्री में लगभग 35 प्रतिशत का योगदान करते हैं, ने पैकेज्ड खाद्य पदार्थों की खपत में वृद्धि देखी है, जो आमतौर पर प्लास्टिक में पैक किए जाते हैं। और यह चिंताजनक है कि इनमें से लगभग 70 प्रतिशत पैकेजिंग बेकार हो जाती है।
अब तो गाँव की शादियों में भी शायद ही कभी बायोडिग्रेडेबल लीफ-प्लेट का इस्तेमाल होता है। डिस्पोजेबल स्टायरोफोम प्लेट और प्लास्टिक कप का इस्तेमाल होता है, एक समय था जब पत्तल दोना के इस्तेमाल होता था।
गैर-लाभकारी संस्था प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन द्वारा सितंबर 2022 में जारी की गई प्लास्टिक स्टोरी: स्टडी ऑफ रूरल इंडिया शीर्षक वाली रिपोर्ट में पाया गया कि 15 राज्यों के 700 गाँवों में से केवल 36 प्रतिशत में सार्वजनिक डस्टबिन उपलब्ध थीं।
सिर्फ 29 फीसदी के पास सामुदायिक कचरा संग्रह वाहन था, जबकि आधे से भी कम गाँवों में सफाई कर्मचारी या सफाई कर्मचारी की पहुंच थी।
लेकिन सवाल है कि प्लास्टिक वेस्ट को कैसे रिसाइकल किया जा सकता है? एक रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण सड़कों के निर्माण में इस्तेमाल होने वाले टार में 20 फीसदी तक कचरे को एक घटक के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।
तमिलनाडु राज्य ने ऐसा किया भी है। जिला ग्रामीण विकास एजेंसी (DRDA), तमिलनाडु द्वारा प्लास्टिक कचरे का उपयोग करके 1,031 किलोमीटर से अधिक ग्रामीण सड़कों का निर्माण किया गया है। ये सड़कें राज्य के सभी 29 जिलों (लगभग 40 किलोमीटर प्रत्येक) में बिछाई गई हैं।
आईआईटी बॉम्बे के EMERGY प्रोग्राम के जरिए BIO STABILIZED AERATED STATIC PILE (BASP) एक ऐसा अभिनव और सिद्ध समाधान है। EMERGY ने जैविक कचरे के प्रबंधन के लिए एक उपयोगकर्ता-अनुकूल कंपोस्टिंग तकनीक विकसित की है।
मध्य प्रदेश के भोपाल में एक महिला-नेतृत्व वाली गैर-लाभकारी संस्था, महाशक्ति सेवा केंद्र में तो महिलाएं प्लास्टिक कचरे से लैपटॉप बैग, टोकरी, पर्दे और कालीन बना रही हैं। ये महिलाएं पर्यावरण संरक्षण तो कर ही रहीं हैं, साथ ही उनकी आमदनी का एक जरिया भी मिला है।
ऐसी ही कहानी ओडिशा के केंद्रपाड़ा जिले की कमला मोहराना की भी है, जो एक छोटे से गाँव में उस महिला स्वयं सहायता समूह का हिस्सा हैं, जो दूध के पाउच, सिगरेट के पैकेट, गुटखा के रैपर को बड़ी कुशलता के साथ सुंदर शिल्प में बदलने का काम कर रहा है। इससे न सिर्फ महिलाओं को रोजगार मिल रहा है, बल्कि उनके गाँव और आसपास के इलाके में साफ-सफाई भी हो रही है।
गोवा के क्लिंटन वाज़ और उनकी टीम गाँव-गाँव जाकर एक-एक घर से कचरा इकट्ठा करती है, ये सिर्फ कचरा नहीं उठाते, बल्कि उससे कमाई भी कर रहे हैं , सारे कचरे को इकट्ठा करके वो उसे recycle करते हैं, जो सीमेंट फैक्ट्री में ईंधन के तौर पर इस्तेमाल होता है।
ऐसी न जाने कितनी कहानियाँ आपको गाँव में हर एक घर में ऐसी ही न जाने कितनी कहानियाँ मिल जाएंगी, वो भले ही रीसाइक्लिंग शब्द से न परिचित हों, लेकिन करना बखूबी जानते हैं।
आज जब जब पूरी दुनिया अपसाईक्लिंग और Sustainability की बात कर रही है, भारत के गाँव में बरसों से यही होता आ रहा है।
दीदी-भैया के कपड़े छोटे हुए तो छोटे भाई -बहन के काम आ गए, और ज्यादा पुराने हुए तो तकिये में भर दिए गए, हो गई न रीसाइक्लिंग, हमारे यहाँ तो कई राज्यों में तो कई कला भी इन्हीं पुराने कपड़ों से बनती आ रहीं हैं; ऐसी ही एक कला तो बिहार की सुजनी कला भी है।
पुराने कपड़ों पर बड़ी सुई, जिसे गाँव में सूजा कहते हैं, इसकी मदद से मोटे धागों से पुराने कपड़ों को जोड़कर बनती है सुजनी।
चलिए सुजनी से आगे बढ़ते हैं, शादियों के कार्ड, साड़ी के पुराने डिब्बे से बनते हैं हाथ के पंखे और उनके किनारे लगती हैं पुराने कपड़ों की कतरनों की झालर, गर्मियों से पहले ही सब इकट्ठे कर लिए जाते हैं और सर्दियों को विदा करते ही काम शुरू हो जाता है।
