सरकार, गाँव को कब मिलेगा राहत पैकेज?

उद्योग और व्यापार के किसी भी क्षेत्र में इस तरह की गिरावट पर जो चिंता व्यापत है वैसी ही चिंता कृषि क्षेत्र को लेकर क्यों नहीं जताई जाती। और क्या कृषि विकास अर्थव्यवस्था के उठान में अपनी भूमिका नहीं निभा सकता।

Suvigya JainSuvigya Jain   20 Sep 2019 12:28 PM GMT

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सरकार, गाँव को कब मिलेगा राहत पैकेज?

देश की अर्थव्यव्यस्था संकट में है। पिछली पांच तिमाहियों से आर्थिक वृद्धि दर घटान पर है। इससे बेरोज़गारी और तेजी से बढ़ रही है।

अर्थव्यवस्था में उठान के लिए सरकार को हड़बड़ी में उद्योग व्यापार के कई क्षेत्रों में एकमुश्त मदद के ऐलान करने पड़ रहे हैं, लेकिन अब तक सरकार का ध्यान कृषि क्षेत्र पर नहीं गया है। क्या वाकई कृषि क्षेत्र का इतना महत्व भी नहीं बचा कि उसे आर्थिक वृद्धि यानी सकल घरेलू उत्पाद का योगदानकर्ता तक न माना जाए?

सकल घरेलू उत्पाद का आंकड़ा दो प्रमुख क्षेत्रों के कुल उत्पाद को जोड़कर बनता रहा है। ये क्षेत्र हैं उद्योग और कृषि। कुछ दशकों से उद्योग को दो भागों यानी विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) और सेवा क्षेत्रों (सर्विसेस) में बांटा जाने लगा। सो कह सकते हैं कि मुख्य तीन क्षेत्रों के कुल उत्पाद को ही जीडीपी कहते हैं।

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पांच दशक पहले जीडीपी का सबसे बड़ा योगदानकर्ता कृषि क्षेत्र था। वर्ष 1950 में जीडीपी में कृषि का योगदान 56.5 फीसदी था, लेकिन वक़्त के साथ औद्योगीकरण ज्यादा होने से जीडीपी में उद्योग का योगदान बढ़ता गया और कृषि का योगदान घटता गया। इस समय स्थिति यह है कि जीडीपी में विनिर्माण का हिस्सा 29.7 फीसदी, सेवा का 54.4 फीसदी और कृषि का हिस्सा सिर्फ 15 दशमलव आठ फीसदी बचा है।

कृषि का योगदान कम दिखने का एक कारण

जीडीपी का आकलन इन तीनों क्षेत्रों के उत्पादित माल के दाम से बनता है और ये एक उजागर हकीकत है कि कृषि उत्पाद का दाम उस हिसाब से नहीं बढ़ा जिस हिसाब से उद्योग के माल के दाम बढ़े। उसी अनुपात में कृषि उत्पाद के दाम भी बढ़ते तो कृषि क्षेत्र की इतनी दुर्गति दिखाई न दे रही होती। और न ही जीडीपी में कृषि क्षेत्र की भूमिका इतनी छोटी दिखाई पड़ती कि इस मंदी से निपटने के लिए कृषि क्षेत्र को आर्थिक प्रोत्साहन देने के बारे में सोचा तक न जा रहा होता।

उद्योग के लिए क्या-क्या प्रयास कर चुकी है सरकार

सरकार ने पिछले एक महीने में अर्थव्यवस्था के उठान के लिए जिन चार पैकेज का ऐलान किया है उसमें कुछ हफ्ते पहले मुख्य रूप से रियल एस्टेट और ऑटोमोबाइल क्षेत्र को मदद, बैंकों को पूँजी, निर्यात प्रोत्साहन जैसे उपाय किये गए हैं। आखिरी ऐलान कुछ घंटे पहले ही हुआ है जिसमें उद्योग व्यापार पर लगने वाले कॉरपोरेट टैक्स में भारी कटौती कर दी गई।

एक अकेले इस फैसले से ही सरकारी खजाने पर हर साल एक लाख 45 हजार करोड़ का बोझ पड़ेगा, हो सकता है कि देश में छाते जा रहे मंदी के बादलों को छांटने के लिए सरकारी की तरफ से यह प्रोत्साहन जरूरी हो लेकिन क्या कृषि क्षेत्र को भी ऐसी मदद की जरूरत नहीं है। ये तो ऐसा क्षेत्र है जिसमें देश के कुल कार्यबल की 50 फीसदी से ज्यादा आबादी लगी है और इस समय सबसे ज्यादा बदहाल है।

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खेती में कोई कम पूंजी नहीं लगी है

