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आजीबायची शाला: ऐसा स्कूल, जहां बुजुर्ग महिलाएं करती हैं अपने सपनों को पूरा

गाँव कनेक्शन | May 05, 2020, 14:40 IST
इस स्कूल की स्थापना 2016 में महाराष्ट्र के ठाणे जिले के फंगाने गांव में योगेंद्र बांगर द्वारा की गई थी। ये 'छात्राएं' अपनी चमकीली गुलाबी साड़ी की ड्रेस पहन कर स्कूल आती हैं और अपने सपने को पूरा करने के मिशन में जुट जाती हैं।
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वर्षा रामचंद्रन, वर्चुअल भारत


"आजीबायची शाला खोलने का ख्याल मेरे दिमाग में सबसे पहले फरवरी 2016 में आया, जब हम शिवाजी जयंती मना रहे थे," फोन के दूसरे छोर से स्कूल के संस्थापक योगेंद्र बांगर बताते हैं। उनकी आवाज में गर्मजोशी और उत्साह साफ झलकती है।

वह आगे कहते हैं, "उस दिन गाँव की कुछ महिलाएं 'पवित्र पाठ' पढ़ रही थीं। तभी मैंने कुछ बुजुर्ग महिलाओं को यह कहते हुए सुना कि काश वे भी पाठ पढ़ पातीं। इसके बाद मैंने उनके लिए एक स्कूल खोलने का विचार किया।" बांगर की आवाज से लगता है कि वर्षों बाद भी वह इन यादों को बहुत उत्सुकता से सुनाने के लिए उत्साहित हैं।

आजीबायची शाला एकमात्र ऐसा स्कूल है जिसका नाम अपने छात्रों के नाम पर पड़ा है। इसकी स्थापना महाराष्ट्र के ठाणे जिले के फंगाने गांव में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर 8 मार्च 2016 को हुई थी। मोतीराम दलाल चैरिटेबल ट्रस्ट के जिला परिषद शिक्षक और सामाजिक कार्यकर्ता योगेंद्र बांगर इस महत्वपूर्ण पहल के पीछे थे।

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आजीबाईचीशाला एक ऐसा स्कूल है, जहां अज्जियां अपने आजीवन सपने को साकार करती हैं

इस स्कूल का नाम एकदम सरल है, जिसे एक साधारण आदमी द्वारा स्थापित किया गया। इस स्कूल की स्थापना का विचार भी एकदम सरल था। विचारों की सरलता जीवन बदलने वाली भी साबित होती हैं, यह बात इस स्कूल को देखने से समझ में आता है। फंगाने गांव की बुजुर्ग महिलाओं के लिए स्थापित इस स्कूल में अज्जियां, अपने बच्चों और पोते की तरह पेंसिल लेकर अपना हस्ताक्षर करने में सक्षम होना चाहती थी।

यह स्कूल अज्जियों (दादियों) के लिए एक सपने के सच होने जैसा है। उन्हीं में से एक अज्जी ने मुस्कुराते हुए गर्व से कहा, "जब मुझसे कोई स्वर्ग में पूछेगा कि मैंने अपने जीवन में क्या अच्छा किया, तो मैं कहूंगी कि मैंने अपना हस्ताक्षर करना सीख लिया।" यह गर्व उन्हें क्यों ना हो? आखिरकार, अब वह एक साक्षर महिला हैं।

ग्रामीण भारत में रहने वाली उनकी उम्र की कुछ ही महिलाएं ऐसी चीजों पर गर्व कर सकती हैं। उन्होंने एक तरह से एक लड़ाई जीती है। वे समाज और परिस्थितियों पर विजय पाने वाली महिलाएं हैं। उनके पास एक महिला की नजर है, जिन्होंने अपने सपने को हासिल किया हैं। जो यह कह सकती है कि "हां, मैंने ऐसा किया है!"

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फंगाने की बुजुर्ग महिलाएं अपने बच्चों और पोते की तरह पेंसिल उठाने और अपने नाम का हस्ताक्षर करने में सक्षम होना चाहती थीं।

बांगर ने फंगाने गांव के परिवारों को इस महान काम के लिए प्रोत्साहित प्राप्त किया। उन्होंने पहले गांव के एक घर में दो कमरे वाले स्कूल की स्थापना की, जो दिन में केवल दो घंटे- दोपहर 2 से 4 बजे तक खुला रहता था। उनके प्रयासों ने उन दबी हुई इच्छाओं को फिर से जीवित कर दिया, जिसे गांव के अज्जियों ने असंभव मान लिया था।

अब वे अपनी चमकीले गुलाबी साड़ी वाली ड्रेस पहनकर स्कूल आती हैं और हिंदी-अंग्रेजी वर्णमाला के अक्षरों, गणित, कविता, कला आदि का अभ्यास करती हैं। वे अन्य छोटे बच्चों की तरह अपने अध्यापक से होमवर्क ना पूरा होने की शिकायत भी करती हैं। वे अभी ऐसा जीवन जी रही हैं, जिसकी उम्मीद उन्होंने शायद ही कभी की हो। गुलाबी रंग की साड़ी और कुछ दातों व कुछ बिना दांतों की मुस्कान लिए ये महिलाएं सुंदरता की एक अलग ही प्रतिमूर्ति स्थापित करती हैं।

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अज्जियां उन कागजात को अब आसानी से समझ सकती हैं, जिन पर वे हस्ताक्षर करती हैं।

इस आजीबायची शाला ने समाज के बने-बनाए पूर्व निर्धारित कई ढांचों को तोड़ा है और ना केवल फंगाने बल्कि पूरे भारत में एक मिसाल कायम की है। इस पहल ने देश भर के कई अन्य समुदायों में कुछ करने की ललक पैदा की है और एक ऐसी पीढ़ी को तैयार किया है जिन्हें आमतौर पर चिठ्ठी, संख्या, स्वच्छता और बुनियादी अधिकारों के महत्वपूर्ण ज्ञान तक समझ नहीं थी।

इस गांव की अज्जियां आज गर्व से चलती हैं। वे फोन का जवाब देती हैं, गांव की बैठकों में बोलती हैं, उन कागजातों को समझती हैं जिन पर वे हस्ताक्षर करती हैं और सबसे महत्वपूर्ण बात इंकपैड को दूर करके वे कलम उठाकर अपना हस्ताक्षर करती हैं। यह एक तरह का सम्मान और प्रतिष्ठा है जो उम्र, लिंग और स्थिति से ऊपर उठकर उन्हें समान बनाता है। आजीबायची शाला भारत के सभी लोगों के लिए एक महाराष्ट्रियन दादी की सबक है और यह भारत की गौरवपूर्ण कहानियों में से एक है।

फंगाने की अज्जियों को समर्पित एक फिल्म " target="_blank" rel="
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अनुवाद- दया सागर





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