बद से बदतर प्राइमरी शिक्षा, अब लाइलाज हो चुकी

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बद से बदतर प्राइमरी शिक्षा, अब लाइलाज हो चुकीप्रतीकात्मक फोटो: गाँव कनेक्शन

पराधीन भारत में मैकाले को पता था कि उसे क्लर्क पैदा करने हैं यानी सही अंग्रेजी और हिन्दी लिखने वाले बाबू बनाने हैं। उसे वैज्ञानिक, इंजीनियर अथवा डॉक्टर नहीं बनाने थे। शिक्षा की जांच परख के लिए होते थे डायरेक्टर, डिप्टी डायरेक्टर, इन्स्पेक्टर, डिप्टी इन्स्पेक्टर व सबडिप्टी इन्स्पेक्टर। आजकल जिला इन्स्पेक्टर तो है लेकिन उसके अन्डर में है जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी। अधिकारी नीचे और इन्स्पेक्टर ऊपर। प्राथमिक शिक्षा शीर्षासन कर रही है। अब यह भी नहीं पता कि गाँवों के स्कूल और कॉलेजों के माध्यम से हम किस काम के लिए छात्र तैयार कर रहे। क्या वे क्लर्क भी बन पाएंगे?

आदेश आता है साल में 165 दिन पढ़ाई जरूर होनी चाहिए लेकिन न छुट्टियों के दिन और न विद्यालय खुलने का समय निर्धारित है। शायद फ़रमान निकालना काफी समझा गया। पढ़ाई के लिए इतने दिन बचाते ही नहीं। कभी आदेश देते हैं स्कूल 20 मई को बन्द होंगे तो कभी कह देते हैं पहली जून को बन्द होंगे अब तो पहली अप्रैल को ही बन्द हो जाते हैं। कभी जाड़े की छुट्टियां होगी तो कभी नहीं होंगी। कभी ज्यादा गर्मी के कारण तो कभी ज्यादा सर्दी के कारण स्कूल बन्द रहेंगे। ये सभी आदेश अखबारों में निकलते हैं। कौन महापुरुष है जिसके पैदाइश और निर्वाण के दिनों पर छुट्टी घोषित की जाए यह पक्का नहीं। कभी कांशीराम के जन्म और मृत्यु दोनों दिन अवकाश होगा तो कभी एक भी नहीं। अचानक परशुराम और हजरत अली की याद आ जाती है और उनके जन्मदिनों पर अवकाश होने लगते हैं और नागपंचमी की छुट्टी बन्द हो जाती है, फिर शुरू होती है। महापुरुषों की अदला-बदली तो सनक के अलावा कुछ नहीं। पहले सब मिलाकर 30 छुट्टियां होती थी तो अब 54 कर दी गईं।

कभी तो बीटीसी और सीटी पास पढ़ाएंगे तो कभी केवल बीएड वाले ही प्राइमरी में पढ़ा सकते हैं। टीईटी अनिवार्य है या नहीं इस पर भी समय-समय पर फरमान निकलते रहते है। लाखों की संख्या में अध्यापक रिटायर होते हैं परन्तु उनकी खानापूर्ति शिक्षा मित्रों की नियुक्ति करके पिछले दरवाजे से होती है। इन्हें प्रधानों द्वारा केवल 11 महीने के लिए भर्ती किया गया, बिना प्रशिक्षण और बिना डिग्री। बाद में लाखों शिक्षामित्रों ने संगठन बना लिया प्रशिक्षण की औपचारिकता पूरी करके उन्हें रेगुलर कर दिया।

सरकारी स्कूलों में पांच कक्षाओं का काम कभी दो या तीन कमरों में चलता है। कहीं-कहीं तो पांच कक्षाओं के लिए एक ही अध्यापक उपलब्ध है तो कहीं दो। आदेश होता है कि प्राइवेट स्कूलों में गरीबों को भी भर्ती किया जाए यानी सरकारी स्कूल घटिया हैं यह मान लिया।

प्राइमरी शिक्षा में ग्राम प्रधानों की भूमिका भी प्रशासन की सनक पर निर्भर है। कभी आदेश निकलता है कक्षा पांच की बोर्ड परीक्षा होगी तो कभी परीक्षा ही नहीं होगी और कोई फेल नहीं किया जाएगा। बाद में कहा जाता है फेल होंगे। कुछ साल पहले कहा अध्यापिकाएं बच्चों को घरों से लाएंगी, उन्हें नहलाएंगी और घर पहुंचाएंगी। मिड्डे मील कभी स्कूल में बनेगा तो कभी एजेंसी उपलब्ध कराएगी, कभी दूध या खीर या मेवा देने की बात होती है तो कहीं-कहीं राशन भी नहीं उपलब्ध रहता। पढ़ाई के अलावा सभी बातें होती हैं।

किताबें बच्चों को दी जाती हैं कभी पहले ही पहीने तो कभी साल बीतने को होता है किताबें नहीं मिलती। यदि किताबों के नाम बता दिए जाएं तो अभिभावक खरीद लें। वजीफा तो बन्द ही है यूनीफार्म भी नहीं मिलती और फिर किताबों में किनके नाम पर पाठ होंगे और किनको हटाया जाएगा यह भी सनक के हिसाब से होता है । स्कूलों में बच्चों को दी जाने वाली यूनीफार्म का रंग क्या होगा यह भी शेखचिल्ली की तरह बदलता है। कभी नीला तो कभी खाकी और कभी लाल रंग की पोशाक बांटी जाती है। कभी जातीय आधार पर फीस माफी होगी तो कभी सभी को।

स्कूलों में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के पद स्वीकृत हुए परन्तु उनके रिक्त होने पर नई नियुक्ति नहीं होगी, आउट सोर्सिंग द्वारा काम चलाना होगा। स्कूल साफ रहना चाहिए लेकिन बच्चों से अपने कमरे की भी सफाई ना कराई जाए तो कौन करेगा सफाई? शिक्षानीति के नाम से कुछ भी स्थायी नहीं है।

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