मजदूराें को उदाहरण पेश करना होगा

गाँव कनेक्शन | Mar 21, 2017, 11:36 IST

मारूति सुजूकी इंडिया लिमिटेड और उसके मजदूरों के बीच विवाद को लेकर चल रहे अदालती मामले में इन मजदूरों की काम करने की बदतर स्थितियां कहीं खो गई हैं। 2012 में दोनों पक्षों में हुए संघर्ष में कंपनी के एक महाप्रबंधक की मौत हो गई थी। 10 मार्च को गुरुग्राम के जिला न्यायालय ने 117 मजदूरों काे आरोपों से बरी कर दिया और 31 को विभिन्न आरोपों का दोषी पाया। इन्हें अदालत ने हत्या, हत्या की कोशिश, हिंसा फैलाने और निजी संपत्ति को नष्ट करने का दोषी करार दिया। सजा पाने वालों में कंपनी के उस यूनियन के सभी लोग शामिल हैं जिसने उस दौर में मजदूरों की अगुवाई की थी।

दोनों पक्षों के बीच संघर्ष 2011 में तब शुरू हुआ था जब मजदूरों ने यूनियन बनाने की कोशिश की थी। इसका कंपनी प्रबंधन ने काफी विरोध किया। अपनी मांग की खातिर मजूदर तीन बार हड़ताल पर गए और उन्होंने काम करने की बुरी परिस्थितियों का मसला भी उठाया। प्रबंधन ने मांग की थी कि यूनियन पहले कल्याण और शिकायत समिति का गठन करे तब जाकर कोई बातचीत शुरू होगी। अभियान की अगुवाई कर रहे लोगों के खिलाफ स्थानीय पुलिस थानों में झूठे मुकदमे दर्ज कराए गए। कंपनी हर 50 सेकेंड में एक नई कार बनाती है। लेकिन इसके बावजूद स्थाई मजदूरों के मुकाबले ठेका वाले मजदूरों को बहुत कम मेहनताना मिल रहा था। उत्पादन लक्ष्यों को हासिल करने के चक्कर में मजदूरों की मानसिक और शारीरिक स्थिति बुरी हो गई थी। सरकार ने निष्पक्षता निभाना तो दूर बल्कि वह कंपनी प्रबंधन के साथ खड़ी दिखी। खास तौर पर स्थानीय पुलिस।

जिला अदालत में चली सुनवाई के दौरान मजदूरों के वकीलों ने बार-बार इस तथ्य को अदालत के सामने रखा कि 18 जुलाई, 2012 की घटना को लेकर आरोपियों के पहचान की प्रक्रिया दोषपूर्ण रही, पुलिस द्वारा सबूतों से छेड़छाड़ की गई और जांच अधिकारी ने पुख्ता सबूतों के बजाय जुबानी गवाही पर अधिक यकीन किया। जेल में बंद मजदूरों की जमानत याचिका खारिज करते हुए पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने टिप्पणी की कि मजदूरों के विद्रोह की वजह से विदेशी निवेशक देश में निवेश करने से कतराएंगे। कंपनी के चेयरमैन ने अपने बयान में कहा कि मजदूर कोई वाजिब मांग नहीं कर रहे थे और उनके साथ कोई समझौता नहीं होगा। मारुति के मजदूरों का संघर्ष इसलिए भी खास है क्योंकि देश में इस तरह के अभियान अभी अपने निम्नतम स्तर पर हैं। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि पिछली सरकारों के मुकाबले मौजूदा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार देसी-विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए श्रम सुधार करना चाहती है।

देश के बड़े कारोबारी अक्सर यह कहते हैं कि श्रम कानूनों की वजह से देश का विकास बाधित हो रहा है। वे इस बात की ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं कि इन कानूनों को बार-बार तोड़ा जा रहा है और ठेका की मजदूरी का चलन बहुत अधिक बढ़ गया है। कारोबारी वर्ग और सरकार के रवैये को देखते हुए मारुति के मजदूरों के इस संघर्ष को गंभीरता से लिया जाना चाहिए।

मजदूरों द्वारा वाजिब मजदूरी और काम करने के उचित घंटों की मांग को, निवेश को हतोत्साहित करने के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन फिर भी श्रम कानूनों में सुधार के नाम पर जो भी बदलाव होते हैं, वे एकतरफा होते हैं और मजदूरों के अधिकारों को कम करते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि कोई बदलाव नहीं होना चाहिए। लेकिन बुरी कामकाजी परिस्थितियों और अनुचित मजदूरी पाने वालों पर हर चीज का बोझ नहीं डाला जाना चाहिए। ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2016 में मारुति में 10,626 ठेके के मजदूर थे। 2013-14 में यह संख्या 6,578 थी। इन मसलों पर भारत के मजदूर संगठनों को काम करना चाहिए।

जिन 117 मजदूरों को आरोपों से बरी किया गया है उनके साथ हुआ अन्याय एक अलग इतिहास है। क्योंकि उन्हें चार वर्षों तक जेल में बंद रखा गया। उनके खिलाफ किसी आरोप का साबित नहीं होना मजदूरों के इस आरोप को साबित करता है कि उनके खिलाफ झूठे मुकदमे दर्ज किए गए थे। 2011 से लेकर अब तक और खास तौर पर पिछले चार वर्षों में मारुति मजदूर संगठन के मजदूरों ने न सिर्फ ओखला-फरीदाबाद-नोएडा-गुड़गांव-मानेसर औद्योगिक क्षेत्र के मजदूरों से संबंध साधा है बल्कि उनका समर्थन आस पास के गाँवों, सिविल सोसाइटी के लोगों और मीडिया में काम कर रहे लोगों ने भी किया है।

उनका यह संघर्ष एक उदाहरण पेश करता है। यह दिखाता है कि मजदूरों की एकजुटता और साफ दृष्टि से कैसे दूसरे समूहों से जुड़ा जा सकता है। आने वाले दिनों में संभव है कि मजदूरों की हकमारी के लिए सरकार और कारोबारी समूह एक हो जाएं। ऐसे में मारुति मजदूर संगठन ने भविष्य के लिए एक प्रभावी उदाहरण पेश किया है।

(यह लेख इकॉनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली से लिया गया है)

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