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किसान दिवस पर मिलिए उन किसानों से जिन्होंने बदल दी किसान की परिभाषा

Divendra Singh | Dec 23, 2018, 09:43 IST
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लखनऊ। किसान दिवस पर आज हम कुछ ऐसे किसानों की कहानी बता रहे हैं, जिन्होंने खेती की परिभाषा बदल दी है। यही नहीं अपने साथ ही वो हजारों दूसरे किसानों की भी जिंदगी बदल रहे हैं। पढ़िए कुछ ऐसे ही सफल किसानों की कहानी...

हजारों किसानों को मुनाफे की खेती सिखा चुका है ये युवा, आकाश चौरसिया को पीएम मोदी भी कर चुके हैं सम्मानित

लखनऊ। एक युवा डॉक्टर बनकर लोगों की इलाज करना चाहता था लेकिन जब उसे ये समझ आया कि ज्यादातर लोग खानपान की वजह से बीमार हो रहे हैं, तो उसने अपना फैसला बदल लिया। वो लोगों का डॉक्टर न बनकर फसलों का डॉक्टर बन गया।

मध्यप्रदेश के सागर जिले के रेलवे स्टेशन से छह किलोमीटर दूर राजीव नगर तिली सागर के रहने वाले आकाश चौरसिया (28 वर्ष) गाँव कनेक्शन को फोन पर बताते हैं, "मेरा बचपन से सपना था कि बड़ा होकर डॉक्टर बनूंगा और लोगों का इलाज करूंगा लेकिन जैसे - जैसे मैं बड़ा हुआ मुझे समझ में आया कि ज़्यादातर बीमारियां ख़राब खान-पान की वजह से होती हैं।

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इसकी वजह जाननी चाही तो पता चला कि लोगों को शुद्ध अनाज और सब्जियां खाने को नहीं मिल रही हैं जिसकी वजह से वो बीमार हो रहे हैं। आजकल किसान सब्जियों और अनाज में इतने कीटनाशक और रसायनिक उवर्रक इस्तेमाल करते हैं कि लोगों को इससे तमाम तरह की बीमारियां हो जाती हैं। मुझे लगा डॉक्टर बनकर इलाज़ करने से अच्छा है कि मैं खेती करके इन्हें शुद्ध भोजन उपलब्ध कराऊं जिससे ये बीमार ही न पड़ें और इलाज़ की नौबत ही न आए।"

इसी सोच के साथ साल 2011 में आकाश ने 10 डिसमिल से जैविक खेती करनी शुरू की। आज आकाश पूरे देश में साढ़े छह हजार किसान और 250 युवाओं के सहयोग से 18 हजार एकड़ खेती जैविक ढंग से करा रहे हैं। आकाश एक अच्छे प्रशिक्षक हैं, और इनके इनकी मॉडल फॉर्मिंग की हर जगह चर्चा है। कृषि के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान देने के लिए इन्हें आठ राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं।

करोड़पति किसान: अमेरिका-जापान को हर साल भेजता है 60 करोड़ रुपए के जैविक उत्पाद

जोधपुर (राजस्थान)। सात किसानों के साथ मिलकर समूह में जैविक खेती की शुरुआत करने वाले राजस्थान के योगेश जोशी के साथ आज 3000 से ज्यादा किसान जुड़े हैं। करीब 3000 एकड़ में जैविक खेती करवाने वाले योगेश साल में 60 करोड़ रुपए से ज्यादा का कारोबार भी कर रहे हैं।

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राजस्थान के जालोर जिले की सांचोर तहसील के युवा और प्रगतिशील किसान योगेश जोशी अपने समूह के साथियों के साथ जीरे, वरियाली, धनिया, मेथी, कलौंजी जैसे मसालों की खेती करते हैं। तो मल्टीग्रेन में किनोवा, चिया सीड और बाजरा से भी उन्हें काफी मुनाफा मिल रहा है। पश्चिमी राजस्थान में उगाई जाने ये फसलें जापान में पहुंच रही हैं।

