जब कत्थे और गुलकंद की महक छोड़कर मौसिक़ी के मंच से चल दिए उस्ताद राशिद ख़ान
जब कत्थे और गुलकंद की महक छोड़कर मौसिक़ी के मंच से चल दिए उस्ताद राशिद ख़ान

By Navin Rangiyal

इंदौर की यह शाम मौसिक़ी की यह उन शामों में से थी जो मुझे याद रह जाने वाली थी। मैं दर्शक दीर्घा में सिमट आया। सुरों को जानने वाले कुछ बेहद जहीन और महफिलों की शामों को खराब करने के लिए आने वाले कुछ बदमिज़ाज श्रोताओं के बीच मैंने अपने लिए एक ऐसा कोना तलाशा जहाँ मैं किसी रद्दकरदा सामान की तरह इत्मीनान से उन्हें सुनता रहूँ और कोई मेरी सुनवाई को न छेड़े।

इंदौर की यह शाम मौसिक़ी की यह उन शामों में से थी जो मुझे याद रह जाने वाली थी। मैं दर्शक दीर्घा में सिमट आया। सुरों को जानने वाले कुछ बेहद जहीन और महफिलों की शामों को खराब करने के लिए आने वाले कुछ बदमिज़ाज श्रोताओं के बीच मैंने अपने लिए एक ऐसा कोना तलाशा जहाँ मैं किसी रद्दकरदा सामान की तरह इत्मीनान से उन्हें सुनता रहूँ और कोई मेरी सुनवाई को न छेड़े।

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