गांवों में महामारी और लॉकडाउन बने चुनौती, नमक-चावल खाने को मजबूर हुए लोग

कोरोना की दूसरी लहर में वायरस ने ग्रामीण भारत में भी अपनी मौजूदगी दर्ज कराई है। इस बीच दोबारा लगे लॉकडाउन ने फिर ग्रामीण भारत के लोगों के काम-धंधे को नुकसान पहुंचाया है। यही वजह है कि गाँवों में लोग कम खा रहे हैं, बहुत से लोग दाल और सब्जियां नहीं खरीद पा रहे हैं। कई परिवार नमक-चावल या चटनी रोटी खा रहे हैं, लेकिन कब तक? पढ़िए गांव कनेक्शन की ये रिपोर्ट।

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खाने के वक्त हमारी थाली में आमतौर पर रोटी-सब्जी या दाल-चावल या फिर ये सभी होते हैं। इसके अलावा दही, अचार और पापड़ भी स्वाद को बढ़ाने के लिए होते हैं। वहीं मध्य प्रदेश के सतना जिले के एक गांव कैथा के रवि यादव के पास बड़ी थाली तो है, लेकिन खाने के लिए उसके पास सिर्फ उबले चावल और सब्जी के नाम पर नमक .. जी हां सिर्फ नमक है।

उधर, सतना से लगभग 300 किलोमीटर की दूरी मौजूद उत्तर प्रदेश के जिले उन्नाव के जगारखेड़ा गाँव में सोनी देवी के हालात भी रवि से कुछ खास बेहतर नहीं हैं। अपने घर पर सोनी को पांच लोगों के लिए खाना बनाना है। 27 वर्षीय सोनी अपने पास थाली में रखे मुट्ठी भर आलू और एक टमाटर छीलते हुए कोल्ड ड्रिंक की बोतल की ओर इशारा किया जिसमें थोड़ा सा सरसों का तेल है और कहा, "आज मेरे पास घर के पांच लोगों को खाना खिलाने के लिए यही है।"

12 साल के रवि यादव उबले चावल और नमक खाते हुए।

बढ़ते कोरोना वायरस को काबू में करने के लिए मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश दोनों में लॉकडाउन लगा हुआ है। इसके अलावा देश में कई अन्य राज्य भी संघर्ष कर रहे हैं। महामारी के एक साल और लॉकडाउन की वापसी ने ग्रामीण भारत में लोगों के काम-धंधे में छिन गए हैं। इस वजह से ग्रामीण कर्ज में डूबे जा रहे हैं। ऐसे में उनकी थाली, सब्जियों और दाल की पहुंच से दूर हो गई है। कई लोग चावल और नमक तो कई सूखी रोटी-चटनी के सहारे अपनी भूख मिटा रहे है।

सोनी देवी के पति साजन कुमार एक दिहाड़ी मजदूर हैं। इन्हें कई दिनों से कोई काम नहीं मिला है और इसलिए घर पर पैसे नहीं हैं। "मुझे याद नहीं कि मैंने फल कब खाया था। वो तो बड़े लोगों (अमीर लोगों) के लिए हैं," सोनी ने उदास होकर कहा।

बाराबंकी (यूपी) के बेलहारा गांव के मोहम्मद गुफरान को भी यह याद नहीं है कि उनके परिवार ने आखिरी बार दाल कब खाई थी। ठेला लगाने वाले गुफरान ने गाँव कनेक्शन को बताया, "पहले लॉकडाउन में हमारा जीवन पूरी तरह से पटरी से उतर गया था और जब मुझे लगा कि चीजें बेहतर हो रही हैं, तो दूसरा लॉक डाउन हो गया है।" 8 लोगों की जिम्मेदारी उठाने वाले गुफरान ने आगे कहा, "कोई काम नहीं होने के कारण वह लगभग 200 रुपये प्रति किलो में बिक रहे तेल और दाल नहीं खरीद सकते।"

ग्रामीण क्षेत्रों में खाद्य असुरक्षा के मामले में बच्चे आबादी का सबसे कमजोर वर्ग हैं।

दलित कार्यकर्ता और सहारनपुर स्थित एक सामाजिक संगठन ग्राम विकास सेवा समिति की निदेशक निर्मला रानी ने गांव कनेक्शन को बताया, "मैं ऐसे कई ग्रामीण परिवारों को जानती हूं जो बिना नौकरी और पैसे के जीवित रहने के लिए सिर्फ नमक के साथ रोटियां खाते हैं।" उन्होंने आगे कहा, "वे दिन में सिर्फ एक बार खाते हैं। मैंने पहले कभी इस तरह की गरीबी और भूख नहीं देखी।"

