ओडिशा के केंद्रपाड़ा जिले के गुलनगर गाँव की कमला मोहराना एक स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) मां थानापति की प्रमुख हैं। इसे स्थानीय प्रशासन की मदद से 2016 में शुरू किया गया था। उस समय सिर्फ कुछ ही महिलाएं इस ग्रुप के साथ जुड़ी थीं। लेकिन आज गाँव की 40 महिलाओं के लिए यह SHG उनकी रोजी-रोटी का जरिया बना हुआ है।
संगठन से जुड़ी महिलाओं की उम्र 28 से लेकर 63 साल के बीच है। ये सभी महिलाएं दूध की थैली, गुटखा के कवर, सिगरेट के पैकेट, जैसे बेकार पड़ी चीजों से टोकरियां, मोबाइल फोन स्टैंड और अन्य कई तरह का सामान बना रही हैं। इन्हें बेचकर उन्हें अच्छी खासी आमदनी हो जाती है।
अपनी उंगलियोँ को तेजी से चलाते हुए बेकार पड़ी प्लास्टिक से टोकरी बनाने में व्यस्त, 64 साल की कमला मोहराना ने गाँव कनेक्शन को बताया, “यह सब एक खाली समय में कुछ करने के साथ शुरू हुआ था। एक दिन मेरे पास जब करने के लिए कुछ काम नहीं था तो मैंने अपने आस-पास बेकार पड़ी दूध की प्लास्टिक की थैली, गुटखा कवर, सिगरेट के पैकेट और अन्य चीजों को उठाया, उन्हें स्ट्रिप्स में काटा और उससे एक सुंदर सी टोकरी बना डाली”
उन्होंने बताया, गाँव के कुछ जानने वाले लोगों ने टोकरी को देखा तो खूब तारीफ की। इससे उनके दिमाग में एक विचार आया कि क्यों न इसे अपनी अतिरिक्त आमदनी का जरिया बना लिया जाए। कभी वह अकेली थीं. लेकिन आज 12 हजार आबादी वाले गुलनगर गांव की महिलाओं का एक बड़ा ग्रुप कमला के साथ है। ये सभी बेकार सामग्री से टोकरियां, पेन स्टैंड, मोबाइल फोन स्टैंड, गमले, हाथ के पंखे, वॉल हैंगिंग आदि बना रही हैं।
इस काम के लिए महिलाएं पहले प्लास्टिक के कचरे जैसे दूध की थैली, बिस्किट के रैपर आदि को इकट्ठा करती हैं और फिर उन्हें अच्छी तरह से साफ करके सुखाने के बाद एक आकार की पट्टियों में काटा लिया जाता है। फिर इनसे कोई भी सामान बनाने के लिए इन पट्टियों को उसी के अनुरूप सिल लिया जाता है।
यहां रहने वाली 32 वर्षीय सुमित्रा मोहराना ने गाँव कनेक्शन को बताया, “कमला दीदी की वजह से अब मैं महीने में 6,000 रुपये तक कमा लेती हूं।”
कमला के पति की दस साल पहले मौत हो गई थी। उनकी पांच बेटियां और एक बेटा है। दो बेटियों की शादी हो चुकी है। उनका 43 साल का बेटा उनके साथ रहता है और अपने पिता शत्रुघ्न मोहराना की तरह एक बढ़ई है।
जब कमला ने कचरे को शिल्प में बदलना शुरू किया, तो गाँव के लोगों को लगा कि वह कचरा बीनने वाली हैं। उन्होंने हंसते हुए कहा, “लेकिन अब वे मुझसे उन्हीं चीज़ों को खरीदते हैं, जिन्हें मैं कचरे से बनाती हूं। कई महिलाएं और छोटी लड़कियां भी कचरे से पैसा कमाने के इस काम में मेरे साथ शामिल हुई हैं।”
अगर कोई महिला इस काम में माहिर है तो वह एक दिन में तीन या चार टोकरियां बना सकती है। सुमित्रा ने कहा, “मुझे चार टोकरियां बनाने में चार से पांच घंटे लगते हैं।” टोकरी के आकार के मुताबिक उसकी कीमत तय होती है। एक टोकरी की कीमत 75 रुपये से लेकर 150 रुपये तक होती है। एक हाथ-पंखे की कीमत 100 रुपये है, जबकि एक पेन-स्टैंड को तकरीबन 50 रुपये में बेचा जाता है।
उनका काम एक मिसाल बना
एसएचजी के बारे में बात करते हुए केंद्रपाड़ा के उपजिलाधिकारी निरंजन बेहरा ने कहा कि महिलाओं की बदौलत इस क्षेत्र में रिसाइकल क्राफ्ट का विकास हुआ है।
बेहरा ने गाँव कनेक्शन को बताया, ” हम लोग जितना कचरा पैदा कर रहे हैं उसका सिर्फ एक अंश ही प्रभावी ढंग से रीसाइकल किया जाता है। लेकिन कमला के नेतृत्व में इस गांव की महिलाएं कचरे से कमाल की चीजें बना रही हैं।” उन्होंने आगे कहा, “ये महिलाएं न सिर्फ कमाई कर रही हैं बल्कि पर्यावरण को भी बचा रही हैं।”
बेहरा ने बताया कि जिला प्रशासन राज्य भर में लगाए जाने वाले शिल्प मेलों में कमला और अन्य लोगों द्वारा बनाई चीजों को बेचने में मदद कर रहा है। उन्होंने उम्मीद जताई की कि अन्य गाँव के लोग भी उनके अच्छे कामों से कुछ सीखेंगे और कमला एवं उनके स्वयं सहायता समूह के नक्शेकदम पर चलने का प्रयास करेंगे।