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लेकिन पिछले कुछ साल में प्लास्टिक के बोझ के तले ग्रामीण भारत दबने लगा है सिंगल यूज प्लास्टिक उन गाँवों तक पहुंच गया है, जहाँ पर कोई अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली ही नहीं है।
भारत में लगभग 600,000 गाँव हैं। देश में डिब्बाबंद और प्रोसेस्ड फूड इंडस्ट्री के विकास के साथ, खाने के लिए तैयार खाद्य पदार्थ जैसे इंस्टेंट नूडल्स, बिस्कुट और चिप्स, और शैंपू, बालों के तेल और क्रीम के पाउच ने ग्रामीण भारत में पैठ बना ली है।
ग्रामीण बाजार, जो देश में कुल एफएमसीजी (फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स) की बिक्री में लगभग 35 प्रतिशत का योगदान करते हैं, ने पैकेज्ड खाद्य पदार्थों की खपत में वृद्धि देखी है, जो आमतौर पर प्लास्टिक में पैक किए जाते हैं। और यह चिंताजनक है कि इनमें से लगभग 70 प्रतिशत पैकेजिंग बेकार हो जाती है।
अब तो गाँव की शादियों में भी शायद ही कभी बायोडिग्रेडेबल लीफ-प्लेट का इस्तेमाल होता है। डिस्पोजेबल स्टायरोफोम प्लेट और प्लास्टिक कप का इस्तेमाल होता है, एक समय था जब पत्तल दोना के इस्तेमाल होता था।
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सिर्फ 29 फीसदी के पास सामुदायिक कचरा संग्रह वाहन था, जबकि आधे से भी कम गाँवों में सफाई कर्मचारी या सफाई कर्मचारी की पहुंच थी।
लेकिन सवाल है कि प्लास्टिक वेस्ट को कैसे रिसाइकल किया जा सकता है? एक रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण सड़कों के निर्माण में इस्तेमाल होने वाले टार में 20 फीसदी तक कचरे को एक घटक के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।
तमिलनाडु राज्य ने ऐसा किया भी है। जिला ग्रामीण विकास एजेंसी (DRDA), तमिलनाडु द्वारा प्लास्टिक कचरे का उपयोग करके 1,031 किलोमीटर से अधिक ग्रामीण सड़कों का निर्माण किया गया है। ये सड़कें राज्य के सभी 29 जिलों (लगभग 40 किलोमीटर प्रत्येक) में बिछाई गई हैं।
आईआईटी बॉम्बे के EMERGY प्रोग्राम के जरिए BIO STABILIZED AERATED STATIC PILE (BASP) एक ऐसा अभिनव और सिद्ध समाधान है। EMERGY ने जैविक कचरे के प्रबंधन के लिए एक उपयोगकर्ता-अनुकूल कंपोस्टिंग तकनीक विकसित की है।
मध्य प्रदेश के भोपाल में एक महिला-नेतृत्व वाली गैर-लाभकारी संस्था, महाशक्ति सेवा केंद्र में तो महिलाएं प्लास्टिक कचरे से लैपटॉप बैग, टोकरी, पर्दे और कालीन बना रही हैं। ये महिलाएं पर्यावरण संरक्षण तो कर ही रहीं हैं, साथ ही उनकी आमदनी का एक जरिया भी मिला है।
ऐसी ही कहानी ओडिशा के केंद्रपाड़ा जिले की कमला मोहराना की भी है, जो एक छोटे से गाँव में उस महिला स्वयं सहायता समूह का हिस्सा हैं, जो दूध के पाउच, सिगरेट के पैकेट, गुटखा के रैपर को बड़ी कुशलता के साथ सुंदर शिल्प में बदलने का काम कर रहा है। इससे न सिर्फ महिलाओं को रोजगार मिल रहा है, बल्कि उनके गाँव और आसपास के इलाके में साफ-सफाई भी हो रही है।
गोवा के क्लिंटन वाज़ और उनकी टीम गाँव-गाँव जाकर एक-एक घर से कचरा इकट्ठा करती है, ये सिर्फ कचरा नहीं उठाते, बल्कि उससे कमाई भी कर रहे हैं , सारे कचरे को इकट्ठा करके वो उसे recycle करते हैं, जो सीमेंट फैक्ट्री में ईंधन के तौर पर इस्तेमाल होता है।
ऐसी न जाने कितनी कहानियाँ आपको गाँव में हर एक घर में ऐसी ही न जाने कितनी कहानियाँ मिल जाएंगी, वो भले ही रीसाइक्लिंग शब्द से न परिचित हों, लेकिन करना बखूबी जानते हैं।
आज जब जब पूरी दुनिया अपसाईक्लिंग और Sustainability की बात कर रही है, भारत के गाँव में बरसों से यही होता आ रहा है।