पॉलीहाउस में सब्ज़ियां उगा सीधे उपभोक्ताओं तक पहुंचाकर मुनाफा कमाता है ये किसान

होशंगाबाद (मध्य प्रदेश)। होशंगाबाद के ढाबाकुर्द गाँव के किसान प्रतीक शर्मा जैविक तरीके से खेती करते हैं और ये अपनी फसल को मंडी में बेचने के बजाय सीधे उपभोक्ताओं तक पहुंचाते हैं, जिससे लागत कम आती है व मुनाफा अच्छा होता है।

प्रतीक शर्मा गाँव कनेक्शन को बताते हैं, ''मैंने 2015 में बैंक की नौकरी छोड़कर पॉलीहाउस में खेती की शुरुआत की थी। फसल तो बहुत अच्छी पैदा हुई लेकिन मण्डी में उसकी कीमत बहुत कम लगाई गई। इससे मुझे इतने भी रुपये नहीं मिले की ट्रांसपोर्टेशन की लागत निकल आए, फसल से मुनाफा कमाना तो बहुत बड़ी बात थी। उस समय मैं जो खेती करता था उसमें लागत भी बहुत ज़्यादा थी, दूसरा मैं रसायनिक तरीके से खेती करता था जिससे मिलने वाली फसल सेहत के लिए भी काफी नुकसानदेह होती थी।

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वह कहते हैं, ऐसे में मेरे मन में हमेशा एक अपराधबोध रहता था कि मैं लोगों की सेहत से खिलवाड़ कर रहा हूं। इस पर मैंने काफी विचार किया और फिर कुछ दोस्तों के साथ मिलकर एक टीम बनाई और वर्दा फार्मर्स क्लब की शुरुआत की। इसके बाद हमने कई सब्जि़यां उगाईं और उनको उगाने में काफी कम लागत लगाई, इसके लिए हमने जैविक तरीके से खेती की और उन्हें सीधे उपभोक्ताओं तक पहुंचाया। वह बताते हैं कि उनके पास साढ़े पांच एकड़ ज़मीन है जिसमें वो 12 - 13 सब्ज़ियां उगाते हैं। इससे पहले प्रतीक ने जैविक खेती साकेत संस्था से सीखी।

हर साल खेती से 60 करोड़ कमाता है ये किसान, खेती से बदल रहा आदिवासी परिवारों की ज़िंदगी

लखनऊ। कभी बैंक में नौकरी करने वाले राजाराम त्रिपाठी आज 20 हजार से ज्यादा किसानों के लिए मददगार बन रहे हैं साथ ही अपने औषधीय उत्पादों को अमेरिका, ब्रिटेन जैसे कई देशों में निर्यात करते हैं।

छत्तीसगढ़ की पहचान घने जंगलों से है, नक्सलवाद से यहां के सैकड़ों परिवार प्रभावित हैं, लेकिन यहीं के बस्तर जिले में कोड़ागाँव के डॉ. राजाराम त्रिपाठी औषधीय फसलों की खेती कर सैकड़ों आदिवासी परिवारों की जिंदगी बदल रहे हैं।

डॉ. राजाराम त्रिपाठी (54 वर्ष) मूल रूप से उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ के रहने वाले हैं, इनके बाबा बस्तर में जाकर बस गए थे। राजाराम त्रिपाठी बताते हैं, "मेरे बाबा भी अपने समय में अपने समय के किसान थें, उनको बस्तर के राजा ने खेती में जानकारी के लिए बुला लिया था, तब पहली बार में बाबा ने वहां पर आम का कलमी पौधा लगाया था।"

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खेती में शुरुआत के बारे में वो बताते हैं, "मैं बैंक में नौकरी करने लगा था, तब मुझे लगा खेती में कुछ नया करना चाहिए, तब मैंने खेती की शुरुआत विदेशी सब्जियों की खेती से की, वो सब्जियां जो बड़े होटलों में बिकती थीं, लेकिन हमारे यहां अभी ऐसी सुविधा नहीं है, जिससे सब्जियों को खराब होने से बचाया जा सके, काफी नुकसान भी हुआ था।

