मोदी सरकार खराब, मगर किससे? निर्णय कौन करेगा ?

Dr SB Misra | Nov 07, 2017, 17:51 IST



राहुल गांधी वर्तमान सरकार को बेहद खराब मानते हैं और इसे उखाड़ फेंकने का प्रयास कर रहे हैं। प्रधानमंत्री इससे विचलित नहीं दिखते। लेकिन हमें याद है सत्तर के दशक में राजनैतिक सन्यास से बाहर आकर वयोवृद्ध जयप्रकाश नारायण ने इन्दिरा सररकार को उखाड़ फेंकने का आवाहन किया था और तब के प्रधानमंत्री ने उन्हें जेल में डाल दिया था। चूंकि आरएसएस ने जेपी का साथ दिया था इसलिए उस पर प्रतिबंध लगा दिया था। नए लोग तब पैदा नहीं हुए थे इसलिए वे तत्कालीन सहिष्णुता की तुलना वर्तमान से नहीं कर पाएंगे लेकिन तमगा लौटाने वाले बुद्धिजीवियों में से कुछ को तो याद होगा जब सम्पादकीयों का सम्पादन डीएम करता था।

पचास के दशक में नेहरू प्रधानमंत्री थे और उनके दामाद फीरोज़ गांधी रायबरेली से सांसद। फीरोज़ गांधी ने उस सरकार के भ्रष्टाचार को डाल्मियां कम्पनी के साथ ही मूंधड़ा कांड और जीप स्कैंडल का भ्रष्टाचार भी उजागर किया था। नेहरू के वित्तमंत्री टीटी कृष्णमाचारी को और जीप घोटाला तथा चीन के हाथों भारत की पराजय के बाद रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन को मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देना पड़ा था। उन्हीं दिनों नेहरू जब चाउएनलाइ के साथ ‘‘हिन्दी चीनी भाई भाई‘‘ के नारे लगा रहे थे तो जनरल करियप्पा ने याद दिलाया था सरहदी क्षेत्रों में रसद पहुंचाने के लिए सड़कों की जरूरत है। नेहरू का जवाब क्या था वह नहीं दुहराना चाहता लेकिन भारत 1962 का अपमान कभी नहीं भूलेगा।

उन्नीस सौ इकहत्तर में इन्दिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं और किसी नागरवाला ने स्टेट बैंक के चीफ़ कैशियर मल्होत्रा को इन्दिरा गांधी की आवाज में फोन करके 60 लाख रुपया बिना किसी लिखा पढ़ी के निकाले। मल्होत्रा ने रसीद बाद में लेने की शर्त पर रुपया दे दिया, किसी ने यह नहीं पूछा यह रुपया किसका था और क्यों निकाला गया था। गिरफ्तारी के बाद नागरवाला इस रहस्य पर से पर्दा उठाने वाले थे लेकिन जेल में ही उनकी मृत्यु हो गई और बाद में मल्होत्रा की एक ट्रक दुर्घटना में मृत्यु हो गई। अस्सी के दशक में प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने बड़ी बेबाकी से कहा था सरकार एक रुपया जनता को भेजती है उसे केवल 14 पैसा मिलता है। तथाकथित बोफार्स घोटाला भी उसी सरकार के खाते में है। ऐसे चलती थीं सरकारें।





प्रजातंत्र का गला तो इन्दिरा गांधी ने बहुत बाद में घोंटा लेकिन इसकी शुरुआत स्वयं नेहरू ने कर दी थी जब प्रजातांत्रिक ढंग से चुनी गई केरल में 1957 में नम्बूदरीपाद की सरकार को पत्तम थानू पिल्लई को आगे करके ऐसे विषय पर बर्खास्त किया जो स्टेट यब्जेकट था। बाद की सरकारों ने प्रान्तीय सरकारें बर्खास्त करने में कभी संकोच नहीं किया। आशा है नौजवान आलोचक विदेशी सम्बन्ध और प्रजातंत्रिक मूल्यों के सम्मान का अंतर देख रहे होंगे।

लालबहादुर शास्त्री अच्छे व्यक्ति और अच्छे प्रधानमंत्री थे लेकिन उनकी मौत किसने कराई और कैसे हुई यह गुत्थी आज तक अनसुलझी है। उनके न रहने के बाद इन्दिरा गांधी की सरकार ने अमेरिका से अन्न देने की अपेक्षा की थी तब अमेरिका ने पीएल 480 के तहत वह गेहूं दिया था जो वह अटलांटिक सागर में फेंकने वाला था। देश लाचार था उसका माथा झुक गया था विशेषकर जब सरकार को विवश होकर रुपए का अवमूल्यन करना पड़ा था।

अस्सी के दशक में कांग्रेस की देख रेख में जब कांग्रेस के कभी युवातर्क रहे चन्द्रशेखर की सरकार बनी तो देश की साख इतनी गिर गई थी कि उस सरकार ने भारत का सोना इंगलैंड में गिरवी रखकर विदेशी कर्ज की किश्त चुकाई थी, नौजवान आलोचक देश की माली हालत की तुलना आज के हालात से नहीं कर पाएंगे।

इस तरह जब हम पिछले 70 साल के विषय में सोचते हैं तो शायद अटल जी की सरकार के समय दो साल का सूखा और करगिल युद्ध के बावजूद विदेशी मुद्रा भंडार और देश में अन्न भंडार बेहतर कह सकते हैं जब मुद्रास्फीति इतनी घट गई थी कि कर्मचारियों का महंगाई भत्ता घटाने की बात चली थी और गेहूं का पहली बार निर्यात हुआ था। उसके बाद दस साल तक चली मनमोहन सिंह की सरकार के हालात सभी को याद होंगे क्योंकि इक्कीसवीं सदी के कोयला से लेकर पनडुब्बी तक के मामले चर्चा में रहे हैं। अटल जी ने शायराना अन्दाज़ में मनमोहन सिंह की जुल़्फों की तारीफ की थी, अर्थशास्त्र की नहीं।

इतिहास के पन्ने पलटेंगे तो हर्षद मेहता का शेयर घोटाला और लेलगी का स्टैंप घोटाला भी दिखाई देगा । यह तो समय और जनता बताएगी कि नोटबन्दी और जीएसटी के बाद देश की दयनीय दशा हो गई है अथवा नहीं। निर्णय की प्रतीक्षा करनी होगी।



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