लोक-आस्था की वैश्विक देवी बन गई हैं छठी मइया

Manoj Bhawuk | Oct 27, 2025, 10:45 IST
छठ पूजा की सबसे बड़ी सुंदरता इसकी लोकभाषा और लोक-संगीत में है। छठी मइया को गीतों में संवाद पसंद है, संस्कृत के गूढ़ मंत्रों में नहीं। यही कारण है कि घर से घाट तक की यात्रा गीतों से भरी होती है
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छठ पर्व नहीं, महापर्व है। लोक-आस्था का उत्सव है। ऐसा उत्सव, जो मिट्टी की गंध और मन की पवित्रता दोनों से जुड़ा है। छठी मइया लोक-विश्वास की वह देवी हैं, जिनकी आराधना अब सीमाओं के पार पहुँच चुकी है। आरा की गंगा और सोन नदी से लेकर अमेरिका की सिलिकॉन वैली तक, हर घाट पर अब छठी मइया की महिमा गूँजती है। बरवा तर के पोखरवा से लेकर कैलिफ़ोर्निया की क्वेरी झील तक वही सूप, वही डलिया-दउरी, वही ठेकुआ और वही दिया-दियरी नज़र आते हैं, जैसे बिहार ने खुद को सात समुंदर पार बसा लिया हो। पर बदलती भौगोलिक सीमाओं के बावजूद, छठी मइया का स्वरूप नहीं बदला। वे अब भी अपने लोक रूप में हैं — मिट्टी से सनी, आस्था से भरी और सादगी में दैवीयता लिए हुए। वे हमें सिखाती हैं कि सूरज सबका एक है, अर्घ्य कहीं भी दिया जाए, पहुँच एक ही ईश्वर तक होती है। धरती बँटी है, इंसान बँट गए हैं, पर ब्रह्मांड तो एक ही है। छठी मइया यही संदेश देती हैं — भेदभाव छोड़ो, एक ही घाट पर साथ बैठो, क्योंकि ईश्वर के सामने सब बराबर हैं।

छठ पूजा की सबसे बड़ी सुंदरता इसकी लोकभाषा और लोक-संगीत में है। छठी मइया को गीतों में संवाद पसंद है, संस्कृत के गूढ़ मंत्रों में नहीं। यही कारण है कि घर से घाट तक की यात्रा गीतों से भरी होती है — कोसी भरते समय, संध्या अर्घ्य में या उगते सूर्य को नमन करते हुए, हर क्षण में लोक-राग बहता है। ऐसा शायद किसी और पर्व में नहीं होता। छठ की पूजा का माध्यम पद्य है, गद्य नहीं… और भाषा है भोजपुरी, मैथिली, मगही, अंगिका, बज्जिका। इससे यह बात पक्की हो जाती है कि छठी मइया लोक की देवी हैं। वे गीतों में बोलती हैं, लोकभाषा में मुस्कुराती हैं और लोक के दुःख-दर्द को समझती हैं।

यह पूजा इसलिए भी खास है क्योंकि इसमें किसी पंडित की आवश्यकता नहीं होती। कोई भी, यहाँ तक कि एक बच्चा भी अर्घ्य दे सकता है। महिलाएँ अपने गीतों में ही प्रार्थनाएँ गा लेती हैं। यहाँ पूजा का खर्च नहीं, भावना का मोल है। फल, घी, गन्ना, सिंघाड़ा, नींबू, कच्ची हल्दी, अमरूद, आँवला जैसे प्राकृतिक पदार्थों से ही यह पूजा पूरी होती है — बिना दिखावे, बिना कृत्रिमता के। छठी मइया की पूजा घर या मंदिर में नहीं, बल्कि खुले आकाश के नीचे, जल के किनारे होती है — नदी, तालाब, झील, बीच, यहाँ तक कि विदेशों में स्विमिंग पूल या बाथटब तक में भी अर्घ्य चढ़ाया जाता है। यह दृश्य बताता है कि आस्था का विस्तार किसी स्थान या सीमारेखा से नहीं रुकता। डूबते और उगते सूर्य दोनों की पूजा इसीलिए होती है, क्योंकि अस्त में भी आरंभ का वादा छिपा होता है। यही छठ का दर्शन है, यही छठी मइया का संदेश।