तब राजाराम ने जड़ी-बूटियों की खेती करने को सोचा और सबसे पहले 25 एकड़ जमीन पर सफेद मूसली की खेती की। इससे उनको काफी मुनाफा हुआ, उसके बाद उन्होंने अपनी खेती का दायरा बढ़ाया और ज्यादा कृषि भूमि पर सफेद मूसली के अलावा स्टीविया, अश्वगंधा, लेमन ग्रास, कालिहारी और सर्पगंधा जैसी जड़ी-बूटियों की भी खेती शुरू कर दी। खेती के अलग-अलग तरीकों को जानने व कृषि आधारित सेमिनारों में भाग लेने के लिए डॉ. त्रिपाठी अब तक 22 देशों की यात्राएं कर चुके हैं।

राजाराम बताते हैं, "औषधीय खेती करने से पहले उसके बाजार के बारे में पता किया, तब जाकर खेती की। धान, गेहूं, दलहन जैसी फसलों में 100 रुपए से ज्यादा किसी का दाम नहीं मिलता है, वहीं औषधीय पौधों में सौ रुपए से ही दाम की शुरुआत होती है, सबसे अच्छी बात इसमें पौधे का अस्सी फीसदी भाग बिक जाता है।"

इसमें में मार्केटिंग की परेशानी होती थी, इसलिए उन्होंने किसानों का संगठन बनाया है। वो बताते हैं, "अब हमसे हजारों किसान जुड़े हुए, बाजार में आढती और व्यापरियों का संगठन होता है, लेकिन किसानों का नहीं, ऐसे में अब हमारा भी संगठन मिलकर काम करते हैं।" इससे निजात पाने के लिए डॉ. त्रिपाठी ने सेंट्रल हर्बल एग्रो मार्केटिंग फेडरेशन की स्थापना की। आज इस फडरेशन से देशभर के 22 हजार किसान जुड़े हैं।

राजाराम पूरी तरह से जैविक तरीके से औषधियों की खेती करते हैं। करीब 70 प्रकार की जड़ी-बूटियों की खेती करने वाली डॉ. त्रिपाठी अपनी खेती में रासायनिक खाद व कीटनाशकों का इस्तेमाल नहीं करते। जैविक खेती में उनके योगदान को देखते हुए बैंक ऑफ स्कॉटलैंड ने 2012 में अर्थ हीरो के पुरस्कार से नवाजा था। भारत सरकार ने उनको राष्ट्रीय कृषि रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया।

इस किसान ने खोजी गन्ना बुवाई की एक नई तकनीक जो बदल सकती है किसानों की किस्मत

उत्तर प्रदेश के एक किसान ने गन्ना बुवाई की एक नई तकनीक खोज निकाली है गन्ना किसानों के लिए फायदेमंद साबित हो सकती है। इस विधि से गन्ने की बुवाई करने से न सिर्फ बीज कम लगता है बल्कि खाद, पानी और पेस्टीसाइड की मात्रा में भी तीन से चार गुना तक की कमी आती है। इस तकनीक का नाम है 'वर्टिकल बेड प्लान्टेशन'।

यूपी के लखीमपुर खीरी के किसान जिले के शीतलापुर गाँव में रहने वाले युवा हाईटेक किसान दिल्जिन्दर सहोता इस तकनीक से खेती कर रहे हैं। 'वर्टिकल बेड प्लान्टेशन' यानी गन्ने की खड़ी गुल्ली (गन्ने का टुकड़ा) की बुवाई।

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दिल्जिन्दर कहते हैं 'वर्टिकल बेड प्लान्टेशन' गन्ना बोआई की यूपी में अपनाई जा रही पारम्परिक तकनीक से बिल्कुल अलग है। ये दो उल्टी दिशाओं वाले कांसेप्ट हैं। किसानों को अपना माइंड सेट बदलना पड़ेगा।' गुल्ली विधि प्लान्टेशन में खेत मे पहले बेड बनाए जाते हैं, फिर बेड के एक सिरे पर विशेष प्रकार से एक-एक आंख की खड़ी गुल्ली काटकर लगाई जाती है। जेट एयरवेज में नौकरी छोड़ अपनी मिट्टी से जुड़े युवा और हाईटेक किसान दिल्जिन्दर कहते हैं, ''खेती में लागत बढ़ती जा रही है ऐसे में किसान इनपुट कास्ट कम करके ही अपनी बचत को बढ़ा सकते हैं।''

