उत्तराखंड की धराली त्रासदी ने बताया कि जलवायु परिवर्तन अब सिर्फ एक रिपोर्ट नहीं, एक हकीकत है
Seema Javed | Aug 07, 2025, 12:51 IST
उत्तराखंड की धराली में हालिया बादल फटने की घटना ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि हिमालय अब चेतावनी नहीं दे रहा, बल्कि सीधा जवाब दे रहा है। जलवायु परिवर्तन, अनियंत्रित विकास और नीति स्तर पर लापरवाही ने इस पहाड़ी राज्य को बार-बार त्रासदी के मुहाने पर ला खड़ा किया है।
एक अगस्त 2025, उत्तरकाशी जिले का धराली गाँव। पहाड़ों में हल्के बादल थे, जो आम बात है। लेकिन दोपहर होते-होते, जैसे आसमान फट पड़ा। कुछ ही मिनटों में तेज़ जलधारा ने गाँव की गलियों को निगल लिया। मकान, दुकानें, सड़कें- सब बह गए।
स्थानीय निवासी पहले इसे सामान्य ‘बादल फटना’ समझ बैठे, लेकिन जब पानी का रंग गाढ़ा होने लगा, ज़मीन कांपने लगी, और आवाज़ें तेज़ होती गईं—तब उन्हें समझ आ गया कि यह एक जलवायु-जनित तबाही है।
बदलता मानसून: जब हर बूँद विनाशक बन जाए
जलवायु वैज्ञानिकों के अनुसार, अरब सागर और बंगाल की खाड़ी से उठने वाली गर्म हवाएं अब हिमालय से टकरा रही हैं और Cumulonimbus जैसे खतरनाक बादल बना रही हैं, जो 50,000 फीट तक ऊंचे हो सकते हैं।
IMD और स्कायमेट जैसे संस्थानों ने पहले भी चेतावनी दी थी कि उत्तराखंड जैसे राज्यों में बारिश का पैटर्न अब अस्थिर हो चुका है। IPCC की रिपोर्ट बताती है कि पहाड़ों में हर 1°C तापमान वृद्धि पर वर्षा की तीव्रता 15% तक बढ़ जाती है- यह मैदानी इलाकों की तुलना में दुगुनी है।
ग्लेशियर पिघल रहे हैं, पहाड़ कमज़ोर हो रहे हैं
भारत सरकार के DRDO और विज्ञान मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार:
गंगा बेसिन में ग्लेशियर हर साल 15.5 मीटर पीछे हट रहे हैं
ब्रह्मपुत्र बेसिन में यह दर 20.2 मीटर/वर्ष है
इंडस बेसिन में 12.7 मीटर/वर्ष
Wadia Institute के अनुसार, ग्लेशियरों के पिघलने से नीचे की चट्टानें अस्थिर हो जाती हैं। यही वजह है कि इन इलाकों में अचानक झीलें बनती हैं, और फिर टूट जाती हैं—जिससे सैकड़ों गांव खतरे में आ जाते हैं।
विकास बनाम विनाश: उत्तराखंड क्या संभाल सकता है इतना बोझ?
केदारनाथ (2013)
ऋषिगंगा (2021)
धराली (2025)
तीनों त्रासदियों की जड़ में एक ही समस्या है—‘विकास की बिना योजना की दौड़’।
राज्य में हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट, सुरंगें, होटल और सड़कें बना दी गईं बिना भूगर्भीय अध्ययन के। दून यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर Y.P. Sundriyal कहते हैं, “हिमालय एक युवा पर्वत श्रृंखला है, जो अभी भी भूगर्भीय रूप से अधपकी है। इसमें बिना अध्ययन के निर्माण आत्मघाती है।”
क्या हम तैयार हैं अगली त्रासदी के लिए?