छठ गाँव कनेक्शन वाला पर्व है। बिहार और पूर्वांचल के लोग इस अवसर पर किसी भी सूरत में गाँव पहुँचना चाहते हैं। सवाल यह है कि गाँव से बाहर दूसरे प्रदेशों में, अन्य देशों में जाने की विवशता ही क्यों है? और यह विवशता आज से नहीं है। आपने भिखारी ठाकुर का नाटक बिदेसिया देखा होगा। उसका नायक धन कमाने ‘बहरा’ जाता है — धन कमाने माने रोज़ी-रोज़गार के लिए, और ‘बहरा’ माने कलकत्ता। उसके पहले भी इसी धन के चक्कर में या मजबूरी में लोग गिरमिटिया बनकर मॉरिशस, फ़िजी, गुयाना, सूरीनाम, त्रिनिदाद-टोबैगो आदि देशों में गए। सोना के लालच में गए और फँस गए। आज लोग सऊदी और दुबई जा रहे हैं, अफ्रीका, अमेरिका और यूरोप जा रहे हैं। देश में दिल्ली, मुंबई, गुजरात और पंजाब जा रहे हैं। कई जगह तो गालियाँ भी सुन रहे हैं। जाने का सिलसिला थम ही नहीं रहा है। कहीं जाना बुरा नहीं है, पर जाने की मजबूरी होना तो दर्दनाक है न? गाँव यानी अपनी ज़मीं को छोड़ना मुश्किल नहीं है, पर उसके मोह को छोड़ना बड़ा कठिन है। इसलिए फगुआ और छठ में गाँव खींचता है — और ऐसे खींचता है कि लोग ट्रेन पर लटककर जाते हैं, टॉयलेट के दरवाजे पर सोकर जाते हैं, बस में सामान की तरह लदकर बस बदल-बदलकर जाते हैं। इसमें कई लोग मर भी जाते हैं, कई लोग बीमार पड़ जाते हैं, कई लोग नहीं जा पाते हैं… जो लोग नहीं जा पाते हैं, वे भी शहर में रहकर शहर में नहीं रह पाते हैं। उनके कानों में शारदा सिन्हा जी का छठ गीत गूँजता रहता है — और मन में गाँव और गाँव का छठ घाट।

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इस दिन से शुरू हो रहा है छठ महापर्व आप भी शामिल हो जाइए इस उत्सव में
ईश्वर पलायन के लिए किसी को भी ऐसे मजबूर न करे। इस समस्या की वजह से भिखारी ठाकुर आज भी प्रासंगिक हैं, लेकिन उनका प्रासंगिक होना सुखद नहीं है। नाटक सिर्फ मनोरंजन के लिए नहीं होता, समस्या के समाधान के लिए होता है। पलायन की समस्या आज भी जस की तस है। शिक्षा, चिकित्सा और नौकरी के लिए हमें आज भी अपना घर, अपना गाँव, अपना प्रदेश छोड़ना ही पड़ रहा है। हम नाच-नाचकर गा रहे हैं — “रेलिया बैरन पिया को लिए जाय रे।” यह नाचने वाला गीत थोड़ी है! यह तो दर्द, पीड़ा, प्रवास और पलायन का गीत है। अच्छा गीत नहीं है — ले जाए रेलिया पिया को, मगर बैरन बनकर नहीं, सौतन बनकर नहीं; हँसी-ख़ुशी से ले जाए, राज़ी-ख़ुशी से ले जाए। यहाँ तो पिया मजबूरी में जा रहे हैं। यह मजबूरी कब तक रहेगी भाई? कब जगेगी यहाँ की सरकार?

