किसानों की हड़ताल को गम्भीरता से लीजिए

madhya pradesh
हड़ताल मजदूरों को करनी पड़ती थी लेकिन किसान तो मालिक है जमीन का मालिक। उसे क्यों जरूरत पड़ गई लाठी, डंडा और गोली खाने की। किसान का सोचना है कि संविधान सबको बराबर का हक देता है, बैंकों में सब एकसमान है इसलिए यदि उत्तर प्रदेश में कर्जामाफी हुई तो मध्य प्रदेश, पंजाब और महाराष्ट्र में क्यों नहीं। यह सै़द्धान्तिक विषय है और राजनेताओं के धूर्ततापूर्ण व्यवहार को रेखांकित करता है।

राजनेताओं ने खैरात की राजनीति करके बबूल का पेड़ बोया है तो आम कैसे मिलेंगे। प्रशासनिक नियम और आर्थिक अनुशासन पूरे देश के लिए एक समान होगा यह प्रांतीय विषय कैसे हो सकता है। किसानों की हड़ताल की तुलना सरकारी कर्मचारियों, अध्यापकों और डाॅक्टरों की हड़ताल से नहीं हो सकती। उनकी हड़तालें वेतन वृद्धि जैसे विषयों पर होती हैं लेकिन यहां संवैधानिक अधिकरों की बात है कि बैंक एक समान व्यवहार क्यों नहीं करते।

हड़तालों से हजारों या लाखों करोड़ रुपए का नुकसान होता है। 1971-72 में देश की 14 बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद उनमें ना जाने कितनी बार हड़तालें हो चुकी हैं और ना जाने कितने हजार या लाख करोड़ रुपए का नुकसान इस गरीब देश काे हो चुका है। उस समय की प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने सोचा भी न होगा कि उनके निर्णय का देश को इतना बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ेगा। एक दिन कर्जा माफी और खैरात बांटने वाले भी पछताएंगे।

शायद ही कोई ऐसा साल होता हो जब सरकारी कर्मचारी हड़ताल पर ना जाते हों या कलम बंद करके देश को अरबों रुपए का नुकसान ना पहुुंचाते हों। बसें, टैम्पो, ट्रकें और दुकानदार जब हड़ताल करते हैं तो पैसे के साथ ही लोगों को जो असुविधा होती है उसका हिसाब नहीं लगाया जा सकता।

डाॅक्टर को भगवान के बाद दूसरा स्थान दिया जाता है, अध्यापक को गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु गुरु साक्षात महेश्वर: कहा जाता था। आज के अध्यापक मजदूरों की तरह यूनियन बनाकर हड़ताल करेंगे तो मजदूरों वाला सम्मान ही तो मिलेगा। जब अध्यापक को ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहा गया था तो विश्वास मानिए वे अध्यापक हड़ताल नहीं करते थे। कहां ईश्वर से भी बड़ा स्थान था और कहां मजदूरों की कतार में खड़े हो गए।

कानून व्यवस्था के रखवाले पुलिस और पीएसी के लोग हड़तालें कर चुके हैं लेकिन जरा सोचिए यदि सेना के जवान हड़ताल पर चले जाएं तो देश का क्या होगा। देश को गुलाम होने में देर नहीं लगेगी। दूसरे देशों में भी हड़तालें होती हैं, पता नहीं उनका क्या नारा होता है। रोचक बात यह है कि पूंजीवादी देशों में हड़तालें कम होती हैं और साम्यवादी देशों में भी। फिर हमारे यहां इतनी हड़तालें क्यों।

हमारी मिलीजुली अर्थव्यवस्था में ना तो पूंजीवादी उत्पादन पर आग्रह था और ना ही साम्यवादी वितरण पर। हम उत्पादन और वितरण में सामंजस्य नहीं बैठा सके और उत्पादन पिछड़ गया। सच बात यह है कि बिना हड़ताल के हमारी सरकारें मानती भी नहीं। अब देखिए सेना के रिटायर्ड सिपाही कब से कह रहे हैं एक रैंक एक पेंशन परन्तु सरकार है कि सुनती ही नहीं। जो वर्ग बात-बात में हड़ताल करते रहते हैं उनकी मांगें पूरी हो जाती हैं।

क्या कारण है कि प्राइवेट प्रतिष्ठानों में बहुत कम हड़तालें होती हैं। हड़तालों का एक कारण है केंद्र और राज्यों के वेतनमानों में विसंगति और अलग-अलग विभागों में अलग-अलग वेेतनमानों का होना। पहले सैकड़ों की संख्या में वेतनमान थे जो अब काफी घटे हैं।

अच्छा हो यदि केवल एक ही वेतनमान हो और उसी में योग्यता, क्षमता और अनुभव के आधार पर कर्मचारियों की नियुक्ति हो। शिक्षा, उद्योग और व्यापार में लगे लोगों के वेतनमानों में समरूपता हो तभी शिक्षा का शोध उद्योग तक और उद्योग का अनुभव शिक्षा तक पहुंच सकेगा।

किसान यदि हड़ताल करता रहा और दूध सड़कों पर बहाता रहा तो उसके बच्चे तो भूखों मरेंगे ही देश भी भूखा रहेगा। किसानों पर गोली चलाने के बजाय उनकी व्यथा को समझना चाहिए। सारे देश के लिए एक मौद्रिक नीति होनी चाहिए और किसान को सक्षम बनाने के गांधीवादी ग्राम स्वराज और स्वावलम्बन के उपाय खोजने चाहिए। किसान का फांसी लगाना, सड़कों पर दूध बहाना, अनाज न बोना या फूंक देना यह सब अशुभ संकेत है।

ताजा अपडेट के लिए हमारे फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए यहां, ट्विटर हैंडल को फॉलो करने के लिए यहां क्लिक करें।

Tags:
  • madhya pradesh
  • Constitution
  • farmers suicide
  • farmers debt
  • Article

Follow us
Contact
  • Gomti Nagar, Lucknow, Uttar Pradesh 226010
  • neelesh@gaonconnection.com

© 2025 All Rights Reserved.