गुल्ली विधि में खाद कम से कम, पानी 75 प्रतिशत कम और बीज में सबसे बड़ी बचत होती है। आम किसान बैलों से एक एकड़ में आम तौर पर 25 से 35 कुन्तल तक बीज प्रयोग करते। ट्रेंच विधि से और भी ज्यादा बीज लगता है। पर इस विधि से मात्र चार से पांच कुन्तल बीज में एक एकड़ खेत की बोआई हो जाती है। सर्दियों की बोआई तो दो से तीन कुन्तल गन्ने के बीज से ही हो सकती।

दिल्जिन्दर मुस्कुराते हुए कहते हैं ये बात आम किसान के सामने कहेंगे तो वो हंसेगा। पर ये 100 फीसदी सच है। चार पांच कुन्तल में एक एकड़ गन्ने की बिजाई। 'खड़ी गुल्ली विधि' में धूप और पानी का मैनेजमेंट बड़ा जरूरी है। गन्ने की फसल सी-4 टाइप की फसल है सो धूप इसके लिए पूरी मिलनी जरूरी है।

दिल्जिन्दर कहते हैं हम इसे फगवाड़ा मेथड या अवतार सिंह मेथड भी कहते हैं। हमने भी ये विधि पंजाब के किसान अवतार सिंह से ही सीखी। इसके बाद आजमाई और आज पूरी तरह से मुतमुईन हूँ।

यूपी में अभी आम गन्ना किसान बीज, खाद पेस्टिसाइड अंधाधुंध डालते गन्ने को बड़ा करने के लिए। लेकिन वर्टिकल बेड प्लान्टेशन में गन्ने को बढ़ाया नहीं जाता। बल्कि उसकी मोटाई बढाई जाती। गन्ना गठीला होगा तो स्वस्थ होगा। मिट्टी चढ़ी होगी तो गिरेगा भी कम।

दिल्जिन्दर कहते हैं, ''अगर हम चार कुन्तल में चार सौ और ज्यादा उत्पादन ले सकते तो फिर खेत मे 30-40 कुन्तल बीज क्यों झोंकना। खर्चो में कटौती करके ही किसान इनपुट लागत बचा सकता है।

इंजीनियरिंग के फार्मूलों को खेतों में इस्तेमाल कर रहा है महाराष्ट्र का ये युवा किसान

राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में कई जागरूक किसान बड़ी नौकरी छोड़ खेती कर रहे हैं। महाराष्ट्र के उचित भी एक ऐसे युवा किसान हैं जो सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ायी के साथ ही अब खेती में जुट गए हैं। अपनी तकनीकि पढ़ाई का इस्तेमाल वो खेतों में करते हैं और इसे लाभ का सौदा बनाने में जुटे है।

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महाराष्ट्र के नंदुरबार के मलोणी गाँव रहने वाले उचित पटेल (22 वर्ष) सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ायी के साथ ही गन्ना, ग़ेहुं, चना, तुअर, लाख जैसे कई फसलों की खेती कर मुनाफा कमा रहे हैं।

पिछले वर्ष से उचित ने कुसुम की खेती की शुरुआत की है, जिसे कई राज्यों में किसान केसर के नाम पर खेती कर रहे हैं। कुसुम की खेती के बारे में उचित बताते हैं, "मुझे इंटरनेट पर इस खेती के बारे जानकारी मिली थी, राजस्थान के एक किसान के बारे में जानकारी मिली जो कुसुम की खेती कर रहे हैं।"