छठ पर मेरे अनेक गीत आए हैं। उनमें पलायन के दर्द को उकेरता हुआ गीत भी है। छठी मइया से मैंने कहा है — “हे छठी मइया, आपकी कृपा से बाल-बच्चे तो हो गए, लेकिन क्या ये दर-दर भटकने, छिछियाने और धक्का खाने के लिए पैदा हुए हैं?” मैंने मइया से अरदास किया है कि गाँव में ही रोज़गार मिले और हम अपने बूढ़े माँ-बाप और परिवार के साथ रहें, चाचा और बड़का बाबूजी के साथ रहें। देखिए न, इस पलायन की वजह से हम कितना बिखर गए हैं और कितना अकेले हो गए हैं। अकेले होकर डिप्रेशन के शिकार भी हो रहे हैं और बीमार होकर मर भी रहे हैं। हम जड़विहीन होते जा रहे हैं — न गाँव के, न शहर के। धोबी के कुत्ते सी हालत है — न घर के, न घाट के।

हमने मॉरिशस को स्वर्ग बना दिया, दिल्ली और बॉम्बे को चमका दिया — और बिहार में रोज़गार की भीख माँग रहे हैं। हाल ही में रिलीज़ अपने छठ गीत " data-type="link">पलायन के दर्द : सुनs ए छठी मइया’, जिसे इस समय की लोकप्रिय पार्श्वगायिका प्रियंका सिंह ने गाया है और विनीत शाह ने कंपोज़ किया है, में मैंने लिखा है –

कब ले पलायन के दुख लोग झेले?
कब ले सुतल रहिहें एमपी-एमेले?
गाँवहूँ खुले करखनवा हो, सुनs ए छठी मइया
असहूँ ना अइले सजनवा हो, सुनs ए छठी मइया

गाँवे में कब मिली रोज़ी-रोज़गार हो?
का जाने, कब जागी यूपी-बिहार हो!
छछनेला रोजे परनवा हो, सुनs ए छठी मइया
असहूँ ना अइले सजनवा हो, सुनs ए छठी मइया

बिहार में चुनाव है, और इस चुनावी माहौल में यह छठ का सबसे ज़रूरी गीत है। सरकार और जनप्रतिनिधियों से बस इतना ही आग्रह है कि बिहार और पूर्वांचल के किसी भी युवा को शिक्षा, चिकित्सा और नौकरी के लिए ‘बहरा’ नहीं जाना पड़े। और हे छठी मइया — “गोदी में ललनवा त दे देलू… अब ए ललनवा-ललनिया के पलायन के दर्द से मुक्ति द।” जय छठी मइया!

छठ को यूनेस्को में मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत के रूप में शामिल कराने की पहल

भारत सरकार ने छठ महापर्व को यूनेस्को की Intangible Cultural Heritage of Humanity की प्रतिनिधि सूची में शामिल करने के लिए नामांकन की प्रक्रिया शुरू की है। इस प्रक्रिया में समुदायों की सहमति, सुदृढ़ दस्तावेज़ीकरण और अंतरराष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता होती है। संस्कृति मंत्रालय और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (IGNCA) के सहयोग से संगीत नाटक अकादमी आधिकारिक डोज़ियर तैयार कर रही है। संगीत नाटक अकादमी के इस महत्वपूर्ण पहल के लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया गया है, जिसमें मुझे (मनोज भावुक) भी शामिल किया गया है।

