किसानों की कीमत पर महंगाई रोकने के मायने?

Suvigya Jain | Oct 05, 2019, 12:09 IST

आज तो नहीं लेकिन अगर इतिहास उठाकर देखें तो जब कभी महंगाई की रफ्तार बढ़ती है, शहरों में मजदूरी बढ़ती ही रही है। पिछले 45 साल में शहरों में मजदूरों की दिहाड़ी सौ गुनी यूं ही नहीं बढ़ी। मैक्रो इकोनॉमिक्स के विशेषज्ञों को गौर करना चाहिए कि गेहूं के दाम 45 साल में सिर्फ तीस गुने ही बढ़े। किसान ही भारी घाटे में रहा है।

कई कृषि उत्पादों का उत्पादन कम हुआ है तो वे महंगे होंगे। खाद्य महंगाई बढ़ेगी। महंगाई से सरकारों को बड़ा डर लगता है तो तरह-तरह की कोशिशें होंगी कि साग-सब्जियां, दाल और तिलहन के दाम न बढ़ पाएं। यानी एक तो किसान अति वर्षा से तबाह हुए ऊपर से उनके सीमित उत्पादन के दाम बढ़ने से रोका जाएगा। यानी क्या सिर्फ किसानो की कीमत पर खाद्य महंगाई को काबू में रखना जायज है?

मांग और आपूर्तिं का नियम एक समयसिद्ध नियम है। निर्विवाद है कि बाजार में जिस चीज़ की कमी होती है उसके दाम बढ़ते हैं। कृषि उत्पाद के अलावा कोई भी चीज़ हो उसकी आपूर्ति घटने पर आमतौर पर सरकारें उन चीज़ के दाम घटाने में इतनी मुस्तैदी नहीं दिखातीं।

आजकल सब कुछ बाज़ार के हवाले होता है

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आजकल सब कुछ बाजार के हवाले होता है और आखिर महंगाई का वह बोझ उपभोक्ताओं पर ही पड़ता है, लेकिन कृषि उत्पाद के जरा से भी महंगे होने पर क्या तो उद्योग व्यापार और क्या तो सरकारें, एकदम बेचैन दिखने लगती हैं।

उद्योग व्यापार के लिए मजदूर और कम वेतन वाले कर्मचारी महत्वपूर्ण हैं। मजदूर कर्मचारियों पर महंगाई के कारण आर्थिक बोझ पड़ता है तो उनमें असंतोष बढ़ता है और वे ज्यादा मजदूरी या तनख्वाह मांगते हैं। उद्योग व्यापार का मुख्य मुनाफा ही सस्ती मजदूरी पर निर्भर होता है, तो उद्योग व्यापार की चिंता समझी जा सकती है। लेकिन सरकारें अगर कृषि उत्पाद के दाम बढ़ने से ज्यादा बेचैन होती हों तो इसे जरूर देखा जाना चाहिए।

किसी भी लोकतांत्रिक सरकार का तर्क होता है कि उसे आम आदमी का हित देखना है। अच्छी बात है। लोकतंत्र का मुख्य लक्ष्य ही नागरिकों के बीच सुख-दु:ख का समान वितरण है। महंगाई से आम आदमी का ही दु:ख ज्यादा बढ़ता है तो किताबों में लिखा है कि लोकतांत्रिक सरकारों को महंगाई काबू में रखना चाहिए ताकि आम आदमी परेशान न हो।

कोई निश्चित परिभाषा तो आज तक नहीं बनी

यहां गौर किया जाना चाहिए कि ये आदमी होते कौन लोग हैं? हालांकि आम आदमी की कोई निश्चित परिभाषा तो आज तक नहीं बनी लेकिन इतना जरूर तय सा मान लिया गया है कि गरीब लोग आम आदमी होते हैं। भारत जैसी लोकतांत्रिक अर्थव्यवस्थाओं में आधे से ज्यादा लोग गरीब ही होते हैं। बाकी बचे लोगों में उच्च मध्य वर्ग और उच्च वर्ग वर्गीकृत किए जाते हैं। अपने देश की आर्थिकी में गरीब और मध्य वर्ग ही अधिसंख्य हैं, तो अपनी सुविधा के लिए हम उन्हीं को आम आदमी का मानक रूप मानते हैं।

पिछले चार साल से क्या हम लगातार किसानों और गाँव वालों की मुफलिसी की ही चर्चा नहीं कर रहे हैं? और क्या अपने अधिसंख्य होने के आधार पर किसान को ही आम आदमी नहीं माना जाना चाहिए?