IIT मुंबई के जलवायु वैज्ञानिक डॉ. सुभीमल घोष और IPCC लेखक डॉ. अंजल प्रकाश मानते हैं:
हमें फ्लडप्लेन ज़ोनिंग लागू करनी होगी
Early Warning Systems (EWS) की नेटवर्किंग बढ़ानी होगी
हर घाटी में Automatic Weather Stations (AWS) लगाने होंगे
पर्वतीय क्षेत्रों में खतरे पर आधारित विकास नीति बनानी होगी
आज भी उत्तराखंड में बहुत-से ऐसे इलाके हैं जहां मौसम पूर्वानुमान की कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं है।
यह सिर्फ एक आपदा नहीं, एक चेतावनी है
जब धाराली में घर बहते हैं, परिवार उजड़ते हैं और बच्चे स्कूल छोड़ते हैं, तो यह सिर्फ एक जलवायु आपदा नहीं होती—यह नीति की विफलता, चेतावनी को अनसुना करना और योजना की कमजोरी का प्रमाण होता है।
हिमालय अब गूंगा नहीं रहा। वो हर साल, हर मानसून, हर तूफान में हमें यह कह रहा है:
“अब मैं बर्दाश्त नहीं करूंगा। अब तुम्हारी बारी है सीखने की।”
अब वक्त है सवाल पूछने का
क्या उत्तराखंड में सभी निर्माण कार्यों के पहले भू-वैज्ञानिक मूल्यांकन अनिवार्य होंगे?
क्या Early Warning Systems को प्राथमिकता मिलेगी?
क्या राज्य आपदा प्रबंधन नीति को जलवायु विज्ञान से जोड़ा जाएगा?
हिमालय हमें रोक नहीं सकता, लेकिन चेतावनी जरूर दे रहा है।
अब सवाल है- क्या हम सुन रहे हैं?
हर बार जब एक घर बहता है, कोई अपनी ज़मीन छोड़ता है, या कोई बच्चा अपने स्कूल का रास्ता खो बैठता है, हम सिर्फ जलवायु परिवर्तन की मार नहीं झेल रहे, हम अपनी योजनात्मक अक्षमता की कीमत चुका रहे हैं।
हिमालय कोई ‘अदृश्य खतरा’ नहीं है। वो हर साल, हर मानसून, हर जलप्रलय में हमें याद दिला रहा है:
“मैं थक चुका हूं सहन करते करते। अब आपकी बारी है सीखने की।”
अब तक क्या हुआ?
6 अगस्त 2025 को जारी उत्तरकाशी जिला प्रशासन की रिपोर्ट के अनुसार, धाराली क्षेत्र में अब तक 19 लोगों की मौत, 3 पुलों और 62 मकानों के क्षतिग्रस्त होने की पुष्टि हुई है। राष्ट्रीय आपदा मोचन बल (NDRF) की दो टीमें मौके पर राहत कार्य में जुटी हैं और मौसम विभाग ने अगले 48 घंटे तक और बारिश की चेतावनी जारी की है। राज्य सरकार ने ₹10 करोड़ की त्वरित राहत राशि जारी की है और नुकसान का आकलन करने के लिए भूगर्भीय सर्वेक्षण दल को रवाना किया गया है।
स्थानीय निवासी पहले इसे सामान्य ‘बादल फटना’ समझ बैठे, लेकिन जब पानी का रंग गाढ़ा होने लगा, ज़मीन कांपने लगी, और आवाज़ें तेज़ होती गईं—तब उन्हें समझ आ गया कि यह एक जलवायु-जनित तबाही है।
बदलता मानसून: जब हर बूँद विनाशक बन जाए
जलवायु वैज्ञानिकों के अनुसार, अरब सागर और बंगाल की खाड़ी से उठने वाली गर्म हवाएं अब हिमालय से टकरा रही हैं और Cumulonimbus जैसे खतरनाक बादल बना रही हैं, जो 50,000 फीट तक ऊंचे हो सकते हैं।
IMD और स्कायमेट जैसे संस्थानों ने पहले भी चेतावनी दी थी कि उत्तराखंड जैसे राज्यों में बारिश का पैटर्न अब अस्थिर हो चुका है। IPCC की रिपोर्ट बताती है कि पहाड़ों में हर 1°C तापमान वृद्धि पर वर्षा की तीव्रता 15% तक बढ़ जाती है- यह मैदानी इलाकों की तुलना में दुगुनी है।
ग्लेशियर पिघल रहे हैं, पहाड़ कमज़ोर हो रहे हैं
भारत सरकार के DRDO और विज्ञान मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार:
गंगा बेसिन में ग्लेशियर हर साल 15.5 मीटर पीछे हट रहे हैं
ब्रह्मपुत्र बेसिन में यह दर 20.2 मीटर/वर्ष है
इंडस बेसिन में 12.7 मीटर/वर्ष
Wadia Institute के अनुसार, ग्लेशियरों के पिघलने से नीचे की चट्टानें अस्थिर हो जाती हैं। यही वजह है कि इन इलाकों में अचानक झीलें बनती हैं, और फिर टूट जाती हैं—जिससे सैकड़ों गांव खतरे में आ जाते हैं।
विकास बनाम विनाश: उत्तराखंड क्या संभाल सकता है इतना बोझ?