न काम करने को मजदूरी, न खाने को कुछ

ज्यादातर रोज कमाने वालों का पैसा खत्म हो गया है। वे कभी-कभी गांव की दुकानों से तेल, चावल, दाल आदि उधार लेते हैं। शहरों से एक बार फिर अपने गांव लौटे प्रवासी मजदूरों के पास न तो कोई काम है और न ही अपने परिवार का पेट पालने के लिए मजदूरी।

मुंबई में एक मजदूर के रूप में काम करने वाले और हाल ही में मिर्जापुर जिले की मडीहान तहसील में अपने गांव रामपुर रेक्षा लौटे शिव कुमार ने कहा, "पिछले साल महामारी फैलने से पहले, हमारी थाली में कई चीजें हुआ करती थीं।"

शिव कुमार आज खाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उनके पास कोई काम नहीं है और अगर उसके पास किसी भी तरह का काम होता तो वह प्रतिदिन 150 रुपये तक कमाते। 34 साल के शिव कुमार ने कहा, "मेरे परिवार में एक भाई, मां, बहन, पत्नी और छह बच्चे हैं। इन हालात में मैं उनका पेट कैसे भरुं।"

ज्यादातर दिहाड़ी मजदूरों के सामने पैसों की दिक्कत है, मजबूरी में इन्हें कई बार तेल, दाल जैसे सामान उधार लेना पड़ता है।

"कीमतें बढ़ती जा रही हैं और काम कुछ है नहीं। ऐसे में हमें अब सब एक साथ नहीं मिलेगा। अगर हमारे पास सब्जी है तो दाल नहीं खरीद सकते। दाल खाएंगे तो सब्जियां नहीं खा सकते। हम दोनों का खर्च नहीं उठा सकते हैं," शिव ने आगे कहा।

अपने परिवार के खाने की चिंता कर रहे शिव कुमार से 14 किमी दूर 28 वर्षीय बबलू सोच रहे हैं कि क्या उन्होंने घर वापस आकर सही काम किया है। वे मुंबई के पास ईंट भट्ठों में काम करते था और रोज का 350 रुपये कमाते थे, लेकिन पिछले साल लॉकडाउन होने पर घर लौट आए थे।

मरिहान तहसील स्थित देवरी हिरदवा गांव के दिहाड़ी मजदूर बबलू ने बताया,"मैं गांव में कितनी भी कड़ी मेहनत करूं, एक दिन में 200 रुपये से ज्यादा नहीं कमा सकता और वह भी तब, जब मुझे काम मिलता है।" बबलू ने आगे कहा, "हम सरकारी राशन के तहत महीने के मिलने वाले तीन किलो गेहूं और दो किलो चावल पर गुजारा कर रहे हैं।"

एक किलो दाल खरीदने के लिए बबलू को एक दिन की मजदूरी खर्च करनी पड़ती है, जो इस महामारी में मिलना मुश्किल है।

मध्य प्रदेश के सतना जिले में 75 वर्षीय बिटानिया देवी।

यूपी के सीतापुर जिले के उरदौली गांव के रहने वाले छोटू ने पत्थरों को काटकर सिल-बट्टा और चक्की बनाकर गुजर बसर करते हैं। "पहले मैं काम के लिए गाँव-गाँव जाता था और कभी-कभी लोग काम के बदले में गेहूं, दाल, आटा आदि दे देते थे, लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं है। "

इस महामारी के एक साल के दौरान परिवार का भरण-पोषण काफी मुश्किल हो रहा है। "मेरी 7 और 5 साल की दो बेटियाँ हैं। कई बार ऐसा होता है जब उन्हें चटनी और रोटी खिलाना पड़ता है।" छोटू ये कहते हुए भावुक हो गए।

10-10 रुपये का सरसो के तेल खरीदने को मजबूर लोग

उन्नाव के जगत खेड़ा गांव में 38 वर्षीय राजकुमार ने अपने घर के आगे वाले कमरे में जनरल स्टोर खोला हुआ है। वह कहते हैं, "जो लोग कभी एक किलो तेल और चीनी खरीदते थे, अब केवल दस रुपये का तेल और चीनी ले जाते हैं। इससे मेरी कमाई पर भी असर पड़ता है।"

