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रवीशपंती: आयकर छूट के बराबर सभी को मिले पैसा

रवीश कुमार | Jan 02, 2017, 20:19 IST
GST
रवीश कुमार

अख़बारों में नोटबंदी को लेकर एक नई सुर्ख़ी छाने लगी है। नरेंद्र मोदी सरकार अपने चौथे बजट में कॉरपोरेट और इनकम टैक्स में कटौती करने वाली है ताकि मंद गति से चल रही अर्थव्यवस्था दौड़ने लगे। लोगों को बुरा न लगे इसलिए यह भी कहा जा रहा है कि नोटबंदी का समर्थन करने वाले छोटे करदाताओं को भी राहत मिलेगी। करदाताओं की संख्या बढ़ने से टैक्स रेट में कमी आएगी।

पहले कहा गया कि जीएसटी के आने से अप्रत्यक्ष कर कम हो जाएंगे, चीज़ें सस्ती हो जाएंगी क्योंकि कर चोरी बंद हो जाएगी। ‘एक देश एक कर’ का नारा लगा। अब उस जीएसटी में भी भांति-भांति के कर हैं और जीएसटी को लेकर दिखाए जाने वाले सपने ग़ायब हैं। वैसे ही जैसे सातवें वेतन आयोग के वक्त न्यूजचैनल की हेडलाइन में कुछ और मिला और असलियत में कुछ और बल्कि बहुत कुछ तो अभी तक मिला ही नहीं है। हालत ये है कि कर्मचारी संगठन हड़ताल पर जाने की धमकी दे रहे हैं। सैनिकों को पूरी तरह सातवें वेतन आयोग का पूरा हिस्सा मिला ही नहीं है। वहां भी विवाद है। सरकार की तरफ से संकेत मिल रहे हैं कि कम समय में शेयर बेचने पर अब पहले से ज़्यादा टैक्स देना होगा। कायदे से सरकार को किसी कमाई में फर्क नहीं करना चाहिए। हर तरह की कमाई पर एक तरह का टैक्स होना चाहिए। भारत की आबादी कई दिनों से 120 करोड़ है। एक अनुमान के मुताबिक़ एक करोड़ बीस लाख लोग ही आयकर देते हैं। आबादी का बड़ा हिस्सा टैक्स देने के लायक ही नहीं है यह कहना सही होगा। 20-26 करोड़ लोग ग़रीबी रेखा के नीचे बताये जाते हैं तो ज़ाहिर है ये आयकर नहीं देंगे। अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी ने कुछ साल पहले कहा था कि सत्तर फीसदी आबादी बीस रुपया रोज़ कमाती है। जब साठ से सत्तर फीसदी टैक्स देने लायक नहीं है तो फिर हम हल्ला क्यों मचा रहे हैं कि भारत में लोग टैक्स नहीं देते।

अब बची तीस फीसदी अाबादी जो बीस रुपये से ज़्यादा कमाती है। इसमें से भी बड़ा हिस्सा न्यूनतम मज़दूरी या उससे कम कमाता है। बमुश्किल से ये तबका न्यूनतम जीवन स्तर के लायक ख़र्चे जुटा पाता है इसलिए वित्त मंत्री कभी ढाई लाख तो कभी चार लाख सालाना आय वालों को टैक्स से बाहर कर देते हैं। आपने कई बार सुना होगा कि भारत में एक फीसदी आबादी के पास देश की कुल संपत्ति का साठ फीसदी हिस्सा है। थोड़ा भी दिमाग़ लगाएंगे तो यह जान जाएंगे कि जिस एक परसेंट के पास देश का साठ फीसदी माल है वही ज़्यादा टैक्स देगा या जिसके पास कुछ नहीं है वो देगा? लेकिन उसे किस आधार पर राहत देने की योजना बन रही है? एक बात और। सारा ज़ोर टैक्स देने और वसूलने पर है लेकिन उससे जनता के लिए सामाजिक सुरक्षा का कौन सा बेहतरीन सिस्टम बनेगा इस पर कोई बात नहीं करता।

क्या नोटबंदी के बाद नए करदाताओं की संख्या बढ़ने वाली है लेकिन क्या बढ़ी हुई संख्या हासिल करने का रास्ता नोटबंदी ही थी? ज़रूर टैक्स न देने वाले लोग बड़ी संख्या में है मगर एक अरब से अधिक की आबादी वाले देश में नोटबंदी से पचास साठ लाख नए करदाता मिल ही गए तो कौन सी बड़ी बात है। ये सब तो आयकर विभाग अपनी सामान्य गतिविधियों के दम पर हासिल कर सकता है। कम से कम दस बीस करोड़ आयकरदाता तो पकड़े ही जाने चाहिए। भारत में जितने लोग टैक्स देते हैं उससे ज़्यादा लोग टैक्स रिटर्न भरते हैं मगर टैक्स नहीं देते। जब रिटर्न भरने वालों की हैसियत टैक्स देने की नहीं है तो किस आंकड़े के आधार पर हम आसानी से मान लेते हैं कि करोड़ों की संख्या में लोग टैक्स नहीं देते हैं। दरअसल जो नहीं देते हैं वो भी उसी एक फीसदी में आते हैं जिनके पास देश की कुल संपत्ति का साठ फीसदी हिस्सा है। क्या भारत सरकार के पास इस एक फीसदी को साधने के लिए कोई और तरीका नहीं था? ज़रूरी था कि पूरे देश को लाइन में खड़ा करना?