उचित गन्ना, ग़ेहुं, चना, तुवर, लाख, अमेरिकन केसर उगाकर एक साफ्टवेयर इंजीनियर से ज्यादा कमाई हो रही है, अब दूसरे गाँव के किसान भी जानकारी लेने आते हैं, जो कुछ साल पहले तक उनका मजाक उड़ाया करते थे।

इस युवा किसान ने उगाया 31 फिट का गन्ना

लखीमपुर। मिनी पंजाब के नाम से मशहूर यह इलाका गन्ने की खेती के लिए जाना जाता है। जब भी गन्ने का नाम आता है, तो मिल से प्रताड़ित किसान का चेहरा और भुगतान न मिलने की समस्या ही सबसे ऊपर नजर आती है।

इन सबके बीच कुछ ऐसे भी किसान हैं जो कुछ अलग करना चाहते हैं। कुछ कर गुजरने की जुगत में लगे हुए हैं। इन्हीं में से एक नाम है ग्राम ढाका के प्रगतिशील और युवा किसान करनजीत सिंह धालीवाल का। जोकि अपने पिता के साथ मिलकर हाईटेक तकनीक का प्रयोग कर खेती करने में जुटे हैं।

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उन्होंने करीब 31 फिट का लंबा गन्ना पैदाकर नाम कमाया था, जिसके बाद वे चर्चा में आ गए। आज वे गन्ने की बेहतर उपज हासिल कर रहे हैं और इसके लिए उन्हे राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित भी किया जा चुका है। हालांकि शुरूआती दिनों में उनके इस प्रयोग पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया था।

करनजीत ने बताते हैं, "हमारे यहां मुख्य फसल गन्ना ही है, इसीलिए गन्ने के बारे में नयी जानकारियां के बारे में भी खोजते रहते हैं, इसके अलावा धान और गेहूं सिर्फ अपने खाने भर के लिए ही उगाते हैं। हम गन्ने की खेती आधुनिक तकनीक से कर रहे हैं, इससे उपज दोगुनी हो जाती है।

मार्च में थाइलैंड में आयोजित अंतरराष्ट्रीय गन्ना बैठक में भी उन्हें आमंत्रित किया गया था, जहां पर उन्होंने गन्ने की फसल बोने के तरीकों के बारे में विदेशों से आए किसानों के सामने व्यक्त किए थे। करनजीत ने बताया कि कम खर्च में गन्ने की अच्छी खेती कैसे की जाती है इसका प्रदर्शन करने के लिए थाइलैंड में उन्हें आमंत्रित किया गया था। यहां पर उन्होंने हाईटेक खेती के बारे में विस्तार से बताया था।

रवि बने किसानों के लिए मिसाल, मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी छोड़ शुरू की बागवानी

लखनऊ। एमबीए के बाद चार साल नौकरी करने के बाद जब गाँव में फूलों की खेती करने लौटे तो गाँव वालों के साथ ही घर के लोगों ने भी विरोध किया। आज जिले के सबसे बड़े फूल उत्पादक किसान बन गए हैं।

मैनपुरी ज़िले के सुल्तानगंज ब्लॉक के गाँव पद्मपुर छिबकरिया के रहने वाले रवि पाल (27 वर्ष) छह महीने पहले तक नोएडा की एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी करते थे। मगर अब रवि अपने गाँव में वापस आकर गेंदा की खेती करने लगे हैं।

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दो बीघा में खेती शुरू करने वाले रवि ने इस बार 20 बीघा खेत में गेंदा लगाया है। गेंदे की फसल को खराब नहीं करते जानवर नौकरी छोड़कर गाँव वापस आने के बारे में रवि बताते हैं, ''हमारे गाँव में नीलगाय का बहुत आतंक है। हर साल नीलगाय हमारे तरफ सैकड़ों बीघा खेत बर्बाद कर देते हैं। मुझे पता चला कि गेंदे की फसल को नीलगाय और दूसरे जानवर खराब नहीं करते हैं।'' वो आगे कहते हैं, ''बस तभी से घर आ गया और दो बीघा खेत में गेंदे के पौधे लगा दिए। इसकी सबसे अच्छी खासियत है ये ढाई-तीन महीने में इसकी फसल तैयार हो जाती है।''