सरसों का तेल 160 रुपये किलो, जबकि आलू 20 रुपये किलो बिकता है। यहां तक कि साधारण तुरई (लौकी) भी लगभग 30 रुपये में बिकती है। राजकुमार ने कहा कि 120 रुपये किलो रेट की दाल लोग अब शायद ही खरीदते हैं।

उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में एक किराना की दुकान।

मिर्जापुर (यूपी) की मरिहान तहसील के एक दुकानदार विजय कुमार ने कहा, "सामान खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं, इसलिए आदिवासी समुदायों के बहुत से लोग एक या दो किलो चावल, गेहूं या सरसों लाते हैं और ज़रूरत के हिसाब दूसरे सामान से बदलकर ले जाते हैं। इनमें से ज्यादातर के पास खर्च करने के लिए 50 से 60 रुपये से अधिक नहीं होते है।" उन्होंने आगे कहा, "आमतौर पर वे दस या बीस रुपये का सरसों का तेल, कुछ हरी मिर्च, थोड़ा नमक और एक रुपये के सब्जी मसाले के पैकेट लेने आते हैं।"

लोगों को डर है कि भूख से मर न जाएं

जिन महिलाओं को खाना बनाना और अपने परिवार का भरण पोषण करना होता है, वे जबरदस्त शारीरिक और मानसिक तनाव में रहती हैं। बिना दांतों वाली, धंसी हुई आंख और गालों को देखकर ऐसा नहीं लगता है कि मध्य प्रदेश के सतना के कैथा गाँव की 75 वर्षीय बितानिया यादव ने कई दिनों से कुछ पौष्टिक खाया हो। अपने घर में बैठी हुईं बितानिया ने गांव कनेक्शन से पूछा, "मेरा बेटा एक मजदूर है, लेकिन लॉकडाउन के बाद से उसके पास कोई काम नहीं है। ऐसे में मैं उसके लिए क्या बनाऊं।"

बाराबंकी (यूपी) के बेलहारा गांव की लक्ष्मी देवी (35), जो चार बेटियों और एक बेटे की मां भी हैं, ने गांव कनेक्शन को बताया, "हम जिंदा रहने के लिए भीख मांगने की कगार पर हैं। मेरे पति गोलगप्पे (पानी पुरी) बेचते थे और हर दिन लगभग पांच सौ रुपये कमाते थे, लेकिन लॉकडाउन लगने से काम बंद है और हमारे पास जो भी पैसा था वह खत्म हो गया है।"

यूपी के बाराबंकी जिले में बेलहरा की लक्ष्मी देवी कहती हैं, जिंदा रहने के लिए हम भीख मांगने को मजबूर हैं।

"हमारे पास बिल्कुल पैसा नहीं है। मैं अपने बच्चों को क्या खिलाएं? हम दूसरों की दया पर जीवित हैं, जो हमें खाने के लिए कुछ देते हैं, "लक्ष्मी ने कहा। वह और उनके पति मध्य प्रदेश के भिंड के लहर से ताल्लुक रखते हैं और तालाबंदी के कारण यूपी के बाराबंकी में फंस गए हैं। उन्होंने गांव कनेक्शन से कहा, "हमारे पास राशन कार्ड भी नहीं है और अगर ऐसे ही चलता रहा तो हम भूख से मर सकते हैं।"

इस बीच बाराबंकी से 90 किलोमीटर दूर उन्नाव जिले के रामबक्शा खेरा गांव में सिद्धि नाथ अपनी खाट पर लेटे थे। 58 वर्षीय दिहाड़ी मजदूर ने गांव कनेक्शन को बताया, "सब कुछ खत्म हो रहा है। बड़ी मुश्किल से वह पहले लॉकडाउन से उबर पाए थे। अब दूसरा लॉकडाउन भारी पड़ा है। ऐसा लगता है कि हम इस बार भूख से मरेंगे।"

सिद्धिनाथ की बेटी की शादी पिछले साल दिसंबर में हुई थी और वे अभी तक शादी के लिए साहूकार से लिए गए 40,000 रुपये चुका नहीं सके हैं और अब उनके पास आय का कोई स्रोत नहीं है। उन्होंने कहा कि उनके तीन बेटे हैं, लेकिन लॉकडाउन में परिवार को राशन के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।

कितनों के काम आ रहीं सरकार की योजनाएं

पिछले महीने भारत सरकार ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत गरीबों को मुफ्त अनाज (चावल या गेहूं) देने की घोषणा की। मई और जून के दो महीनों के लिए लगभग 80 करोड़ लाभार्थियों को एक महीने में पांच किलो अनाज मिलेगा। यह आवंटन राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 के तहत प्रत्येक लाभार्थी के लिए प्रति माह पांच किलोग्राम खाद्यान्न के अतिरिक्त है।

इस बीच, उत्तर प्रदेश सरकार ने मई और जून के लिए 14.5 मिलियन गरीब लाभार्थियों को अतिरिक्त मुफ्त खाद्यान्न की घोषणा की है। लेकिन, क्या ये बार-वार अपना काम धंधा खोने वाले ग्रामीणों के लिए पर्याप्त है?