खेती की ज़मीन के रूप में स्थिर पूंजी और फसल उगाने में लगने वाली पूंजी दूसरे क्षेत्रों की पूंजी से कम नहीं है। ये अलग बात है कि खेती की जमीन को पूंजी मानने में बहसबाजी होने लगी है। किसान के खुद के श्रम के आकलन को लेकर भी विवाद होने लगे हैं।

ये बहसें और विवाद खत्म हों तो कृषि उत्पाद की कुल कीमत आश्चर्यजनक रूप से बढ़ी नज़र आ सकती है। ये ही बात स्वामीनाथन रिपोर्ट में बताई जा चुकी है। यानी श्रमबल के लिहाज़ से और कृषि उत्पाद के महत्व के लिहाज से और खासतौर पर मंदी के ऐसे कठिन समय में कृषि की ऐसी अनदेखी करना समझदारी नहीं है।

कृषि विकास दर का घटना

जीडीपी के मौजूदा आकलन में कृषि का जितना भी हिस्सा है वह साल दर साल घट रहा है। यानी जीडीपी को घटाने में एक कारक कृषि क्षेत्र में विकास की रफतार घटना भी है। आंकड़े बताते हैं कि पिछले साल की पहली तिमाही में कृषि विकास दर 5.1 फीसदी थी जो इस साल की पहली तिमाही में घटकर 2 फीसदी रह गई है। उद्योग और व्यापार के किसी भी क्षेत्र में इस तरह की गिरावट पर जो चिंता व्यापत है वैसी ही चिंता कृषि क्षेत्र को लेकर क्यों नहीं जताई जाती। और क्या कृषि विकास अर्थव्यवस्था के उठान में अपनी भूमिका नहीं निभा सकता।

अर्थव्यवस्था में गाँव की एक और बड़ी भूमिका

थोड़ी देर के लिए अगर यह तर्क सही मान लिया जाए कि उद्योग व्यापार ही देश की अर्थव्यवस्था का बड़ा निर्धारक है तब भी किसान या गाँव की भूमिका कम नहीं होती।

पिछले महीने की ही घटना है। इंडिया एफएमसीजी ग्रोथ स्नैपशॉट नाम से नीलसन इंडिया की रिपोर्ट आई थी। पता चला कि गाँव में रोजमर्रा के सामान की खपत घट चली है और रोजमर्रा का सामान बनाने वाली कंपनियों के कारोबार में मंदी आ गई है।

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कारण यह कि एफएमसीजी क्षेत्र में बना माल शहरों में जितना खपता है उससे डेढ़ गुनी खपत गाँवों में होती है। दरअसल देश की आधी से ज्यादा आबादी गाँव की ही है। यानी वह सबसे बड़ी उपभोक्ता है। यानी किसान या गाँव या कृषि क्षेत्र की बदहाली सीधे-सीधे कॉरपोरेट से जुड़ी ही है। कॉरपोरेट को टैक्स में छूट देकर उसे कितनी भी राहत पहुंचा लें आखिर में बात वहीं जाकर अटकेगी कि उसके माल बिकने की सुविधा नहीं बनी। यह सुविधा तभी बनेगी जब गाँव या किसान की जेब में पैसा हो। उसकी जेब में पैसा कृषि विकास दर बढ़ने से ही पहुंचेगा।

तरीका भी सोचना पड़ेगा

सैद्धांतिक तौर पर ग्रामीण भारत तक पैसा पहुंचाने की बात तय भी हो जाए तो उसका तरीका भी सोचना पड़ेगा। फिलहाल कोई नया उपाय नज़र नहीं आ रहा है। हालांकि अगर गौर करें तो पाएंगे कि सरकार ने अभी तक जो पैकेज दिए हैं उनमें बैंकिंग ऑटोमोबाइल, रियल एस्टेट, निर्यात जैसे क्षेत्र हैं। और अब तो पूरे के पूरे कॉरपोरेट सेक्टर का टैक्स भी घटा दिया गया।

ये ऐसे क्षेत्र हैं जिनके उद्यमियों के असरदार संगठन हैं। वे सरकार तक अपनी बात पहुंचाने में कामयाब रहे। जबकि किसानों के पास राष्ट्रीय स्तर का वैसा संगठन नहीं है। ऐसा कोई संगठन नज़र नहीं आता जो टैक्सटाइल या चाय उद्योग के संगठनों की तरह अखबारों में अपनी बदहाली का विज्ञापन छपवा सके। किसानों का कोई ऐसा संगठन भी सक्रिय नहीं दिखता जो यह बता सके कि देश की अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र की कितनी बड़ी भूमिका है।

(लेखिका प्रबंधन प्रौद्योगिकी की विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रनोर हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)

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