सरकार मानती है कि पूरा देश नोटबंदी का समर्थन कर रहा है। फिर अकेले कॉरपोरेट टैक्स और इनकम टैक्स में छूट की बात क्यों हो रही है? क्या पूरा देश कॉरपोरेट टैक्स और इनकम टैक्स देता है? इसके दायरे में आता है? इसकी हेडलाइन क्यों नहीं है कि ग़रीबों के खाते में सीधा कितना जाएगा? मिडिल क्लास को तत्काल नगद और बाक़ी क्लास को पंचवर्षीय योजना,ये तो नाइंसाफी होगी। मेरी राय में किसी आयकर दाता को साल में दस हज़ार की छूट मिलती है तो इतनी ही रक़म किसी ग़रीब के खाते में भी जानी चाहिए। ग़रीब, महिलाएँ, किसान और मज़दूरों के खाते में आयकर छूट के बराबर का हिस्सा जाना चाहिए। ये बेईमानी नहीं होनी चाहिए क्योंकि नोटबंदी की तकलीफ़ सबने उठाई है। हमारे विरोधी दलों में नैतिक बल और सत्ता पक्ष की तरह दुस्साहस होता तो आम लोगों की बात कर पाते। वो यही नापते रह जायेंगे कि ग़रीब को ख़ुश करने में मिडिल क्लास न नाराज़ हो जाए। बकायदा आंदोलन चलना चाहिए कि जितना टैक्स छूट उतना ही बाकी जनता के खाते में सीधा ट्रांसफ़र। सबको मिलेगा बराबर-बराबर।

हो सकता है कि सरकार शिक्षा स्वास्थ्य के बजट में मामूली वृद्धि कर दे। किसी मद में तीन हज़ार करोड़ डाल दे लेकिन इस रक़म को हम उस सेक्टर की ज़रूरत के अनुपात में देखेंगे या सिर्फ तीन हज़ार करोड़ सुनकर नाचने लगेंगे। सरकार कभी नहीं बताएगी कि इस बजट का एक हिस्सा नए पुराने स्कूलों को चलाने के लिए पर्याप्त संख्या में मास्टरों की भर्ती पर भी ख़र्च होगा। रोज़गार सृजन के सही आँकड़े वो अपनी तरफ़ से कभी नहीं देती है। कोरपोरेट कितनी संख्या और किस प्रकृति की नौकरी देंगे? लोग हेडलाइन पढ़कर इस भ्रम में जीने लग जाते हैं कि सब हो गया। स्वर्ण युग आ गया।

इस नोटबंदी ने फिर से साबित किया है कि ग़रीब की आवाज़ की कोई कीमत नहीं है। सिर्फ उन नेताओं की आवाज़ की कीमत है जो ख़ुद को ग़रीब बताते हैं और ग़रीबी दूर करने का दावा करते हैं। दावा करने के बाद किसी अमीर के जहाज़ से ग़रीबी दूर करने की झाँसा-फैक्ट्री रायसीना हिल्स चले जाते हैं। शहर के शहर आधी से अधिक आबादी झुग्गियों में नारकीय जीवन जी रही है। कांग्रेस और भाजपाई राज्यों के शहर भी। वहाँ कोई सुविधा नहीं है। बीस साल नेताओं ने अवैध को वैध और वैध को स्वर्ग करने में ही निकाल दिये। वहाँ सुविधा के नाम पर असुविधा ही पहुँचती रही है। मिडिल क्लास किसानों के प्रति कोई हमदर्दी नहीं रखता है। जय जवान जय किसान के नाम पर उसका आज तक भावनात्मक दोहन होता है। किसानों की महीनों की मेहनत और फ़सल बर्बाद हो गई, समाज और राजनीति ने उफ्फ तक नहीं किया। किसी ने उनके नुक़सान की भरपाई की बात नहीं की। इसके लिए किसान भी ख़ुद ज़िम्मेदार हैं। अब अगर दस हज़ार का क़र्ज़ा माफ भी हो जाएगा तो क्या इससे उनके एक लाख से लेकर चार लाख के नुक़सान की भरपाई हो जाएगी?

मज़दूर ही नहीं मीडिया हाउस से लेकर प्राइवेट स्कूल कालेज के पत्रकार और शिक्षक क्या वाक़ई उतना वेतन लेने लगेंगे जितने पर साइन करते हैं? क्या वाक़ई ऐसा होने लगा है या होगा? इनकी सच्चाई इन्हीं के साथ दफ़न हो जाएगी। हम कभी नहीं जान पायेंगे। भाजपा से लेकर कांग्रेसी नेताओं के ही इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज हैं। वहां शिक्षकों को साइन पचास हज़ार के आगे कराया जाता है और दिया जाता है तीस हज़ार। वे ख़ुद ही बताते हैं। सरकार बताये कि उसके किस कानून से ऐसा होना असंभव हो जाएगा और कैसे। जब शिक्षकों का यह हाल है तो मज़दूरों का क्या होगा। जो जनता नोटबंदी के बाद भी दो सौ रुपए लेकर रैलियों में ग़रीबी दूर करने का फर्ज़ी भाषण सुनने जा रही है, वही बेहतर बता सकती है कि पैसे लेकर ख़ुश हुई या उसके होश उड़ गए!

(लेखक एनडीटीवी के सीनियर एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

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