यूपी के बाराबंकी में सरकारी राशन की दुकान।

बाराबंकी के सौरंगा में अपनी झोपड़ी के दरवाजे पर बैठी रेखा देवी ने कहा, "राशन मदद करता है, लेकिन तेल, ईंधन, सब्जियां, दवाएं आदि के लिए पैसा कहां है।" उसकी शिकायत है कि उसे 10 लोगों के परिवार के लिए खाना बनाने में जद्दोजहद करनी पड़ती है। उसने कहा, कि वह किसी तरह राशन की दुकान से गेहूं या चावल का इंतजाम करती हैं।

रेखा देवी के पति जो रोजी-रोटी के लिए चना/मूंगफली बेचते थे और रोजाना कम से कम 400 रुपये कमाते थे। जब उन्हें लगा कि पहले लॉकडाउन के बाद चीजें वापस सामान्य हो रही हैं, तो दूसरे लॉकडाउन की घोषणा कर दी गई और तब से उन्होंने एक पैसा भी नहीं कमाया।

पीडीएस (सार्वजनिक वितरण प्रणाली) के माध्यम से आपूर्ति किए जाने वाले गेहूं या चावल ग्रामीण आबादी के एक बड़े हिस्से को खाली पेट सोने से रोक रहे हैं।

उन्नाव के जिला आपूर्ति अधिकारी रामेश्वर प्रसाद ने गांव कनेक्शन को बताया कि राशन कार्ड धारकों को हर महीने राशन की आपूर्ति की जाती है। उन्होंने कहा, "हम उन लोगों को प्राथमिकता पर राशन कार्ड दे रहे हैं, जिनके पास राशन कार्ड नहीं है। उन्नाव में 1,261 राशन की दुकानें हैं, जिनमें से 1,087 ग्रामीण इलाकों में हैं।"

भोजन का अधिकार कार्यकर्ता मांग कर रहे हैं कि राशन कार्ड या आधार सत्यापन के बिना सभी जरूरतमंदों को राशन उपलब्ध कराया जाना चाहिए।

हालांकि, राइट टु फूड के लिए काम करने वाले कार्यकर्ता मांग कर रहे हैं कि राशन कार्ड या आधार सत्यापन की आवश्यकता के बिना सभी जरूरतमंदों को राशन उपलब्ध कराया जाना चाहिए। कई ग्रामीण परिवारों के पास राशन कार्ड नहीं है और उन्हें बिना भोजन के रहना पड़ रहा है।

पिछली गर्मियों में गांव कनेक्शन की ओर से 20 राज्यों और तीन केंद्र शासित प्रदेशों के 179 जिलों में 25,300 ग्रामीण के बीच एक राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण किया गया। इसमें पाया गया कि बिना राशन कार्ड के तीन-चौथाई गरीब परिवारों को लॉकडाउन में सरकारी राशन नहीं मिला था। इसके अलावा, बिना राशन कार्ड वाले 10 में से सात आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों को कथित तौर पर लॉकडाउन के दौरान भोजन हासिल करने में कठिनाई का सामना करना पड़ा। (पूरा सर्वे यहां पढ़ें)

कोविड-19 की दूसरी लहर में कोरोना वायरस ग्रामीण भारत में भी मफैल गया है, लेकिन वायरस से ज्यादा गांवों के लोग खाने को लेकर चिंतित हैं। सीतापुर (यूपी) के महोली ब्लॉक के भटपुरवा गांव के एक कुम्हार धर्मेंद्र ने कहा, "यह महामारी का दूसरा साल है और मेरे पास आय का कोई तय साधन नहीं है। अगर हम इस महामारी से बचे रहते हैं, तो यह बहुत बड़ी बात है।"

इनपुट - बाराबंकी से वीरेंद्र सिंह, सीतापुर से मोहित शुक्ला, उन्नाव से सुमित यादव, मिर्जापुर से बृजेंद्र दुबे और मध्य प्रदेश के सतना से सचिन तुलसा त्रिपाठी।

(खबर को अंग्रेजी में पढ़ें)

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