रवि ने गर्मी वाली फसल के लिए थाइलैंड से गेंदे के बीज मंगाकर बाग लगायी थी। रवि कहते हैं, ''पिछली बार थाईलैंड से गेंदे के कुछ बीज मंगाए थे, अपने यहां के गेंदे के फूल तीन-चार महीने तक फूल देते हैं, जबकि थाईलैंड के गेंदे के पौधे 12 महीने फूल देते हैं। थाईलैंड से मंगाए गेंदों को बुके में भी लगा सकते हैं।'' इस बार सर्दी की फसल में रवि ने कलकत्तिया और जाफरी किस्म का गेंदा लगाया है।

तालाब नहीं खेत में सिंघाड़ा उगाता है ये किसान, कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने भी किया है सम्मानित

सहारनपुर। जिस समय पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गन्ना किसान समय पर भुगतान न मिल पाने से परेशान हैं, वहीं पर इस किसान का खेती का तरीका बदलकर मुनाफा कमा रहा है। तभी तो इन्हें केंद्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने भी सम्मानित किया है।

सहारनपुर जिले के नंदीसेठपुर गाँव के किसान सेठपाल सिंह इस समय पंद्रह हेक्टेयर में खेती कर रहे हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जहां बड़े पैमाने पर गन्ने की खेती होती है। वहीं पर सेठपाल सिंह गन्ने की खेती तो करते ही हैं साथ ही लौकी, करेला, खीरा, पालक जैसी सब्जियों की भी खेती करते हैं।

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सहारनपुर के नंदीफिरोजपुर गाँव के रहने वाले सेठपाल सिंह एक संयुक्त परिवार में रहते हैं। हर किसी का सपना होता है कि वो पढ़ लिखकर अच्छी नौकरी करें, लेकिन इस प्रतिभाशाली किसान ने इस बात को गलत साबित किया। साल 1987 में कृषि में स्नातक की पढ़ाई के बाद सेठपाल ने नौकरी करने के बजाए खेती करना बेहतर समझा।

सेठपाल सिंह बताते हैं, "पहले हम भी गन्ना, गेहूं और धान के किसान थे, लेकिन वो घाटे के सौदे के अलावा कुछ नहीं था। ऐसे में हम कृषि विज्ञान केंद्र के संपर्क में आए, तब वहां पर वैज्ञानिकों ने कृषि विविधीकरण के बारे में बताया उसके बाद हमने एक ऐसा सिस्टम इजाद किया जिससे किसान की रोज आमदनी हो, इसमें हम गन्ने की खेती भी करते हैं सब्जियों की भी खेती करते हैं, इसके साथ ही खेत में ही सिंघाड़ा भी उगाते हैं, हम मछली पालन भी करते हैं इसके साथ ही पशुपालन और मशरूम की भी खेती करते हैं।"

मचान विधि से एक साथ करते हैं कई सब्जियों की खेती

सेठपाल मचान विधि से एक साथ कई सब्जियों की खेती करते हैं। वो बताते हैं, "सबसे पहले हम पॉलीबैग में इन सब्जियों की नर्सरी तैयार करते हैं। जनवरी के आखिरी सप्ताह में हमने एक लाइन में करेले की रोपाई कर दी, दूसरी लाइन में खीरे की रोपाई कर दी। खीरा हमारा मई तक चला है, मई में जब खीरा खत्म हो गया तो हमने उसमें लौकी की रोपाई कर दी। जुलाई तक हमारा करेला चला है, उसके बाद लौकी भी आने लगी है जो अभी तक चल रही है।"

