अब सिर्फ चेतावनी नहीं, कानूनी ज़िम्मेदारी है जलवायु की रक्षा

Seema Javed | Jul 28, 2025, 18:41 IST
इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस (ICJ) ने जलवायु परिवर्तन को रोकने को केवल नैतिक जिम्मेदारी नहीं, बल्कि कानूनी कर्तव्य करार दिया है। अब दुनियाभर की सरकारें ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती और जीवाश्म ईंधनों से दूरी बनाए बिना बच नहीं सकेंगी, क्योंकि जलवायु संकट से निपटना अब मानवाधिकार और न्याय का सवाल बन गया है।
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अब जलवायु परिवर्तन से निपटना सिर्फ एक पर्यावरणीय मुद्दा नहीं रहा, बल्कि यह मानवाधिकार और अंतरराष्ट्रीय कानून का सवाल बन गया है। इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस (ICJ) ने हाल ही में एक ऐतिहासिक राय में कहा है कि जलवायु संकट से निपटना सभी देशों की कानूनी ज़िम्मेदारी है, जिससे अब बहस का रुख पूरी तरह बदल गया है।

कैसे शुरू हुई यह ऐतिहासिक पहल?

यह बदलाव एक छोटे से द्वीप देश वानुआतु के युवाओं से शुरू हुआ। उन्होंने सवाल उठाया कि क्या सरकारें जलवायु संकट से उनकी रक्षा कर रही हैं? उनका यह सवाल 2023 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के माध्यम से ICJ के पास पहुंचा। और अब, दुनिया के 100 से अधिक देशों की दलीलों को सुनने के बाद ICJ ने अपना स्पष्ट फैसला दिया है:

"हर देश को ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन तेजी से घटाना होगा। कोयला, तेल, और गैस पर निर्भरता खत्म करनी होगी। नहीं तो यह अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन माना जाएगा।"

जलवायु संकट अब कानूनी मामला भी है

ICJ की इस कानूनी राय से यह स्पष्ट हो गया है कि:

जलवायु संकट से निपटना अब सिर्फ नीति निर्माण या राजनीतिक इच्छा की बात नहीं रह गई।

अब यह मानव अधिकारों और न्याय का मुद्दा है।

जिन सरकारों की जलवायु नीतियां कमजोर हैं, वे अपने नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कर रही हैं।

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने इसे "धरती, जलवायु न्याय और युवाओं की जीत" करार दिया है।

1.5 डिग्री का लक्ष्य अब कानूनी मापदंड

ICJ ने पेरिस समझौते में तय 1.5°C तापमान सीमा को कोई वैकल्पिक सुझाव नहीं, बल्कि एक कानूनी और नैतिक ज़रूरत बताया है। सभी देशों को अपनी नीति और विकास योजनाएं इस लक्ष्य को ध्यान में रखकर बनानी होंगी।

दुनिया भर में अदालतों में उठने लगे हैं जलवायु न्याय के सवाल

ICJ की राय वैश्विक न्याय की उस लहर का हिस्सा है जो पहले से कई देशों में उठ चुकी है:

नीदरलैंड, जर्मनी, बेल्जियम, दक्षिण कोरिया और यूरोपीय मानवाधिकार अदालत ने भी स्पष्ट किया है कि जलवायु संकट से निपटना सरकारों की ज़िम्मेदारी है।

स्विट्ज़रलैंड जैसे देश जो अदालतों के जलवायु फैसलों को चुनौती दे रहे हैं, उन पर भी अब नैतिक और कानूनी दबाव बढ़ेगा।

यह सलाह अब एक कानूनी और नैतिक 'कम्पास' बन सकती है

अब जब बेल्जियम, फ्रांस, कनाडा, तुर्की, पुर्तगाल और न्यूजीलैंड जैसे देशों में जलवायु मुकदमे चल रहे हैं, तो ICJ की सलाह:

नागरिकों और एक्टिविस्टों को कानूनी लड़ाई लड़ने का आधार देगी।

भविष्य की पीढ़ियों के अधिकारों की रक्षा के लिए एक वैश्विक औजार बन सकती है।

यह एक नई उम्मीद है उन समुदायों के लिए जो समुद्र स्तर बढ़ने, गर्मी, सूखा, और बाढ़ जैसे संकटों से जूझ रहे हैं।

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अब समय है जवाबदेही का

जलवायु संकट से जूझने के लिए अब सिर्फ 'समिट' और 'घोषणाएं' काफी नहीं। अब दुनिया की सबसे बड़ी अदालत कह रही है—
"जलवायु संरक्षण सिर्फ नैतिक नहीं, कानूनी और मानवाधिकार का मामला है।"

अब दुनिया की सरकारों पर एक नई जवाबदेही का दौर शुरू हो चुका है। मौसम की तरह सरकारों का मूड अब नहीं बदल सकता। अब समय है कानूनी और नीति-स्तरीय ठोस कार्रवाई का।

भारत और जलवायु न्याय

भारत जैसे देश, जहाँ करोड़ों लोग जलवायु आपदा की चपेट में हैं—बाढ़, हीटवेव, फसल बर्बादी, जल संकट—यह कानूनी सलाह खास मायने रखती है। भारत की अदालतें भी अब जनहित याचिकाओं के माध्यम से पर्यावरण और जलवायु से जुड़े मामलों पर निर्णायक फैसले दे रही हैं। यदि भारत जलवायु न्याय को अपने नीति-संरचना और विकास एजेंडे का हिस्सा बनाता है, तो यह न केवल पर्यावरण की रक्षा करेगा बल्कि गरीब और हाशिए पर खड़े समुदायों को भी न्याय दिलाएगा।

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