जन्मदिन विशेष: जब अटलजी को सुनकर भीड़ बौरा गई, पत्रकार तवलीन सिंह का आंखों देखा हाल

Amit | Dec 25, 2018, 07:58 IST
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अटलजी से संबंधित यह किस्सा जानी-मानी पत्रकार तवलीन सिंह की किताब 'दरबार' से लिया गया है। तवलीन सिंह ने अपने कैरियर की शुरुआत उस समय की थी जब देश में इमरजेंसी लगी थी। विपक्ष के लगभग सभी नेता जेल मे थे। तत्कालीन जनसंघ (आज की भाजपा) के नेता अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी को बैंगलूरु से गिरिफ्तार किया गया था। 21 महीने के बाद इमरजेंसी हटी थी। इसके बाद विपक्ष ने एकजुटता से इंदिरा गांधी का मुकाबला करने का फैसला किया। इसी एकजुटता में पहली रैली दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित की गई।

तवलीन सिंह उस समय स्टेट्समैन में कार्यरत थी। विपक्ष की इस रैली को अपनी किताब दरबार में कुछ ऐसे याद करती हैं...

ऑफिस से रामलीला मैदान थोड़ी दूर है। कार से जाने में थोड़ा समय लगता है। ऑफिस से निकलकर हम बस कुछ ही पलों में वहाँ पहुंच गए। उस दिन बूंदा-बूंदा बंद हो गई थी लगभग एक सप्ताह बाद सूरज ने अपना चेहरा दिखाया था। न तो मुझे न मेरे साथियों को लगा कि उस दिन का मौसम जनता को रामलीला मैदान में खींच लाएगा। लेकिन जब हमने भीड़ देखी तो अपनी राय बदल ली। किसी ने बताया कि ये जनसंघ के प्रतिबद्ध समर्थक हैं, जिसके कारण यह भीड़ दिख रही है। हमने देखा कि लोग चारों दिशाओं से रामलीला मैदान में आ रहे थे। दूर-दूर तक लोग दिख रहे थे।

मैंने पहले कभी किसी भी राजनीतिक रैली में इतनी भीड़ नहीं देखी थी। अक्सर ऐसी रैलियों में जलसे जैसा माहौल होता है लेकिन यह रैली इस मायने में अलग थी। छतरी लिए या रैनकोट पहले लोग बहुत आराम से एक दूसरे से बातें कर रहे थे। वे बड़े कायदे से लाइनों में बैठे थे। ऐसा लगता था मानो वे बहुत देर से किसी का इंतजार कर रहे हों।

रैली को लेकर पत्रकारों में एक्साइटमेंट था। प्रेस गैलरी में हम सब गपशप कर रहे थे। इस रैली में कम से कम लोग पहुंचे, इसके लिए इंदिरा गांधी ने दूरदर्शन पर उस समय पर सुपर-डुपर हिट फिल्म 'बॉबी' का प्रसारण करवा दिया। लेकिन 'बॉबी' भी लोगों को रामलीला मैदान आने से न रोक सकी।

शाम के लगभग 6 बजे नेताओं का काफिला आया... वे सब लोग सफेद एम्बेसडर कारों से आए। उनमें से अधिकर बूढ़े हो चुके थे। बोलने का क्रम शुरू हुआ। एक-एक करके माइक पर आते और बोरिंग स्पीच देते। हर कोई जेल में अपने अनुभव बता रहा था। भीड़ भी बोर हो रही थी और अब थकने लगी थी। तभी मैंने हिंदुस्तान टाइम्स के अपने साथी से कहा कि अगर किसी ने बहुत कुछ हटकर नहीं बोला तो लोग यहाँ और टिकने वाले नहीं हैं। रात के 9 बज चुके थे। हालांकि बारिश रुक चुकी थी लेकिन सर्दी थी। तभी उस साथी ने मुस्काराकर जवाब दिया... चिंता मत करो, जब तक अटलजी नहीं बोल लेते, कोई नहीं जाएगा। ये लोग उन्हें ही सुनने आए हैं। ये कहते हुए उसने मंच पर बैठे उस व्यक्ति की ओर इशारा किया जिसके बाल स्टील-ग्रे हो चुके थे।

मैंने कहा... ऐसा क्यों?