भारत ने संयुक्त अरब अमीरात, सूरीनाम और नीदरलैंड जैसे देशों के राजनयिकों से संवाद किया है, जहाँ भारतीय प्रवासी समुदाय इस पर्व को बड़े पैमाने पर मनाता है। इसके अलावा, मॉरिशस और फ़िजी में भारतीय दूतावास भी इस प्रयास को समर्थन दे रहे हैं। यह बहुराष्ट्रीय दृष्टिकोण इस पर्व के वैश्विक स्वरूप को दर्शाते हुए नामांकन को मज़बूत करता है। भारत की पहले से ही 15 सांस्कृतिक धरोहरें यूनेस्को की सूची में शामिल हैं, जिनमें वैदिक चैंटिंग, कुटियट्टम, रामलीला, छाऊ नृत्य, योग, कुंभ मेला और कोलकाता की दुर्गा पूजा शामिल हैं। इसके अलावा मॉरिशस के ‘गीत-गवाई’ को भी यूनेस्को के हेरिटेज में शामिल किया गया है। ‘गीत-गवाई’ भोजपुरी भाषा में किए जाते हैं। जाहिर है, यूनेस्को में भोजपुरी का प्रवेश हो चुका है। छठ के यूनेस्को में शामिल होने से वहाँ भोजपुरी और समृद्ध होगी।

छठ की छटा बताती है कि पूरी दुनिया में एक बिहार है

मैंने घाट-घाट का छठ देखा है, क्योंकि मैंने घाट-घाट का पानी पिया है। 2003 में पहली बार पूर्वी अफ्रीका गया। युगांडा की राजधानी कंपाला में रहता था। इंजीनियर था वहाँ, लेकिन कला, साहित्य और संस्कृति की भूख की वजह से 2005 में भोजपुरी एसोसिएशन ऑफ युगांडा (BAU) की स्थापना की। दीपावली तो धूमधाम से मनाते ही हैं लोग, छठ व्रत अपने-अपने घरों में करते थे या इक्का-दुक्का लोग साथ में करते थे। धीरे-धीरे कई स्थानों पर सामूहिकता में करने लगे। वहाँ आज भी भारतीयों के घरों में अफ्रीकन लड़कियाँ बहुतायत में काम करती हैं। धीरे-धीरे छठ घाट पर वे भी शामिल होने लगीं, छठ गीतों पर वे भी झूमने लगीं।

अब तो युगांडा वाले कई दोस्त तंजानिया, नाइजीरिया और केन्या में भी चले गए हैं। दरभंगा के मनोज चौधरी, जो तब युगांडा में रहते थे, फिर तंजानिया गए और अभी वेस्ट अफ्रीका की एक बेवरेज कंपनी में कंसल्टेंट हैं, बताते हैं कि आजकल तंजानिया के Mwezi Beach पर और नाइजीरिया के लागोस के Banana Island पर लोग छठ मनाते हैं।

2006 में मैं यूनाइटेड किंगडम चला गया और वहाँ पर भी भोजपुरी समाज, लंदन की स्थापना की। तब वहाँ सुदूर गाँव लिटिल हादम में मिनरल वॉटर की एक कंपनी में प्लांट मैनेजर था। गाँव में तो छठ नहीं होता था, लेकिन यूके के दोनों बड़े शहरों — लंदन और बर्मिंघम में छठ होता था, और आज तो और सामूहिक रूप में होने लगा है। बिहारी कनेक्ट लंदन के चेयरपर्सन उदेश्वर सिंह बताते हैं कि लंदन में उनकी पूरी टीम छठ व्रतियों का सहयोग करती है।