तालाब नहीं खेत में उगाते हैं सिंघाड़ा

सिंघाड़े के खेत को दिखाते सेठपाल सिंह सेठपाल सिंह तालाब नहीं खेत में ही सिंघाड़े की करते हैं, खेती की शुरूआत के बारे में वो बताते हैं, "एक बार हम सहारनपुर के पास के एक गाँव से गुजर रहे थे, वहां पर किसान तालाब से सिंघाड़े की बेल निकाल रहे थे। हम लोग वहां रुके और जानकारी ली, उसके बाद हम कृषि विज्ञान केंद्र गए और डॉक्टर साहब के पास गए उन्होंने कहा कि आप भी इसकी खेती कर सकते हैं। तब 1997 में हमने इसकी शुरुआत की।"

हरियाणा के धर्मवीर कंबोज की बनाई प्रोसेसिंग मशीनों से हजारों किसानों को मिला रोजगार

लखनऊ। खेती और मार्केट को समझने वाला हर आदमी कहता है, खेती के कमाई करनी है हो अनाज नहीं उसके प्रोडक्ट बेचो। गेहूं की जगह आटा, तो फल की जगह जूस और जैम। लेकिन ये काम कैसे होगा, उसकी न फैक्ट्री लगाने की मशीनें सस्ती और सस्ती मिलती हैं। लेकिन कुछ किसान ऐसे हैं जिन्होंने इसका तोड़ निकाल लिया है।

हरियाणा के रहने वाले धर्मवीर कंबोज न सिर्फ खुद इस राह पर चले बल्कि अपनी बनाई जुगाड़ की मशीनों से हजारों किसानों को रोजगार दिया। उनका खुद का कारोबार आज लाखों में है और वो सफल उद्यमी और किसान ट्रेनर हैं। हरियाणा के यमुना नगर जिले के दंगला गाँव के रहने वाले धर्मवीर कंबोज सालाना 80 लाख से एक करोड़ रूपए तक कमा लेते हैं, लेकिन कभी वो दिल्ली की सड़कों पर दिन-रात रिक्शा चलाते थे। लेकिन एक दिन वो घर लौटे और जैविक खेती शुरु की। फिर अपने ही खेतों में उगाई सब्जियों की प्रोसेसिंग शुरु की, उसके लिए मशीनें बनाईं।

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लेकिन, रिक्शा चालक से करोड़पति बनने तक की राह इतनी आसान नहीं थी। करोड़पति बनने तक के सफर के बारे में धर्मवीर सिंह बताते हैं, "इतना पढ़ा लिखा नहीं था कि कोई नौकरी पाता, इसलिए गाँव छोड़कर दिल्ली में रिक्शा चलाने लगा। रिक्शा चलाकर घर चलाना भी मुश्किल था। एक बार एक एक्सीडेंट हो जिससे मैं वापस आने गाँव आ गया।"

घर आने के बाद कई महीनों तक उन्हें कोई काम नहीं मिला और वो घर पर ही रहे। एक बार वे राजस्थान के अजमेर गए, जहां उन्हें आंवले की मिठाई और गुलाब जल बनाने की जानकारी मिली। धर्मवीर बताते हैं, "एक बार हमारे गाँव के किसानों का टूर अजमेर गया, वहां पर मैंने देखा कि वहां पर महिलाएं आंवले की मिठाइयां बना रहीं हैं, मैंने सोचा कि मैं भी यही करूंगा, लेकिन इसको बनाने के लिए गाजर या फिर आंवले को कद्दूकस करके निकालना होता है, जिससे हाथ छिलने का डर बना रहता था, जिस हिसाब से मुझे प्रोडक्शन चाहिए था, वो मैन्युअल पर आसानी नहीं हो सकता था। तब मैंने सोचा कि कोई ऐसी मशीन बनायी जाए जिससे मेरा काम आसान हो जाए।"

आज धर्मवीर पूरी तरह से जैविक खेती करते हैं, लेकिन वो अपनी फसल को मंडी में नहीं बेचते हैं जितनी भी फसल होती है, उसकी प्रोसेसिंग करके अच्छी पैकिंग करके बाजार में बेचते हैं। इसके लिए उन्होंने इसके लिए एक मल्टीपरपज प्रोसेसिंग मशीन बनायी है, जिसमें कई तरह के उत्पादों की प्रोसेसिंग हो जाती हो।