उसने जवाब दिया अटलजी भारत के सबसे बेहतरीन वक्ता हैं। क्या तुमने उन्हें नहीं सुना है?

मैंने कहा, मैं जब से पत्रकारिता में आई हूँ तब से वे जेल में थे।

फिर लगभग 9:30 के आसपास अटलजी की बारी आई... जैसे ही बोलने के लिए खड़े हुए। भीड़ उत्साह से भर गई, तमाम लोग खड़े होकर तालियां बजाने लगे। नारे लगे इंदिरा गांधी मुर्दाबाद, अटल बिहारी जिंदाबाद... अटलजी ने दोंनो हाथ जोड़कर भीड़ का अभिवादन स्वीकार किया फिर हवा में दोंनो हाथ लहराकर भीड़ से शांत होने का इशारा किया। फिर एक मंझे हुए अभिनेता की तरह आंखें बंद करते हुए बोले... बाद मुद्दत के मिले हैं दीवाने... अपने चिरपरिचित अंदाज में अटलजी थोड़ा रुके। इतने भर में भीड़ बौरा गई। जब शोर शांत हुआ तो फिर आंखें बंद की और लंबी खामोशी के बाद बोलना शुरू किया... कहने-सुनने को बहुत हैं अफसाने... भीड़ अब उम्मादी/बेकाबू सी हो चुकी थी... खुली हवा में जरा सांस तो ले लें, कब तक रहेगी आज़ादी कौन जाने!



अगले कुछ मिनटों तक मैदान तालियों और नारों से गूंजायमान रहा। अटलजी एक हाथ पोडियम पर रखते और एक हाथ अपने सिर पर रखकर मुस्काते और जब तक वे यह नहीं जान जाते कि भीड़ में उनके शब्दों ने अपना जादू बिखेर दिया है, ऐसे ही खड़े रहते। फिर से अपने दोनों हाथों से भीड़ को शांत हो जाने का इशारा करते थे और लोग शांत भी हो जाते। सर्द रात ढलती जा रही लेकिन भीड़ में किसी को इस बात की चिंता नहीं थी। जब तक अटलजी बोलते रहे, कोई मैदान छोड़कर नहीं गया।

तवलीन सिंह आगे लिखती हैं। मेरे पास अटलजी के उस भाषण की कॉपी नहीं है। लेकिन मैं याद कर सकती हूँ उन्होंने उस दिन क्या कहा था। वे एकदम साधारण हिंदी में बोले थे और लोगों को समझाया था कि क्यों उन्हें इंदिरा गांधी को वोट नहीं देना चाहिए। अटलजी ने कहा था स्वतंत्रता हमारा लोकतांत्रिक अधिकार है, मूलभूत अधिकार है। यह हमें यह अधिकार देता है कि जो लोग हम पर शासन कर रहे हैं, हम उनसे असहमति रख सकें। अगर इन चीजों को हमसे से छीन लिया गया है तो फिर (लोकतंत्र के) कोई मायने नहीं हैं। पिछले दो सालों में यह अधिकार न सिर्फ हमसे छीना गया बल्कि जिसने भी विरोध किया, उसे जेल में डाल दिया गया। वह भारत अब नहीं रहा, जिसे लोग प्यार करते थे। पूरे भारत को एक जेल में बदल दिया है, एक ऐसी जेल जहाँ इंसान को इंसानों जैसा नहीं माना जाता।

उस समय के (कुख्यात) नसबंदी कार्यक्रम के बारे में अटलजी ने कहा था कि बढ़ती हुई जनसंख्या चिंता का विषय है और इसलिए लोग फैमिली प्लानिंग के खिलाफ नहीं हैं बल्कि जिस तरह से ट्रकों में भेड़-बकरियों की भरकर उन्हें कैंपों में लाया गया और जिस तरह जबरन उनकी नसबंदी की गई, वे उस क्रूरता के खिलाफ हैं।

336 पेजों वाली 'दरबार' को Hachette India Local ने प्रकाशित किया है। पेपरबैक संस्करण का अधिकतम मूल्य 399/- है।



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