गीतांजलि मल्टीलिंगुअल लिटरेरी सर्किल, बर्मिंघम के जनरल सेक्रेटरी, कवि और पेशे से चिकित्सक डॉ॰ कृष्ण कन्हैया अपनी पत्नी डॉ॰ अंजना और दो पुत्रों (अक्षत और उन्नत) के साथ 28 सालों से बर्मिंघम, यूके में रहते हैं। उन्होंने बताया कि यहाँ भारतीय सभी पर्वों को उसी तत्परता से मनाते हैं, जैसे कि हम सब भारत में हैं। डॉ॰ कन्हैया की पत्नी डॉ॰ अंजना सिन्हा भी चिकित्सक हैं, हिंदी-भोजपुरी की प्रख्यात साहित्यकार डॉ॰ शंभुशरण की पुत्री हैं और पिछले 13 सालों से इस कठिन व्रत को लगातार करती आ रही हैं। डॉ॰ अंजना बताती हैं — “नहाय-खाय, खरना और छठ पूजन के लिये सामग्री बनाना हम अपने गैरेज के अंदर करते हैं, पर शाम-सुबह दोनों अर्घ्य हम अपने घर के पिछवाड़े में पैडलिंग पूल में साफ पानी भरकर गंगाजल छिड़ककर करते हैं। यूके में तालाब, झील या नदी में ऐसा करने की अनुमति नहीं है। पूजा की सारी चीज़ें हमें यहाँ सोहो रोड, हैंसवर्थ, बर्मिंघम सिटी में मिल जाती हैं। शुरू-शुरू में सूप-डलिया की व्यवस्था भारत से करते थे, पर अब यहाँ भी उपलब्ध हो जाता है। ठेकुआ बनाने का साँचा भारत से लाए थे। दूध, फल, घी — यहाँ तक कि ईख, गागल नींबू, कच्ची हल्दी, अमरख, आँवला भी यहाँ उपलब्ध है। यह पर्व हम सब मिलजुलकर मनाते हैं और दोस्त, रिश्तेदार और पड़ोसी इस पावन पर्व पर उपस्थित होते हैं, जिनमें कुछ लोग गैर-भारतीय मूल के भी होते हैं। लगभग लोगों की संख्या चारों दिन 30–40 होती है।”

बिहार-झारखंड एसोसिएशन ऑफ आयरलैंड (BJAI) के प्रेसिडेंट डॉ॰ दीपक कुमार ने बताया कि आयरलैंड में इस बार छठ पूजा का आयोजन St. Fechin’s GAA, ड्रॉहेडा (काउंटी लौथ) में किया जा रहा है। डॉ॰ दीपक द्वारा वर्ष 2018 में स्थापित BJAI की शुरुआत एक साधारण व्हाट्सऐप ग्रुप के रूप में हुई थी, जिसका उद्देश्य था आयरलैंड में रह रहे बिहार और झारखंड के लोगों को एक मंच पर लाना, ताकि वे अपने पारंपरिक त्योहारों को अपने ही अंदाज़ में मना सकें। आज यह समूह बढ़कर लगभग 400 परिवारों का परिवार बन चुका है, जो अपनी संस्कृति और विरासत को आने वाली पीढ़ी तक पहुँचाने का कार्य कर रहा है। इस वर्ष भी पूजा के साथ-साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया गया है, जिसमें छठ से जुड़ी लोकगीत प्रस्तुतियाँ, लाइव गायन और BJAI के बच्चों द्वारा नाटक (स्किट) शामिल होंगे। बच्चों का इस उत्सव में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना पूरे समुदाय के लिए गर्व की बात है। इसमें स्थानीय आयरिश प्रशासन और आयरिश समुदाय का भी सहयोग मिलता है।

अमेरिका की बिज़नेस वुमन और सोशल एक्टिविस्ट संध्या सिंह, पटना बोरिंग कैनाल रोड के आनंदपुरी की रहने वाली हैं। पिछले 40 साल से अमेरिका के ह्यूस्टन शहर में हैं। ह्यूस्टन में ‘हाउडी, मोदी’ सम्मेलन के लिए टेक्सास इंडिया फोरम की आयोजन समिति की ओर से भारतवंशियों को आमंत्रित करने और कार्यक्रम को सफल बनाने में योगदान देने के लिए उन्हें सराहा गया। वह वहाँ छठ पूजा में भी व्रतियों का सहयोग करती हैं। उन्होंने बताया कि यहाँ छठ समुद्र और खाड़ी के किनारे, नदियों के पास या किसी-किसी के स्विमिंग पूल में भी जाकर होता है। ह्यूस्टन का क्लियर लेक (गैल्वेस्टन बे) छठ के लिए पॉपुलर स्पॉट है। पहले तो लोग इंडिया से ही सूप-दउरी लेकर आते थे, लेकिन अब अपना बाजार नामक दुकान में मैक्सिको से भारतीय सामान आ जाता है। अब ऊँख, दउरी, सुथनी, सिंघाड़ा और सूप के लिए भटकना नहीं पड़ता।