गाँव और किसान की ही चिंता करना नैतिक कहा जाएगा

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अगर आम आदमी की चिंता करना हो तो सबसे पहले गाँव और किसान की ही चिंता करना नैतिक कहा जाएगा। बेशक शहरी गरीब भी महंगाई की मार नहीं झेल पाता लेकिन उसके संगठित होने के कारण उसके पास अपनी आमदनी बढ़ाने के कई तरीके हो सकते हैं। वह खुले बाजार की व्यवस्था में महंगाई के मुताबिक मजदूरी बढ़ाने की मांग कर सकता है। और करता भी है और उसे थोड़ा बहुत मिलता भी आया है।

आज तो नहीं लेकिन अगर इतिहास उठाकर देखें तो जब कभी महंगाई की रफ्तार बढ़ती है, शहरों में मजदूरी बढ़ती ही रही है। पिछले 45 साल में शहरों में मजदूरों की दिहाड़ी सौ गुनी यूं ही नहीं बढ़ी। मैक्रो इकोनॉमिक्स के विशेषज्ञों को गौर करना चाहिए कि गेहूं के दाम 45 साल में सिर्फ तीस गुने ही बढ़े। किसान ही भारी घाटे में रहा है।

एक और अर्थशास्त्रीय नियम है कि लगातार आर्थिक विकास के कारण महंगाई को भी लगातार बढ़ना पड़ता है और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में इसे अच्छा भी माना जाता है। बस देखना यही पड़ता है कि महंगाई की यह रफ्तार जरूरत से ज्यादा न बढ़ जाए। क्या आज वह स्थिति है?

आर्थिक सुस्ती को महंगाई से कई गुना माना जाता ख़राब

आज देश में औद्योगिक महंगाई नहीं बढ़ रही है। अच्छी बात है। लेकिन इसलिए नहीं बढ़ रही है क्योंकि आर्थिक सुस्ती है। आर्थिक सुस्ती को खराब माना जाता है। आर्थिक सुस्ती को महंगाई से कई गुना खराब माना जाता है, तो मंदी से उपजी सस्ताई भी खराब मानी जाएगी।

यह संभावना इसलिए भी सुखद मानी जनी जाहिए थी क्योंकि किसान उस हालत में कि वे अपने उत्पाद की लागत तक नहीं निकाल पा रहे हैं। वे किसानी छोड़ने की बात सोचने लगे हैं। लगे हाथ इस बात को एक बार फिर दोहरा लेना चाहिए कि खेती-किसानी से जुड़ी आबादी, देश की कुल आबादी में आधी से भी ज्यादा है।

किसी को भी अड़चन नहीं आनी चाहिए

यानी सांख्यिकी आधार पर किसान को आम आदमी मान लेने में किसी को भी अड़चन नहीं आनी चाहिए। कम से कम लोकतांत्रिक सरकारों को तो यह मानने में बिल्कुल भी संकोच नहीं होना चाहिए। ऐसे में आम आदमी के हित को सबसे ऊपर रखने का दावा करने वाली व्यवस्था में अगर किसान तक कुछ धन पहुंचने के आसार बन रहे हैं तो इससे इतनी बेचैनी क्यों है?

बात सीधी सी है, देश के बहुत सारे आम आदमियों की फसल ज्यादा बारिश से खराब हो गई है। इससे उनकी उपज कम होगी। अर्थशास्त्रीय नियम के मुताबिक उनकी कम हुई फसल का दाम बढ़कर मिलना चाहिए। उनकी मेहनत और मुफलिसी देखते हुए मानवीय आधार पर भी यही नैतिक है। लेकिन चारों तरफ से कवायद यह दिख रही है कि बारिश के मारे किसानों के उत्पाद के दाम न बढ़ने दिए जाएं। विद्वानों को सोच-विचार करके बताना चाहिए कि ऐसा किया जाना कितना सही है?

(लेखिका प्रबंधन प्रौद्योगिकी की विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रनोर हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)

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