ये है दुनिया भर में मशहूर चिकन के रंगीन कपड़ों के पीछे की सच्चाई

Mohammd Arif | Oct 13, 2023, 08:32 IST
चिकन के रंग-बिरंगे और उजले कुर्ते और साड़ियाँ देश ही नहीं दुनिया भर में लोगों को भाती हैं, लेकिन इन ख़ूबसूरत कपड़ों के पीछे की मेहनत देखनी है तो हमारे साथ चलिए लखनऊ के धोबी घाट।
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अदब और इल्‍म के शहर लखनऊ का नाम जहन में आते ही तहज़ीब और चिकनकारी की तस्वीर सबसे पहले आँखों में खिंच जाती। ऐसा हो भी क्यों न ये शहर ही कुछ ऐसा है।

चिकनकारी की कला भी लखनऊ की विरासत का एक हिस्सा है, जिसके बगैर ये शहर अधूरा है।

पुराने लखनऊ के मशहूर इमामबाड़ा और रूमी गेट से करीब 500 मीटर दूर धोबी घाट को आप दूर से देखें तो धूप में सूख रहे रंग-बिरंगे चिकन के कुर्ते मन मोह लेते हैं। लेकिन इन रंगीन कपड़ों के पीछे की सच्चाई कुछ और ही है।

इस घाट पर हर सुबह चार बजे से कपड़े धोने का काम शुरू हो जाता है, कई लोग तो ऐसे हैं जो कई पीढ़ियों से कपड़े धोने का काम कर रहे हैं। कपड़े धुलाई का काम करने वाले ऋषि कन्नौजिया को ठीक से याद भी नहीं है जब उन्होंने ये काम शुरू किया था।

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कहते हैं ये कशीदाकारी मुगल बादशाह जहांगीर की बेगम नूरजहां के दौर में भारत आई और काफी परवान चढ़ गई। फोटो: अभिषेक वर्मा

सफेद चिकन के कुर्ते को धोने में व्यस्त ऋषि गाँव कनेक्शन से बताते हैं, "हमारे बच्चे जहाँ 12-15 साल के हुए पानी में काम शुरू कर देते हैं। तकलीफ तो होती है लेकिन आदत हो गई है, जिंदगी हम लोगों की पानी पानी हो गई है।"

ऋषि और उनके जैसे कई लोग सुबह चार-पाँच बजे तक घाट पर आ जाते हैं और दिन भर पानी में खड़े होकर कपड़े धुलाई का काम करते हैं। बारिश और सर्दी में तो बहुत दिक्कत होती है, बरसात में पानी बढ़ जाता है और सर्दी में बर्फ जैसे पानी में खड़े होना पड़ता है।

ऋषि आगे कहते हैं, "देखने में ये काम आसान लग सकता है, लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं होता है। मार्केट से काम लेकर आते हैं और हर रंग के कपड़े को अलग-अलग करते हैं, फिर इसमें मसाला लगाते हैं और फिर अच्छी तरह से धुलाई करने के बाद रस्सियों पर सूखने के लिए फैलाते हैं।"

लेकिन काम यहीं खत्म नहीं हो जाता है, सूखने के बाद कपड़े घर जाते हैं वहाँ पर उनकी पत्नी उन्हें प्रेस करती हैं। मान के चलिए इनका पूरा परिवार इस काम में लगता है, तब कहीं जाकर ये काम हो पाता है।

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कई लोग सुबह चार-पाँच बजे तक घाट पर आ जाते हैं और दिन भर पानी में खड़े होकर कपड़े धुलाई का काम करते हैं। फोटो: मोहम्मद सलमान

कहते हैं ये कशीदाकारी मुगल बादशाह जहांगीर की बेगम नूरजहां के दौर में भारत आई और काफी परवान चढ़ गई। ईरान से यह कला हिंदुस्तान पहुँची और दिल्‍ली से अवध यानी लखनऊ में हाज़िरी दी। ऐसा भी कहा जाता है कि बेगम नूरजहां की एक कनीज, जिसे चिकनकारी का काम आता था, उसी ने हिंदुस्‍तान की कुछ महिलाओं को इस नादिर और नायाब कला से रू-ब-रू कराया था। लखनऊ और उसके आस-पास के 50 से ज़्यादा गाँव में आज भी महिलाएँ केवल चिकनकारी की कढ़ाई करके अपना घर चलाती हैं।

लखनऊ की चिकनकारी पूरी दुनिया में मशहूर है, इसकी कढ़ाई करने वाले कारीगरों की जितनी मेहनत होती है उतनी ही मेहनत इसकी धुलाई करने वालों की होती है। क्योंकि कढ़ाई के बाद कपड़ों को धुलाई के लिए भेजा जाता है जहाँ चिकन के कपड़े को अच्छे से साफ़ करने के लिए डिटर्जेंट के साथ साथ केमिकल और तेज़ाब का भी इस्तेमाल होता है जिसका शरीर पर गहरा असर पड़ता है।

"ये एक बहुत बड़ा हुनर है, समझ लीजिए जैसे ताज़महल बना कर चले गए हैं, उनके अलावा कोई नहीं बना सकता। उसी तरह हम लोग जो वाशिंग कर देगें कोई और नहीं कर पाएगा। पुराने लखनऊ की शान है चिकन, इसको जब तक हम लोग नहीं करेंगे बिक्री नहीं होगी, "ऋषि ने आगे कहा।

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आने वाली पीढ़ी इस काम से दूरी बना रही है। फोटो: अभिषेक वर्मा कपड़े धुलाई का काम करने वाले फरीदुद्दीन पिछले 45 साल से ये काम करते आ रहे हैं। वो कहते हैं, "हमारे पापा ही थे, पापा से पहले हमारे दादा थे। चाहे जितनी मशीन बन जाये दुनिया में मगर हमारे हाथ के बगैर काम नहीं हो पाएगा जो हम लोग धो लेंगे वैसी कोई मशीन घुलाई नहीं सकती हैं।"

लेकिन कपड़े धोने के काम में इनका एक ख़ास हुनर इनके काम आता है, ये लोग कपड़े धोने के लिए खुद एक ख़ास मसाला तैयार करते हैं। ऋषि बताते हैं, "हम लोग जो मसाले बनाते हैं, उन्हें कोई भी कंपनी आ जाए हमारे हुनर को नहीं पकड़ सकती है। लेकिन इसमें ऐसे केमिकल होते हैं जो बहुत नुकसान करते हैं। हमारे पापा की तो उंगलियां टेढी हो गईं, लेकिन इसके लिए हम और क्या ही कर सकते हैं। यही हमारी रोजी-रोटी है।"

ये सब देखकर आने वाली पीढ़ी ये काम नहीं काम करना चाहते है। ऋषि आगे कहते हैं, "हम हमारे समाज का कोई बच्चा ये काम नहीं करना चाहता है। कम से कम 50 हज़ार लोगों का परिवार इससे चल रहा है।"

लखनऊ में चिकन कपड़ों का कारोबार करने वाली जनक सिंह गाँव कनेक्शन से बताती हैं, "सुबह चार बजे से ये काम शुरू कर देते हैं, काफी मेहनत और डेडिकेशन के साथ काम करते हैं। दुनिया में इतनी ज़्यादा टेक्नोलॉजी बढ़ गई है, लेकिन धुलाई अभी यही लोग करते हैं। क्योंकि इतना साफ कपड़ा कोई नहीं धो सकता।"

कपड़े धोने वालों के सामने बड़ी समस्या पक्के घाट का नहीं होना भी है।

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