अमेरिका की भोजपुरी गायिका स्वस्ति पांडे, जो अपने पति तरुण कैलाश के साथ वहाँ छठ भी करती हैं, स्वयं गीत-संगीत की कमान संभालती हैं और साथ सभी व्रती घाट पर खाँटी छठ गीत गाकर पूरे माहौल को छठमय बना देती हैं। कहती हैं — “अमेरिका के सिलिकॉन वैली (कैलिफ़ोर्निया) में हम NRI, फ़्रेमाँट नगर के क्वेरी झील के सुरम्य घाट पर छठ पूजा को उसी श्रद्धा और पवित्रता से मनाते हैं, जैसा कि कई हज़ारों मील दूर मातृभूमि भारत में होता है।” आगे वह बताती हैं कि जब भी कोई जान-पहचान वाला भारत जाता है, तो हम उनसे सूप मँगवा लेते हैं। वज़न में हल्का होने के कारण भारत से आने वाला एक-एक व्यक्ति छठ के नाम पर श्रद्धापूर्वक कई सूप ले आता है और व्रतियों में बाँट देता है। अब तो यहाँ के भारतीय स्टोर्स भी इस डिमांड को ध्यान में रखकर छठ के दिनों में विशेष ऑर्डर पर भारत से सूप मँगवा देते हैं। जहाँ तक दउरे की बात है, तो हम वह ज़रूरत यहाँ के बेंत के बने बास्केट्स से पूरी कर लेते हैं।

भोजपुरी स्पीकिंग यूनियन, मॉरिशस की चेयरपर्सन डॉ॰ सरिता बुद्धू कहती हैं कि छठ तो गिरमिटिया देशों — मॉरिशस, फ़िजी, गुयाना, सूरीनाम — में भी धूमधाम से मनाया जाता है।

यह तो विदेशों की बात हुई। भारत में भी दिल्ली और मुंबई — दो शहरों में बँटा हूँ मैं। छठ के समय दोनों जगह एक बिहार दिखाई देता है, और सरकार खुद पहल करती है घाटों के लिए और तरह-तरह के इंतज़ाम खुद कराती है। यह छठ माई की कृपा कम, बिहार का प्रभाव ज़्यादा है। वोट बैंक का असर ज़्यादा है। बात आस्था और श्रद्धा की भी है — गैर-बिहारी भी इस व्रत को अपनाने लगे हैं संतान प्राप्ति के लिए, पति की सलामती के लिए और तरक्की के लिए।

छठ पर हर साल सैकड़ों गीत बनते हैं, हिंदी-भोजपुरी में अनेक फ़िल्में बनी हैं। रवि किशन और प्रीति झिंगयानी की एक फ़िल्म है — ‘जय छठी माँ’, निर्देशक हैं मुरारी सिन्हा। छठ के इतिहास को समझने के लिए इस फ़िल्म को देखा जा सकता है।

अंत में मैं अमेरिका में रहने वाली अमेरिकी गायिका क्रिस्टीन का ज़िक्र ज़रूर करना चाहूँगा, जो बिल्कुल भोजपुरिया अंदाज़ में छठ गीत गाकर चकित करती हैं। सचमुच, छठ की लोकप्रियता ऐसी है कि विदेशों में भी विदेशी लोग अब इसमें दिलचस्पी ले रहे हैं।

(लेखक मनोज भावुक सुप्रसिद्ध भोजपुरी कवि, संपादक, फिल्म इतिहासकार, फिल्म गीतकार और भोजपुरी भाषा के ग्लोबल प्रोमोटर हैं। छठ को यूनेस्को में शामिल कराने के लिए बनी विशेषज्ञ समिति के सदस्य भी हैं।)

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