केदारनाथ (2013)
ऋषिगंगा (2021)
धराली (2025)
तीनों त्रासदियों की जड़ में एक ही समस्या है—‘विकास की बिना योजना की दौड़’।
राज्य में हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट, सुरंगें, होटल और सड़कें बना दी गईं बिना भूगर्भीय अध्ययन के। दून यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर Y.P. Sundriyal कहते हैं, “हिमालय एक युवा पर्वत श्रृंखला है, जो अभी भी भूगर्भीय रूप से अधपकी है। इसमें बिना अध्ययन के निर्माण आत्मघाती है।”
climateuttarakhand-himalayan-disaster-2025-dharali-floods-monsoon-climate-change-warning (4)
IIT मुंबई के जलवायु वैज्ञानिक डॉ. सुभीमल घोष और IPCC लेखक डॉ. अंजल प्रकाश मानते हैं:
हमें फ्लडप्लेन ज़ोनिंग लागू करनी होगी
Early Warning Systems (EWS) की नेटवर्किंग बढ़ानी होगी
हर घाटी में Automatic Weather Stations (AWS) लगाने होंगे
पर्वतीय क्षेत्रों में खतरे पर आधारित विकास नीति बनानी होगी
आज भी उत्तराखंड में बहुत-से ऐसे इलाके हैं जहां मौसम पूर्वानुमान की कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं है।
यह सिर्फ एक आपदा नहीं, एक चेतावनी है
जब धाराली में घर बहते हैं, परिवार उजड़ते हैं और बच्चे स्कूल छोड़ते हैं, तो यह सिर्फ एक जलवायु आपदा नहीं होती—यह नीति की विफलता, चेतावनी को अनसुना करना और योजना की कमजोरी का प्रमाण होता है।
हिमालय अब गूंगा नहीं रहा। वो हर साल, हर मानसून, हर तूफान में हमें यह कह रहा है:
“अब मैं बर्दाश्त नहीं करूंगा। अब तुम्हारी बारी है सीखने की।”
अब वक्त है सवाल पूछने का
क्या उत्तराखंड में सभी निर्माण कार्यों के पहले भू-वैज्ञानिक मूल्यांकन अनिवार्य होंगे?
क्या Early Warning Systems को प्राथमिकता मिलेगी?
क्या राज्य आपदा प्रबंधन नीति को जलवायु विज्ञान से जोड़ा जाएगा?
हिमालय हमें रोक नहीं सकता, लेकिन चेतावनी जरूर दे रहा है।
अब सवाल है- क्या हम सुन रहे हैं?
हर बार जब एक घर बहता है, कोई अपनी ज़मीन छोड़ता है, या कोई बच्चा अपने स्कूल का रास्ता खो बैठता है, हम सिर्फ जलवायु परिवर्तन की मार नहीं झेल रहे, हम अपनी योजनात्मक अक्षमता की कीमत चुका रहे हैं।
हिमालय कोई ‘अदृश्य खतरा’ नहीं है। वो हर साल, हर मानसून, हर जलप्रलय में हमें याद दिला रहा है:
“मैं थक चुका हूं सहन करते करते। अब आपकी बारी है सीखने की।”
अब तक क्या हुआ?
6 अगस्त 2025 को जारी उत्तरकाशी जिला प्रशासन की रिपोर्ट के अनुसार, धाराली क्षेत्र में अब तक 19 लोगों की मौत, 3 पुलों और 62 मकानों के क्षतिग्रस्त होने की पुष्टि हुई है। राष्ट्रीय आपदा मोचन बल (NDRF) की दो टीमें मौके पर राहत कार्य में जुटी हैं और मौसम विभाग ने अगले 48 घंटे तक और बारिश की चेतावनी जारी की है। राज्य सरकार ने ₹10 करोड़ की त्वरित राहत राशि जारी की है और नुकसान का आकलन करने के लिए भूगर्भीय सर्वेक्षण दल को रवाना किया गया है।