सोनभद्र के इस किसान से सीखिए सहफसली खेती के फायदे

घोरावल (सोनभद्र)। सहफसली खेती से कैसे फायदा कमाया जा सकता है, आप इनसे सीख सकते हैं। एक साथ कई फसल उगाने पर ये फायदा होता है कि अगर किसी फसल का सही दाम नहीं मिला तो दूसरी फसल से मिल ही जाता है।

सोनभद्र जिले के घोरावल ब्लॉक के मरसड़ा गाँव के किसान ब्रह्मदेव कुशवाहा आज जिले ही नहीं आस-पास के कई जिलों के किसानों के आदर्श बन गए हैं। इनसे सीखने कृषि वैज्ञानिक तक आते हैं। वो हल्दी, जिमिकंद, गेहूं, मटर, धान, मसूर, अरहर, स्ट्राबेरी और पालक, भिंडी, अदरक जैसी कई फसलों की खेती करते हैं।

ब्रह्मदेव कुशवाहा बताते हैं, "खेती में ऐसी कोई फसल नहीं है, जिसकी खेती हम नहीं करते हैं, अपनी जरूरत का सब कुछ उगा लेते हैं। मेहनत करने के बाद किसी फसल में नुकसान नहीं होता है। दाल भी मैं उगाता हूं, तेल वाली फसलें भी और धान गेहूं भी, काम भर के मसाले भी उगा लेता हूं, इसमें कोई घाटे की बात नहीं है। एक ही फसल की खेती करने पर नुकसान भी होता है। जैसे कि धान का किसान को अगर घाटा हो गया तो या मक्का या फिर उड़द-मूंग में नुकसान हो गया, लेकिन सहफसली खेती में किसी न किसी फसल से तो फायदा हो ही जाएगा।"

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आज सोनभद्र के सफल किसान बन गए ब्रह्मदेव के लिए इतना आसान नहीं था। 26 साल पहले नक्सलियों से परेशान होकर झारखंड से सोनभद्र आए ब्रह्मदेव को भी नहीं पता था कि आज वो जिले के उन्नत किसानों में शामिल हो जाएंगे। कम पानी में कैसे खेती की जाती है, लोग उनसे सीखने आते हैं।

ब्रह्मदेव बताते हैं, "झारखंड में मेरा मकान था, जहां पर मैं इलेक्ट्रिक सामानों की दुकान चलाता था, वहां पर उस समय नक्सलियों ने परेशान कर दिया था, जेब में सिर्फ सत्तर हजार रुपए थे, वही लेकर सोनभद्र में आ गया।" सोनभद्र में आकर ब्रह्मदेव ने पहले पांच बीघा खेत खरीदकर खेती शुरु। ब्रह्मदेव बताते हैं, "पांच बीघा खेत से आज मैंने 15 बीघा खेत खरीद लिया, जिसमें हल्दी, जिमिकंद, गेहूं, मटर, मसूर, अरहर, स्ट्रबेरी और साग सब्जियों की भी खेती करता हूं।"

करते हैं जैविक खेती

ब्रह्मदेव पूरी तरह से जैविक खेती करते हैं। वो बताते हैं, "अपनी खेती में पूरी कोशिश रहती है 75 जैविक खेती है, यहां पर भारी मिट्टी है, लेकिन कम्पोस्ट डाल डालकर हल्का बना लिया है और आपके ऊपर निर्भर करता है कि आप कितनी बढ़िया मिट्टी लेकर बढ़िया उत्पादन ले सकते हैं।"

बाजार देखकर करते हैं खेती

ब्रह्मदेव बाजार देखकर खेती करते हैं, कि बाजार में किस समय कौन सी फसल से फायदा कितना फायदा होगा। "जिमिकंद बाजार में सस्ता था, तो किसानों को बहुत नूकसान हुआ था, इसलिए इस बार लोगों ने कम लगाया, लेकिन इस बार मैंने इसकी खेती और अच्छा मुनाफा भी कमाया।" ब्रह्मदेव ने बताया।

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